शबाहत हुसैन विजेता
इरफ़ान खान. एक अभिनेता. भीड़ से निकला भीड़ में सबसे अलग शख्स. हिन्दुस्तान के एक आम घर में आँख खोलने वाला इरफ़ान कब और कैसे हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया के तमाम देशों की आँख का तारा बन गया किसी को पता ही नहीं चला. यह आदमी एक्टिंग करता नहीं था बल्कि एक्टिंग खुद उसे जीती थी.
करीब 15 साल पहले इरफ़ान खान से मुलाक़ात हुई थी. चेहरे पर अजीब किस्म की बेतरतीब दाढ़ी को देखकर मेरे मुंह से निकल गया कि कौन सा हुलिया बनाकर जी रहे हो. इरफ़ान के चेहरे पर मुस्कान तैर गई. …यह रोल की डिमांड है. अगर आपको डाकू का किरदार निभाना है तो डाकू जैसा बनना पड़ता है. शूटिंग से पहले कोई नकली तरीके से संवारे इससे बेहतर है कि खुद असली तरीके से वैसे बन जाओ. वैसा ही चेहरा बना लो. उसके बारे में खूब पढ़ो और फिर किरदार में घुस जाओ.
पढ़ना-लिखना इरफ़ान के संस्कार का हिस्सा था. वह काम निबटाकर घर में घुसते थे तो उन्हें कुर्सी पर बैठने या बेड पर लेट जाने की ज़रूरत नहीं होती थी, क्योंकि ऐसा करने से जिस्म को आराम मिलता है रूह को नहीं. घर पहुंच कर वह कपड़े चेंज करते और कोई किताब उठाकर अपने बेड पर पीठ टिकाकर ज़मीन पर बैठ जाते थे. किताब पढ़ते-पढ़ते वह अपने आप रिलैक्स हो जाते थे. इस दौरान उनके बीवी-बच्चे उनसे दूर ही रहते थे.
इरफ़ान के वालिद का टायर का बिजनेस था. इस बिजनेस से घर चल जाता था लेकिन शौक पूरे नहीं होते थे. इरफ़ान क्रिकेटर बनना चाहते थे. उनका चयन सी.के.नायडू क्रिकेट टूर्नामेंट के लिए हो गया था, ज़ाहिर था कि वह फर्स्ट क्लास क्रिकेट में इंट्री कर चुके थे लेकिन क्रिकेट खिलाड़ी वाली ज़िन्दगी जीने के लिए जितने पैसों की ज़रूरत होती है वह उनके पास नहीं थी.
क्रिकेट उन्होंने मजबूरी में छोड़ा लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिस राजस्थान में पैसों की कमी की वजह से उन्हें क्रिकेट छोड़ना पड़ रहा है वही राज्य एक दिन उन्हें अपना ब्रांड अम्बेसडर बनाएगा.
इरफ़ान भीड़ से निकलकर बिल्कुल अलग शख्सियत बन गए थे. दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने उनके अन्दर छुपे सोने का तपाकर कुंदन बना दिया था. एनएसडी में जाकर वह बहुत चूज़ी हो गए थे. बहुत ज्यादा काम और बहुत ज्यादा पैसों की तलाश उन्हें कभी रहती ही नहीं थी. बहुत ज्यादा पैसे उन्होंने कमाए भी नहीं लेकिन जो फ़िल्में कीं वह भले ही उँगलियों पर गिनी जा सकती हों लेकिन वह खुद उस कतार में खड़े थे जो उँगलियों पर गिने जायेंगे. उनके जैसे ढूंढना बहुत आसान नहीं होगा.
इरफ़ान खान ने इस दुनिया में सिर्फ 53 साल गुज़ारे. उसमें भी 30 साल फिल्म इंडस्ट्री को दे दिये. ज़ाहिर है कि वह फिल्म इंडस्ट्री की ही दौलत थे. आज जो दौलत लुटी है वह फिल्म इंडस्ट्री की लुटी है. रंगमंच सूना हुआ है. एनएसडी ने अपना होनहार छात्र खोया है. सुतापा सिकदर ने चाहने वाला पति और दोनों बच्चो ने एक चाहने वाला बाप खोया है.
इरफ़ान ने न सिर्फ हिन्दी सिनेमा को समृद्ध किया बल्कि ब्रिटिश और अमेरिकन फिल्मों में अभिनय करके हिन्दुस्तान के तिरंगे को पूरी दुनिया में लहरा दिया. टेलीविज़न के लिए उन्होंने ढेर सारे सीरियल किये. टेलिविज़न के ज़रिये वह घर-घर में चाहा जाने वाला चेहरा बन गए.
लोग उन्हें पान सिंह तोमर से जानते हैं. लोग उन्हें भारत एक खोज से जानते हैं. चाणक्य, चन्द्रकान्ता, सारा जहाँ हमारा. कितने नाम लिए जाएं. उनका हर रोल देखकर यही लगता था कि वह बस यही रोल जीने के लिए पैदा हुए थे. ब्रिटिश फिल्म द वैरियर के ज़रिये भी उन्होंने अपने अभिनय का लोहा मनवाया. उनके पास पुरस्कारों की भी बड़ी श्रंखला है. पद्मश्री भी उनके खाते में आया और फिल्म फेयर भी मगर पुरस्कारों की चकाचौंध कभी इरफ़ान को न घमंडी बना पाई न ही ज्यादा से ज्यादा पैसों की तरफ खींच पाई.
इरफ़ान कुछ भी जल्दी हासिल करने के चक्कर में नहीं रहते थे. किस्मत से पत्नी भी उन्हें एनएसडी पास आउट ही मिली इसलिए पत्नी की तरफ से भी उन पर बहुत जल्दी कुछ हासिल कर लेने का दबाव नहीं था. इरफ़ान चूजी थे, इरफ़ान सेलेक्टिव थे. इरफ़ान तूफानों से टकराना जानते थे. मुश्किल वक्त से निकले थे इसलिए मुश्किल घड़ियों में भी सुकून से जीना जानते थे. इरफ़ान के सफलता वाले चमकदार वरक सबको दिखते हैं लेकिन इरफ़ान का संघर्ष इरफ़ान के करीबी लोगों ने ही देखा है. यही वजह है कि मुश्किल रोल को एक झटके में वह आसान बना डालते थे. शायद यही वजह हो कि इरफ़ान की एक्टिंग में दिखावा नहीं सच्चाई नज़र आती थी और उसी सच्चाई पर हर कोई फ़िदा हो जाया करता था.
इरफ़ान रंगमंच से निकले थे. वह रंगमंच के सबसे शानदार कालेज में पढ़े थे. इरफ़ान इस देश के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट को छोड़कर आये थे. इरफ़ान मुश्किल ज़िन्दगी को जीकर आये थे. इरफ़ान एक ऐसे घर से निकलकर आये थे जिसमें पिता टायर का बिजनेस करता था और माँ यह चाहती थी कि उनका बेटा ज़िन्दगी में कुछ सबसे अलग कर जाए.
सब कुछ अलग करने के लिए ही तो इरफ़ान ने क्रिकेट का दामन थामा था लेकिन वहां पैसा बहुत अहमियत रखता था. एमए की डिग्री भी हासिल कर ली थी लेकिन क्लर्की तो करनी नहीं थी. सबसे अलग करना था. सबसे अलग तरह से जीना था. माँ के जो ख़्वाब थे उन्हें पूरा करना था. इन्हें पूरा करने के जिद भी थी. इसी जिद की वजह से न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर जैसी बीमारी को भी हरा दिया था. उसमें मुश्किल बहुत हुई थी लेकिन जीत जाना तो फितरत का हिस्सा था. लेकिन माँ की मौत ऐसे वक्त में हुई जब लॉक डाउन था. मरने के बाद भी माँ के पास पहुँच पाना आसान नहीं था. यह नामुमकिन था मगर वाह रे इरफ़ान इस नामुमकिन को भी मुमकिन बना दिया. अपने पैरों से चलकर अस्पताल गए. और अस्पताल से उस गाड़ी पर सवार हो गए जो सीधे माँ के पास ले जाती है. माँ 95 की थीं और इरफ़ान 53 के मगर इससे क्या. लॉक डाउन पूरे देश में था मगर इससे क्या. घर में बीवी बच्चे इंतज़ार करेंगे इससे क्या. दुनिया में लाखों करोड़ों चाहने वाले आंसू बहाएंगे उससे भी क्या. लॉक डाउन का नियम भी नहीं तोड़ा और माँ के पास भी चले गए. इरफ़ान तुम्हारा जाना तुम्हारा आसान फैसला हुआ करे लेकिन तुम्हारी यह अदा पसंद नहीं आयी.