लेखक: जयदीप हार्दिकर
यह कहानी महाराष्ट्र के मराठा समुदाय के गुस्से, हताशा और हां, आरक्षण की मांग के इर्द-गिर्द घूमती है। इस समुदाय के युवाओं को लगता है कि शिक्षा, राजनीति और समाज में उनके साथ भेदभाव हो रहा है। इसी भावना के चलते वे आरक्षण की मांग कर रहे हैं। इस मांग को आवाज देने वाले मनोज जारंगे पाटिल एक साधारण किसान हैं।
कहानी की शुरुआत बीड से करते हैं, जहां 21 वर्षीय दीपा भोसले ने खुदकुशी कर ली। उनके भाई गणेश बताते हैं कि पुलिस भर्ती में महिला उमीदवारों के लिए कम पद देखकर दीपा चिंतित थीं। दीपा की यह कहानी महाराष्ट्र के उस दर्द को बयां करती है जो आरक्षण के मुद्दे को हवा दे रहा है। मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों में किसानों की आत्महत्या, पलायन और बेरोजगारी आम बात है।
इसी पृष्ठभूमि में सात साल पहले मराठा क्रांति मोर्चा का उदय हुआ। इस संगठन ने शांतिपूर्ण रैलियों के जरिए मराठा समुदाय की उपेक्षा और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई। इन रैलियों ने तत्कालीन राजनीति को तो नहीं बदला, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग, दलित और सत्ताधारी वर्ग को झकझोर कर रख दिया। मंडल आयोग के बाद से ओबीसी और दलित राजनीतिक रूप से सशक्त हुए थे, जिससे मराठा समुदाय को अपनी पकड़ ढीली होती दिखाई देने लगी।
यहीं से मनोज जारंगे पाटिल का उदय होता है। साधारण किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाले जारंगे ने मराठा आरक्षण की मांग को फिर से हवा दी। जालना जिले के अंतरवाली सारती गांव में उन्होंने लंबा धरना दिया, जिसमें हजारों मराठा शामिल हुए। जारंगे ने एक मराठी अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा था, ‘न तो मुझे प्रलोभन दिया जा सकता है और न ही मुझे दबाया जा सकता है।’
पिछले साल अक्टूबर में पुलिस लाठीचार्ज ने आग में घी का काम किया और पूरे देश से मराठा समुदाय जारंगे के समर्थन में उतर आया। मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र के गांवों ने सत्ताधारी नेताओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। ‘गांव बंदी’ का नारा युवाओं में काफी लोकप्रिय हुआ। जून में महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव इसी गुस्से का नतीजा था।
लोकसभा चुनावों में बीजेपी अपनी परंपरागत सीटों जालना, बीड, नांदेड़ और अहमदनगर को नहीं बचा पाई। इससे साफ पता चलता है कि जनता में कितना असंतोष था। बीजेपी ने ओबीसी को मराठा समुदाय पर तवज्जो देने की कोशिशें कीं जिनका असर विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा।
बीड इसका एक उदाहरण है। यहां पानी की कमी के कारण हमेशा से तनाव रहता है। इस जिले में वंजारी समुदाय का दबदबा है। बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने इस समुदाय को संगठित किया था। मुंडे के बाद उनकी बेटी पंकजा और भतीजे धनंजय ने यहां की राजनीति पर कब्जा जमा लिया। इससे मराठा समुदाय में यह भावना घर कर गई कि उनकी अनदेखी की जा रही है। पंकजा मुंडे को मराठा नेता बजरंग सोनवणे से हार का सामना करना पड़ा। इससे बीड में वंजारी बनाम मराठा की लकीरें और गहरी हो गई हैं।
मनोज जारंगे का मानना है कि बीजेपी बड़ी जातियों को कमजोर करके छोटे ओबीसी समूहों को लुभाने की कोशिश कर रही है। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘पटेल, गुर्जर, जाट, मराठा, सभी को बीजेपी दरकिनार कर रही है।’ जारंगे हमेशा सफेद कुर्ता और केसरिया गमछा पहने दिखते हैं। केसरिया रंग उनके आदर्श, छत्रपति शिवाजी के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक है।
जारंगे कहते हैं, ‘मैं अपने समुदाय को एकजुट करना चाहता हूं, लेकिन अगर लोग बिखरे और असंगठित रहना चाहते हैं, तो मैं कुछ नहीं कर सकता।’जारंगे ने विधानसभा चुनावों में अपने उम्मीदवार नहीं उतारने का फैसला किया है। वे मानते हैं कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे बीजेपी और देवेंद्र फडणवीस को फायदा हो, जिन्होंने ओबीसी और मराठा समुदाय में फूट डालने की कोशिशें की हैं।
मनोज जारंगे की नजर लंबी लड़ाई पर है। वे सालों से अर्जित सामाजिक पूंजी को यूं ही नहीं गंवाना चाहते। आरक्षण सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान नहीं है, लेकिन जारंगे ने जो सवाल उठाए हैं, वे जल्द शांत होने वाले नहीं हैं। न तो महायुति और न ही महाविकास अघाड़ी ने राज्य की ज्वलंत आर्थिक और सामाजिक समस्याओं का कोई ठोस हल पेश किया है।
बीड में दीपा भोसले के परिवार के पास अब बस उनकी यादें रह गई हैं। उनकी मां कहती हैं, ‘मैंने उसे बेटे की तरह पाला था। मुझे लगा था कि यह लड़की मुश्किलों से लड़ने के लिए मजबूत दिल-दिमाग वाली है।’
दीपा और जारंगे की कहानियां महाराष्ट्र की सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल को बयां करती हैं। आरक्षण की मांग ने राज्य में एक नया अध्याय लिखा है, जिसका अंजाम क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
लेखक पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया नाम की संस्था से जुड़े हैं।