आकार लेने के पहले विपक्षी मोर्चें के नेतृत्व पर खींचतान

यशोदा श्रीवास्तव

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लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है और तब तक राजनीतिक परिदृष्य क्या होता है, इस पर अभी से कयास लगाने का खास मतलब नहीं है, ऐसे में मोदी युग पर विराम लगाने पर दिमाग खपाने का कोई मतलब नहीं है। भारत के लोकतांत्रिक जनता का मूड जरा हटकर है और अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग तरह की भी है,तो कुछ राजनीतिक दल यह कैसे तय कर सकते हैं कि फला व्यक्ति या फला  राजनीतिक दल के नेतृत्व में एक जुट विपक्ष मोदी युग पर विराम लगा सकता है?

यहां इस बात पर भी गौर करना होगा कि जनता जब सरकार को सबक सिखाने की ठान लेती है तब वह कोई मुखौटा या चेहरा नहीं निहारती। उसे सरकारी दल के खिलाफ वोट देना है तो देना है। आखिर 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में देश के सामने कौन सा करिश्मायाी चेहरा था?

दरअसल आजकल देश की सबसे पुरानी और गऐ बीते हाल में अभी भी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस पर चौतरफा हमला जारी है क्योंकि शिद्दत से कह सकता हूं कि मोदी के पहले कार्यकाल से लेकर दूसरे कार्यकाल में यदि सत्तारूढ़ दल के प्रति बतौर विपक्ष कोई हमलावर है तो वह कांग्रेस ही है। हां हम त्रिणमूल कांग्रेस की ममता दीदी को अलग कर देखें तो कहना मुश्किल है कि दूसरा कोई

विपक्ष शायद ही केंद्र सरकार के खिलाफ मुंह खोल रहा हो लेकिन केंद्र सरकार पर ममता के हमले को राष्ट्रीय स्तर पर आकना बेमानी होगी। शेष सभी विपक्षी दलों का रवैया शिशुओं की तोतली बोली जैसी है।वह सरकार के विरोध में बोल रहे हैं या पक्ष में,समझ पाना मुश्किल है। यूपी में अखिलेश हों या मायावती दोनों ही डर डर के मुुंह खोलते हैं। यूपी में योगी सरकार या केंद्र में मोदी सरकार के खिलाफ मायावती के बयान राज्यपाल या सत्तादल के अध्यक्ष की भांति सुझावात्मक होते हैं।

वहीं राहुल गांधी, जिसे देश पप्पू के नाम से जान रहा है, सरकार के खिलाफ उनकी आक्रमकता में कोई मिलावट नहीं दिखती। मोदी सरकार को चेताने जैसे उनकी कई चेतावनयिों को केंद्र सरकार अमल करने पर मजबूर हुई। उन्होंने खासकर कोरोना को लेकर हाल के दिनों में जो कुछ कहा, सरकार की ओर से पहले उनकी जमकर आलोचना हुई, टीबी चैनलों पर झौं झौं हुआ फिर उसे अंततः अमल में लाना पड़ा। कोरोना को लेकर अगाह करने से लेकर विदेश से टीके मंगाने तक का उदाहरण सामने है।

अब बात करते हैं अभी अभी चुनाव प्रबंधक पीके की एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार से मुलाकात पर। बता दें कि इस मुलाकात के पहले पीके ने ही राहुल को 2024तक सत्ता का स्वाभाविक हकदार बताया था। और अब पीके की पवार से मुलाकात के बाद मीडिया में यह खबर तेजी से फैली की मोदी से मुकाबले के लिए कांग्रेस को गैर भाजपा विपक्षी दलों के साथ आना चाहिए लेकिन वह नेतृत्व भूल जाय! उसे सहयोगी बनना पड़ेगा।

पीके के मराठा क्षत्रप शरद पवार से मिलने के बाद खबर यह भी है कि ममता दीदी नहीं चाहती कि विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करे। कहा गया कि नेतृत्व शरद पवार करें। बात तो अच्छी है।कांग्रेस को इसके लिए बड़ा दिल दिखाना भी चाहिए लेकिन क्या उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक देश इसके लिए तैयार होगा?

ममता हों या शरद पवार, 28 प्रदेशों वाले इस देश के कितने प्रदेशों में इनकी स्वीकार्यता है? कहने का तात्पर्य यह है कि महाराष्ट्र के अलावा भारत के और किन प्रदेशों में शरद पवार की एनसीपी और ममता दीदी की त्रिणमूल कांग्रेस हैं।

वेशक प. बंगाल में ममता तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुईं हैं। उनकी लड़ाई भी किसी ऐरे गैरे से नहीं बल्कि केंद्र की पूरी की पूरी मोदी सरकार से थी। ममता दीदी ने उन्हें परास्त कर अपनी शेरनी की खिताब को बरकरार रखा, यह बड़ी बात है लेकिन यदि कांग्रेस जरा भी मजबूती से चुनाव लड़ी होती या फिर लेफ्ट अपना तेवर दिखाया होता तो क्या ममता की जीत मुश्किल नहीं होती?

कहना न होगा कि उनकी जीत को आसान बनाने में लेफ्ट और कांग्रेस का ढीलापन भी कहीं न कहीं मददगार रहा।निश्चित ही मौजूदा हुकूमत के खिलफ विपक्षी दलों का एक मजबूत मोर्चा बनना चाहिए लेकिन यह समझ से परे है कि मराठा क्षत्रप शरद पवार और पं. बंगाल की शेरनी ममता यह तय करें कि विपक्षी दलों का यदि कोई मोर्चा आकार लेता है तो उसका नेतृत्व कौन करे?

बताने की जरूरत नहीं कि अपने अपने प्रदेशों के ये दोनों सूरमा पूर्व की बीजेपी सरकार के सहभागी रहे हैं। मुमकिन हो कि कांग्रेस को भी विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व मे दिलचस्पी न हो लेकिन उसे बिल्कुल नकारा साबित कर कथित विपक्षी मोर्चे का सहयोगी बनने के लिए मजबूर करना तो समझदारी नहीं है।

कांग्रेस यदि बीजेपी के खिलाफ बनने वाले किसी मोर्चे का हिस्सा न हो तो क्या बाकी विपक्षी दलों के मोर्चे का कोई मतलब रह जाएगा? बेहतर होता विपक्षी दलों के बन रहे किसी मार्चे के नेतृत्व पर विचार करने से पहले नेतृत्व का सवाल कांग्रेस पर ही छोड़ देते या पहले एक होकर चुनाव लड़ते, यदि मोदी युग पर विराम लगाने में सफल होते, फिर नेतृत्व पर चर्चा करते। विपक्षी नेतृत्व की बात करने वाले एक बार देश के प्रदेशों में कांग्रेस की स्थित पर भी नजर डाल लेते।

यूपी और अब प. बंगाल को छोड़  दें तो देश के अन्य प्रदेशों में सत्ता से बाहर रहकर भी कांग्रेस की  स्थित इतनी दयनीय भी नहीं कि उसे शेष विपक्षी दलों के मोर्चे में सहयोगी बनने को विवश होना पड़े। हां 23 जी से जुड़े कांग्रेस के कई बड़े नेता कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार या ममता के नेतृत्व वाली विपक्षी मोर्चे का हिस्सा हो सकते हैं। लेकिन ऐसा करके वे कांग्रेस का कितना बड़ा नुकसान कर सकते हैं, यह सवाल नहीं हैं,सवाल यह है के ये मोर्चे को कितना फायदा दे सकते हैं?

ध्यान देने की बात है कि जिस रोज विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व की बात सामने आई, उसी रोज कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल का कांग्रेस में हर स्तर पर बदलाव की जरूरत संबंधी खबर भी अखबार की सुर्खियां रहीं। कांग्रेस के ये वही लोग हैं जिन्हें सत्ता के इतर कुछ भी मंजूर नहीं। कांग्रेस जब तक सत्ता में थी तब तक सिब्बल जैसे लोग मलाईदार पदों पर रहकर मजे काटे और आज जब कांग्रेस के संर्घष के दिन हैं तब संगठन में बदलाव की जरूरत बता रहे हैं वह भी जरिए मीडिया।

याद रखना होगा, इधर जैसे जैसे गैर भाजपा विपक्षी दलों के एक मोर्चा बनने की बात उठेगी तब तब कांग्रेस के भीतर जो ग्रुप 23 के सदस्य हैं, उनकी ओर से कांग्रेस की खामियां गिनाए जाने का सिलसिला और तेज होगा। ऐसे लोगों की मंशा भाजपा के खिलाफ बन रहे संयुक्त विपक्ष के मोर्चा को मजबूत करना नहीं,कांग्रेस को  कमजोर साबित करना है।

सवाल है कि क्या बिना कांग्रेस के कोई विपक्षी गठबंधन कामयाब होगा?वे लोग जो कभी बीजेपी या एनडीए सरकार के अंग रहे हैं,जनता इन पर भरोसा करेगी? कड़वा है पर सत्य है कि देश ऐसे किसी मोर्चा पर भरोसा करने वाला नहीं जिसका नेतृत्व गैर कांग्रेसी हाथ में हो।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)

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