अयोध्या। सूबे में रामराज्य आये न आये, रामनगरी की राजनीति में रामायण युग आ गया है। सत्ता के संघर्ष को राजनीतिक अखाड़े में उतरने से पहले उम्मीदवारों को ‘घर’ के संघर्ष को पार करना जरूरी है।
महापौर चुनाव के लिए बिछ रही बिसात के मद्देनजर दिग्गज अपने उत्तराधिकार को अंदर ही अंदर जूझने लगे हैं। प्रिय को उम्मीदवारी दिलाने के प्रयास में कोप भवन का कोलाहल शुरू हो गया है।
अपने ही दांव में उलझकर रामनगरी की राजनीति से निर्वासित हुए सपा के दिग्गज नेता जयशंकर पांडेय महापौर चुनाव के बहाने न सिर्फ रामनगरी में वापसी करना चाहते हैं बल्कि पुत्र को राजनीति में स्थापित करना चाहते हैं।
नगर निगम अयोध्या में पार्षद एवं महापौर चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां व निर्दल अपना अपना कील कांटा दुरुस्त कर रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के मठाधीश अपने पुत्रों को इस चुनाव के माध्यम से स्थापित करना चाहते हैं। डॉक्टर लोहिया के आदर्शों को जीने का दावा करने वाले अयोध्या से पूर्व विधायक जयशंकर पांडेय ने भी अपने पुत्र के लिए गोटियां बिछाना शुरू कर दिया है। चुनावी संग्राम के पहले सपा उम्मीदवारी के लिए अयोध्या के ही पूर्व विधायक तेजनारायण पांडेय ‘पवन’ खेमे से अंदरखाने संग्राम तय माना जा रहा है।
अयोध्या महापौर व पार्षदों के चयन के लिए सपा ने अतुल प्रधान व कमाल अख्तर को पर्यवेक्षक नियुक्त किया लेकिन होगा वही जो पवन पांडेय चाहेंगे।
ऊपरी तौर पर तो पवन कुछ नहीं बोलेंगे लेकिन अंदरूनी तौर पर वह कतई नहीं चाहेंगे कि आशीष पांडे दीपू को टिकट मिले क्योंकि दीपू अयोध्या से पिछले विधानसभा चुनाव में टिकट के लिए सक्रिय थे।
मालूम हो कि जय शंकर पांडे ने अपनी राजनीति अयोध्या विधानसभा क्षेत्र से ही शुरू की थी और वह यहां से दो बार विधायक रहे। अखिलेश ने जब राजनीति में कदम रखा तो लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति से आए पवन पांडे ने अयोध्या में अपना अंगद पांव जमा दिया और जयशंकर को यहां से हटकर कटेहरी से चुनाव लड़ना पड़ा।
कटेहरी से दो तीन सौ वोट के अंतर से जयशंकर को पराजय झेलनी पड़ी। पिछले विधानसभा चुनाव कटेहरी सीट बसपा से आए लाल जी वर्मा को चली गई और वो जीत गए।
राजनीतिक अखाड़े के पुराने लड़ाकू जयशंकर को अंदेशा हो गया कि अब उनके लड़ने का समय निकल गया तो उन्होंने अपने लड़के आशीष पांडेय दीपू को अयोध्या महापौर का चुनाव लड़ाने की भूमिका बांधना शुरू कर दिया है। आशीष रक्तदान के माध्यम से समाजसेवा के लिए जाने जाते हैं।
लोहिया ने भले ही परिवारवाद का विरोध किया हो लेकिन सपा हर कदम लोहिया के इस विचार को रौंदती रही है। वैसे भी परिवारवाद का मुद्दा धारदार नहीं रहा।
अन्य राजनीतिक दलों के भी सूरमा अपने पुत्रों के लिए गुणा भाग लगा रहे हैं। चुनाव की रणभेरी अभी बजी नहीं है लेकिन पार्षदी और महापौर का चुनाव लड़ने वालों ने अपनों को दस्तक देना शुरू कर दिया है।