डा. रवीन्द्र अरजरिया
कोरोना ने पूरी तेजी के साथ पुन: दस्तक दे दी है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है। पीडितों का हाल बुरा है। सरकारें अपने ढंग से देश को चलाना चाहतीं हैं और डब्ल्यूएचओ अपने ढंग से। सरकारें सत्ता की ललक में निर्णय ले रहीं हैं और डब्ल्यूएचओ किसी के खास इशारे पर निर्देश जारी कर रहा है। राजनैतिक विसात पर शह और मात का खेल जारी है।
जीवन की कीमत पर सत्तासुख की चाह रखने वाले शारीरिक दूरी हेतु सामाजिक दूरी का संदेश देकर अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं। चुनावी दंगल में कोरोना दूसरे नम्बर की प्राथमिकता हो गई है। मनुष्य जीवित रहे या न रहे परन्तु वोटर जरूर रहे। वोट जरूर डाले। जाति, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय को हवा मिलती रहे। ध्रुवीकरण के तीर निशाने पर लगते रहें।
कहीं डर बताकर, कहीं डर दिखाकर तो कहीं डराकर, कहीं डरावनी कल्पना के सहारे बरगलाकर वोटों पर डाका डाला जा रहा है। आरोपों-प्रत्यारोपों के गर्म होते बाजार में दलगत राजनीति के महारथी लाशों के सौदे करने में जुटे हैं। महामारी की ओर गम्भीर होने के वक्त में वे जीत-हार की बाजी लगा रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के धरातली कर्मचारियों की मुसीबत एक बार फिर चरम पर है।
गांवों में काम करने वाली आशा कार्यकर्ता, एएनएम, स्वस्थ सेवक, चिकित्सक, नर्स, बीपीएम जैसे लोग जहां क्षेत्र में कडी मेहनत कर रहे हैं वहीं ऊपर के अधिकारियों को रिपोर्टिंग, उनसे बार-बार मिलने वाले टेलीफोनिक निर्देश और उन निर्देशों पर तत्काल अमल करने की इच्छापूर्ति का दबाव भी झेल रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर उच्च अधिकारी अपने वातानुकूलित कमरों, वातानुकूलित कारों और वातानुकूलित आवासों में बैठकर काल्पनिक उपलब्धियों हेतु निज सहायक के माध्यम से तरह-तरह के निर्देश जारी करने में लगकर स्वयं की पीठ थपथपा रहे है। लाकडाउन के दौरान पुलिसकर्मियों सहित अन्य जनसुविधाओं से जुडे लोगों के दायित्वबोध बेहद कडे हो जाते हैं। लाकडाउन के दौरान कुछ रचनात्मक काम भी किये जा सकते हैं जिस हेतु प्रशासनिक अमला अभी तक बेखबर है।
इस दौरान जहां सार्वजनिक स्थानों पर लोगों ने अतिक्रमण करके बेजा कब्जा कर रखा है, उसे मुुक्त किया जा सकता है। बाजारों में सडकों पर पसरे तख्त, चौकियां, रैक आदि की जप्ती करके मार्ग को सुगम बनाया जा सकता है। कूडादानों को व्यवस्थित स्वरूप दिया जा सकता है। सूनी सडकों की मरम्मत की जा सकती है।
पाइप लाइन, टेलीफोन लाइन, विद्युत लाइन, सीवर लाइन आदि डाली जा सकती है, जिसमें मानव शक्ति कम और मशीनों का प्रयोग अधिक होता है। लाकडाउन के दौरान उन सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की सेवायें रचनात्मक दिशा में ली जा सकतीं है जो बेतन सहित अवकाश पाने का लाभ ले रहे हैं।
इस तरह के लोगों में शिक्षा विभाग, उच्चशिक्षा विभाग, तकनीकी शिक्षा विभाग, कृषि विभाग, रोजगार विभाग, औषधि विभाग, पंचायत विभाग, सौर ऊर्जा विभाग, वैकल्पिक ऊर्जा विभाग, लोक निर्माण विभाग, पंचायत विभाग, संस्कृति विभाग, पर्यटन विभाग सहित ऐसे अनेक विभाग है जिसके पर करोडों रुपये का व्यय केवल बेतन पर ही जा रहा है। रचनात्मकता के लिए लाकडाउन अवरोध नहीं है बल्कि अवसर है।
इस के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से सीख ली जा सकती है जहां घर से काम करने की नीति अपनाकर बंदी के दौर में भी मुनाफा कमाया जा रहा है। ऐसें में कर्मचारी भी बेतन के ऐवज में काम कर रहे हैं और कम्पनी का लक्ष्य भी पूरा हो रहा है।
निजी क्षेत्र ने कोरोना को लाभ के अवसर में बदला जबकि सरकारी क्षेत्र में लोगों को सुविधा देने के नाम पर खजाने खाली कर दिये। वास्तविकता तो यह कि देश में आज एक भी व्यक्ति की मौत भूख के कारण नहीं हो सकती।
सरकारी खजाने से भले ही उस जरूरतमंद को दो दाने के लिए लम्बी भटकन झेलना पडे परन्तु देश की मानवीयता उसे भोजन देने हेतु तत्काल सामने आ जाती है। कोरोना के पहले चरण में कार्यस्थल से पलायन करने वालों को आम नागरिकों ने आगे बढकर रास्ते-रास्ते भोजन, आवास, वस्त्र, पैसे आदि सभी आवश्यकतायें प्रदान कीं। सरकारी डंडों से बचाया, तुगलकी फरमान से संरक्षण दिया और उन्हें उनके परिजनों से मिलाने में सहायता की।
दूसरा दौर फिर शुरू हो गया है। अभी कडाई की शुरूआत ही हुई है। लोग अभी से त्राहि-त्राहि करने लगे हैं। अतीत के अनुभवों पर टिकी हैं भविष्य की संभावनायें। अवसर में बदलना होगा कोरोना का अनुशासन, वेतन सहित अवकाश पाने वालों को लगाना होगा रचनात्मक कार्यों में और समझना होगा रिपोर्टिंग लेने वाले श्रृंखलाबध्द अधिकारियों की फौज को धरातली कर्मचारियों का दर्द।
तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था वास्तव में लोक का तंत्र बन सकेगी अन्यथा लोकतंत्र की खाल में छुपी चन्द लोगों की तानाशाही देश के नागरिकों को गुलाम की अघोषित परिभाषा में समेट देगी।