अशोक गहलोत के वर्चस्व को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं पायलट

कृष्णमोहन झा

राजस्थान में कुछ माह पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के वर्चस्व को चुनौती देकर सचिन पायलट ने न केवल अपना उपमुख्यमंत्री पद गंवा दिया था बल्कि प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद की बागडोर भी उनके हाथ से निकल गई थी । उसके बाद से वे जिस तरह शांत दिखाई दे रहे थे

उससे इन अनुमानों को बल मिल रहा था कि गहलोत के हाथों मिली शिकस्त ने उन्हें हताश कर दिया है। इस बीच न तो उन्होंने फिर से गहलोत सरकार में उपमुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा उजागर की और न ही दुबारा प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद हासिल करने के लिए आलाकमान से गुहार लगाई।

लेकिन हाल में ही पांच विधानसभाओं के चुनावों में कांग्रेस के प्रचार अभियान में उन्होंने जिस तरह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई उसके पीछे संभवतः उनकी यही मंशा थी कि वे पार्टी आलाकमान का खोया हुआ विश्वास फिर से अर्जित करना चाहते हैं ताकि भविष्य में राजस्थान की गहलोत सरकार अथवा पार्टी की प्रदेश इकाई में उन्हें मनचाहा महत्वपूर्ण पद अर्जित करने के लिए वे आलाकमान को मना सकें।

इसके लिए वे किसी उचित अवसर की तलाश में थे जिसकी प्रतीक्षा करते करते शायद उनके सब्र का बांध टूटने लगा था इसलिए विगत कुछ दिनों से सत्ता के गलियारों में उनकी कदमताल अचानक ही तेज हो उठी है। इसने उनकी दबी हुई महत्वाकांक्षा को फिर उजागर कर दिया है ।

वे चाहते हैं कि उनके समर्थक विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए मुख्यमंत्री गहलोत अपने मंत्रिमंडल में जल्द से जल्द फेरबदल करें परंतु मुख्यमंत्री गहलोत ने अभी तक ऐसे कोई संकेत नहीं दिए हैं कि वे निकट भविष्य में अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं ।

विगत दिनों जब मुख्यमंत्री ने यह बयान दिया कि चिकित्सकों ने उन्हें दो महीने तक मेल मुलाकातों से दूर रहने की सलाह दी है तो राजनीतिक गलियारों में उनके इस बयान के यह अर्थ लगाए गए कि पार्टी में शुरू हुई इस नई उठा-पटक से वे जरा भी चिंतित नहीं हैं।

सचिन पायलट के गिले शिकवे दूर करने के लिए जब मुख्यमंत्री गहलोत की ओर से कोई पहल नहीं की गई तो उन्होंने अपने विधायकों को साथ लेकर नई दिल्ली में डेरा डाल रखा था परन्तु उन्हें वहां पांच दिनों तक रुकने के बावजूद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने मिलने का समय नहीं दिया और कांग्रेस के राजस्थान प्रभारी अजय माकन के माध्यम से उन तक यह संदेश पहुंचा दिया गया कि पार्टी दबाव की राजनीति सहन नहीं करेगी और उन्हें मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में ही काम करना होगा। नई दिल्ली में निराशा हाथ लगने के बाद सचिन पायलट अब जयपुर लौट आए हैं।

दरअसल सचिन पायलट यह चाहते हैं कि उनके गुट के कम से कम 6 विधायकों को गहलोत सरकार में शामिल किया जाए जबकि मुख्यमंत्री गहलोत ने साफ कह दिया है कि वे सचिन पायलट के अनुरोध पर उनके गुट के अधिकतम तीन विधायकों को मंत्री बना सकते हैं क्योंकि उन्हें उन निर्दलीय और बसपा छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुए विधायकों को भी पर्याप्त संख्या में मंत्रिमंडल में एडजस्ट करना है जिन्होंने गत वर्ष मुश्किल समय में उनका साथ दिया था जब सचिन पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ मिलकर सरकार को अस्थिर करने की कोशिशों में लगे हुए थे।

गौरतलब है कि गत वर्ष सचिन पायलट अपने गुट के 18 विधायकों को साथ लेकर हरियाणा चले गए थे जहां के एक आलीशान रिसोर्ट में उन सबकी आवभगत जिम्मेदारी खट्टर सरकार ने अपने ऊपर ओढ़ ली थी। उस समय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी अपने पक्ष के सारे विधायकों के साथ प्रदेश के एक रिसॉर्ट से अपनी सरकार चला रहे थे।

राजनीतिक संकट की उस घड़ी में गहलोत को निर्दलीय और बसपा विधायकों का साथ मिल गया था और उनकी सरकार पर आया खतरा टल गया था। सचिन पायलट के पास अगर पर्याप्त संख्या में विधायक होते वे भी अपने मित्र ज्योतिरादित्य सिंधिया की रणनीति के जरिए भाजपा के साथ मिलकर राजस्थान में सत्ता परिवर्तन की संभावनाएं तलाश सकते थे परंतु भाजपा भी को भी इस हकीकत का अहसास हो चुका है कि राजस्थान में सचिन पायलट को साथ लेकर वहां मध्यप्रदेश का इतिहास दोहराने की कोशिश फिलहाल तो कामयाब नहीं हो सकती।

सचिन पायलट सत्ता में अपने पुनर्वास के इस प्रयास में भी जिस तरह असफल होते दिख रहे हैं उससे यह साबित हो गया है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जैसी राजनीतिक चतुराई उनके पास नहीं है।अभी तो उनके लिए यही उचित होगा कि मुख्यमंत्री गहलोत यदि उनके गुट के तीन विधायकों को मंत्री पद से नवाजने के लिए तैयार हैं तो उनके उस आफर को स्वीकार कर दुबारा मुख्यमंत्री का विश्वास अर्जित करने का प्रयास करें। निकट भविष्य में उनके गुट के पांच विधायकों को निगम और मंडलों में भी मनोनीत करने का आश्वासन मुख्यमंत्री ने दिया है।

पायलट इस समय आर पार की लड़ाई लड़ने की मजबूत स्थिति में नहीं हैं। इसलिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ सुलह की नीति पर चलने में ही उनकी भलाई है। पायलट को इस कड़वी हकीकत का अहसास भी होना चाहिए कि भंवरलाल शर्मा जैसे कद्दावर नेता सहित तीन विधायक उनका साथ छोड़कर मुख्यमंत्री गहलोत के खेमे में शामिल हो चुके है। मुख्यमंत्री गहलोत सचिन पायलट गुट की इस उठा-पटक से इतने नाराज़ बताए जाते हैं कि उन्होंने कांग्रेस विधायकों से वन टू वन चर्चा करने से इंकार कर दिया है।

इतना ही नहीं उन्होंने पार्टी आलाकमान तक भी यह संदेश पहुंचा दिया है कि चिकित्सकों ने उन्हें अभी दो माह तक मेल मुलाकातों से दूर रहने की सलाह दी है इसलिए इस अवधि में वे नई दिल्ली भी नहीं आ पाएंगे। राजनीति के चतुर खिलाड़ी अशोक गहलोत ने इसी बीच मंत्रिमंडलीय सचिवालय से अपनी सरकार के सभी मंत्रियों के कामकाज की रिपोर्ट भी मंगवाई है ताकि मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों पर सरकार के साथ रहने का दबाव बना रहे।

कुल मिलाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अशोक गहलोत की पकड़ पिछले साल से भी ‌अधिक मजबूत नजर आ रही है। ऐसी स्थिति में भी अगर सचिन पायलट अगर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सत्ता के गलियारों में उठा-पटक की नीति पर चलने में ही अपना हित देख रहे हैं तो यह उनके राजनीतिक कैरियर की बहुत बड़ी भूल साबित हो सकती है।जिसकी कीमत चुकाने के लिए न केवल उन्हें बल्कि कांग्रेस पार्टी को भी तैयार रहना होगा।

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