“अमेरिका का जो यार है, गद्दार है, गद्दार है”- यह है इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इस्लाम का नया नारा। दरअसल, अब इमरान खान राजनीति में नई पारी खेलने के लिए कमर कस चुके हैं। वह हैं तो बड़े खिलाड़ी। सन1980 के दशक में इमरान खान क्रिकेट के मैदान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना जलवा दिखा चुके हैं।
उस समय कोई यह अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि वह भविष्य में पाकिस्तानी राजनीति की भी कप्तानी करेंगे। लेकिन क्रिकेट से रिटायरमेंट के बाद जल्द ही वह राजनीति के मैदान में उतरे और देखते-देखते सन 2018 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन गए।
सब जानते हैं कि उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में मैच जीतने के लिए इस क्षेत्र के पाकिस्तानी ‘अंपायर’, अर्थात फौज का हाथ थामा। पाकिस्तानी फौज को उस समय नवाज शरीफ को आउट करना था। इसलिए फौज से मिलकर एक ‘फिक्स्ड मैच’ में इमरान खान ने पाकिस्तानी सेना के आशीर्वाद से सबको पराजित कर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का पद हासिल कर लिया। लेकिन अपना कार्यकाल पूरा करने से पूर्व ही उनकी फौज से ठन गई।
पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय मामलों एवं आईएसआई चीफ की नियुक्ति के मामले में खान साहब ने फौज की मंशा के खिलाफ फैसले लिए। आप जानते ही हैं कि पाकिस्तान में फौज से जिस लोकतांत्रिक नेता ने पंगा लिया, उसका हश्र कुछ अच्छा नहीं होता है। जुल्फिकार अली भुट्टो और उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो को तो अपनी जान देनी पड़ी। फिर, नवाज शरीफ फौज के कारण ही दो बार सत्ता से बाहर हुए और दोनों बार जान बचाने के लिए देश छोड़कर बाहर भागे।
अब इमरान खान की फौज से ठन चुकी है। अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें नो बॉल का इशारा कर दिया है और उनके डिप्टी स्पीकर द्वारा विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को खारिज करने को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को भी बहाल कर दिया है। वैसे इमरान अच्छी तरह समझते हैं कि पाकिस्तान में फौज जिसको एक बार ‘अल्लाह हाफिज’ कह देती है, उसकी पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में भी नहीं चलती है।
इस स्थिति में उनको पता है कि जल्द या फिर अधिकतम छह माह बाद उनको चुनाव में जाना पड़ेगा। इसलिए वह अभी से चुनाव की तैयारी में लग चुके हैं। वह जानते हैं कि अगले चुनाव में फौज एवं फौजी इशारे पर मीडिया उनके साथ नहीं होगा। और अब पिछले चुनाव वाला ‘मिस्टर क्लीन’ जैसा नैरेटिव उनके पक्ष में चलने वाला नहीं है। इसलिए खान साहब ने अगले चुनाव के लिए एक नया नैरेटिव तैयार कर लिया है और उनका चुनावी नारा है ‘अमेरिका का जो यार है, गद्दार है, गद्दार है’।
पाकिस्तान जैसे देश के लिए नारा तो अच्छा है। जाहिर है कि इमरान खान ने अमेरिका विरोधी नैरेटिव पर चुनाव लड़ने के लिए कमर कस ली है। पाकिस्तानी जनता में आज नहीं, पिछले कई दशकों से अमेरिका के खिलाफ गुस्सा है। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यही है कि लोकतंत्र के खिलाफ जब-जब पाकिस्तानी फौज ने सरकारों का तख्ता पलटा है, तब-तब अमेरिका ने फौज का साथ दिया है।
जनरल जिया उल हक से लेकर मौजूदा जनरल बाजवा तक अमेरिका और फौज के संबंध मधुर रहे हैं। पाकिस्तानी जनता के बीच आम विचार यह है कि जुल्फिकार अली भुट्टो एवं बेनजीर भुट्टो की मौत में पाकिस्तानी फौज को अमेरिका का सहयोग हासिल था।
फिर अभी आठ-दस दिन पूर्व वर्तमान पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा ने एक गोष्ठी में यह बात बहुत स्पष्ट कर दी थी कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में इमरान खान ने जो अमेरिका विरोधी कदम उठाए हैं, फौज उससे खुश नहीं है। मसलन, इमरान खान उस रोज रूस के दौरे पर थे जिस रोज रूस की सेना ने यूक्रेन पर आक्रमण किया था। इस प्रकार इमरान खान अंतरराष्ट्रीय मामलों में अमेरिका के विरुद्ध जो नया रूस-चीनी एक्सिस बन रहा है, उसको खान साहब का भी सहयोग हासिल है।
वैसे, इन दिनों पाकिस्तानी फौज के संबंध भी अमेरिका से बहुत मधुर नहीं हैं लेकिन फौज को पता है कि वह अमेरिका से बैर नहीं ले सकती है। इसलिए जनरल बाजवा ने एक गोष्ठी के माध्यम से यह बात स्पष्ट कर दी कि फौज इमरान खान की अंतरराष्ट्रीय नीति से खुश नहीं है।
इधर, जनरल बाजवा का बयान आया, उधर पाकिस्तानी राजनीति में एक और बवंडर उठ खड़ा हुआ। अमेरिका में पाकिस्तानी दूतावास के एक बड़े अफसर ने अपने मंत्रालय को जो ताजा डोजियर भेजा था, वह समाचारों में लीक हो गया। उस डोजियर के अनुसार, अमेरिका के डिप्टी फॉरेन सेक्रेटरी एंटनी जे. ब्लिंकेन ने पाकिस्तानी दूत को बुलाकर इमरान खान की अंतरराष्ट्रीय नीति के खिलाफ अमेरिकी विचार स्पष्ट कर दिए।
डोजियर के अनुसार, अमेरिका का मानना है कि इमरान खान अंतरराष्ट्रीय मामलों में जो कदम उठा रहे हैं, उनको पाकिस्तानी फौज का आशीर्वाद नहीं है। बस, इस डोजियर के लीक होने के बाद पाकिस्तानी विपक्ष ने संसद में इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया।
डूबते को तिनके का सहारा। बस, इमरान खान को अपनी राजनीति चलाने के लिए मौका मिल गया। रातोंरात उनकी पार्टी की ओर से यह नारा फूट पड़ाः ‘अमेरिका का जो यार है, गद्दार है, गद्दार है’, अर्थात इमरान खान समझ गए कि अब सत्ता में उनकी पारी जल्द ही समाप्त है, इसलिए चुनाव की तैयारी का अब समय आ गया है। और चुनावी दंगल में उनको क्रिकेट के खिलाड़ी की तरह अपने प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ तेज बॉलिंग करनी होगी और अमेरिकी विरोध ही अब उनको चुना जिता सकता है।
इसलिए खान साहब अमेरिका विरोधी नैरेटिव के साथ चुनावी मैदान में उतर चुके हैं। इस नैरेटिव से वह पाकिस्तानी जनता की हमदर्दी हासिल करने की जुगत में हैं। पाकिस्तानी जनता यह तो समझ ही रही है कि दूसरे प्रधानमंत्रियों के समान इमरान फौज के कारण सत्ता से बाहर हो रहे हैं। और इमरान अब जनता को इस नए नैरेटिव से यह समझाने की कोशिश में हैं कि फौज एवं उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी- दोनों ही अमेरिका के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं, अर्थात वह अमेरिका के हाथों शहीद होने का नैरेटिव लेकर चुनाव के मैदान में उतरने को तैयार हैं।
अब सवाल है कि यह अमेरिका विरोधी इमरान का नैरेटिव चुनाव में कितना सफल हो सकता है। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तानी राजनीति के लिए यह नैरेटिव नया है। जमाते इस्लामी जैसी पाकिस्तानी धार्मिक पार्टियां इस नैरेटिव पर चुनाव लड़ चुकी हैं और उनको कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है।
पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तानी जनता के मन में अमेरिका विरोधी भावनाओं के बीज हैं। वह अफगानिस्तान मामला हो या पाकिस्तानी लोकतंत्र की पीठ में छुरा घोंपने की बात, पाकिस्तानी जनता इन सारी बातों के लिए अमेरिका को जिम्मेदार मानती है। खान साहब इसी भावना को उभारकर चुनाव लड़ने के फिराक में हैं।
लेकिन यह दोधारी तलवार है। अमेरिका विरोध को चुनावी मुद्दा बनाकर इमरान खान पाकिस्तानी व्यवस्था के कई अंगों को अपना दुश्मन बना रहे हैं। फौज की ओर से जनरल बाजवा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसको अमेरिका विरोधी नैरेटिव अथवा राजनीतिक नैरेटिव मंजूर नहीं है। मतलब अगले चुनाव में खान साहब को सेना का कोई सहयोग नहीं मिलेगा। फिर राजनैतिक पार्टियां तो उनके खून की प्यासी हैं ही। वे राशन-पानी लेकर इमरान का विरोध करेंगी ही।
फिर, अमेरिका विरोध को जनता में सफल बनाने में इमरान को दो और तत्वों का सहयोग चाहिए होगा। पहला, पाकिस्तान के मदरसों में बैठा देश का धार्मिक नेतृत्व इमरान खान का पूरी तरह सहयोग करे। यह संभव नहीं लगता। उसका कारण यह है कि पाकिस्तानी धार्मिक नेतृत्व की कमान सऊदी अरब के हाथों में है।
पाकिस्तानी मदरसों का सबसे अधिक पैसा सऊदी अरब से आता है। समस्या यह है कि इस्लामिक देशों के मामले में कुछ बातों पर खान साहब ने सऊदी अरब से दूरी बनाकर तुर्की का सहयोग किया था। इसलिए सऊदी अरब से भी उनको बहुत सहयोग नहीं मिलेगा। फिर अंतरराष्ट्रीय मामलों में सऊदी सरकार अमेरिका विरोध का साथ नहीं देती है। अर्थात पाकिस्तानी मदरसे एवं संस्थाएं इमरान खानके सहयोग में बहुत सक्रिय नहीं होंगी।
पिछले चुनाव में साथ देने वाली धार्मिक संस्थाएं इमरान का साथ नहीं देंगी। फिर फौज के इशारे पर पाकिस्तानी मीडिया ने अभी से खान साहब से दूरी बना ली है। यही मीडिया पिछले चुनाव में खान साहब की छवि ‘मिस्टर क्लीन’ बनाने में पूरा सहयोग दे रहा था।
कुल मिलाकर यह कि अल्लाह (मदरसे), आर्मी और अमेरिका- पाकिस्तानी व्यवस्था के तीनों महत्वपूर्ण अंगों का अगले चुनाव में इमरान खान को सहयोग मिलने वाला नहीं है। यह इमरान खान के भविष्य के लिए बहुत खतरनाक संकेत है। पाकिस्तान का पिछले कुछ दशकों का राजनीतिक इतिहास यह बताता है कि ऐसी स्थिति में नेता का हश्र भुट्टो परिवार जैसा अथवा नवाज शरीफ जैसा होता है। अब देखें कि इमरान खान पाकिस्तानी राजनीति के इस चक्रव्यूह को तोड़ पाते हैं कि नहीं!