चंचल
वसंत क्या है ?, प्रह्लाद इतना ज़िद्दी क्यों था ,? कामदेव इतने बड़े घर का लड़का, रति के चक्कर में कैसे पड़ गया ? कामदेव ने योगी भोले बाबा को , गर गुदगुदा ही दिया था , और उन्हें कुछ कुछ होने लगा तो क्या हुआ , उसे डाँट कर हटा देते , भश्म करने की क्या ज़रूरत थी ? कामदेव अनंग कैसे हुआ ? ये सब कुछ नही जानता था , जानता था तो बस इतना ही क़ि मई जून इम्तिहान के पहले होली आती है । उस होली के मज़े , उस रंग में डूबने और उतराने के मसौदे बनते । पिचकारी !
बचपन में तो बस पिचकारी पिचकारी भर रही , हर आते जाते पर रंग डाल देना । बुझारत बो दौड़ाती – “ हँसिया से काटि लेब छुन्नी , जियादा मस्ती घेरे बा का ? हे भगवान ! पूरा लूगा भीग ग !
सच्ची बताऊँ ! हम्मे तब तक ई ना मालूम रहा क़ि बुझारत बो क लूगा , भारतीय संगीत की वंदिस में फँस के चुनरियाँ हो जायगा और “ दादरा “ इंसान की घेरी हुयी तमाम बंदिसों को तोड़ के ऊपर निकल जायगा । जाति , मज़हब , लिंग , ऊँच नीच , सब भसक कर भहराय जायगा जब बेगम अख़्तर की प्रिय शिष्या शोभा गुर्टू बुझारत बो को अपने अन्दाज़ में उठाएँगी –
रंग सारी गुलाबी चुनरिया रे
मोहे मारे नज़रिता सँवरिता रे ॥
गुर्टू गाती हैं तो मन भीगता है । अवध की मिठास बूँद बूँद झरती है ।
बताता चलूँ की हमारे जमाने में पिचकारी प्लास्टिक की नही होती थी , बांस की बनती थी । लोर बांस । पोपला होता है । हम बच्चे खुद बनाते थे । प्रेसर से पानी ऊपर चढ़ता है , इसे पढ़ा बाद में , अनुभूति को आज़माया पिचकारी बनाते समय । पोपले बांस में बांस की एक पतली पर मज़बूत कैन ( डंडा ) उसके एक मुह पर पुराने कपड़े लपेट कर पिचकारी बना लेते और खेलते ।
यह पैसों के अभाव से निकला विकल्प था भाई । बापू ने इसी सोच पर नया दर्शन दिया – उत्पादक तुम हो , उपभोक्ता भी तुम हो तो उत्पादन पर लूट कैसे होगी ? नेहरु काल का बचपन अभाव का था लेकिन विकल्प हीन नही था । मिट्टी की गोली बना कर पकाना और फिर उस पे गणित खड़ा करना विकल्प ही था । राजनीति वालों के साथ यही होता है आएँगे हरि भजने , ओटने लगेंगे कपास !
– होली के रंग बिगाड़ देते हो ।
– का हुआ ?
– रिफ़ाइन कि दाम ऊपर हो गया
– बुड़बक हो , रिफ़ाइन ज़हर है , सरसों का तेल खाओ
– वो भी तो मिलावटी है
– शहर में रहोगे , डिब्बे में चीखती चिल्लाती खबर बांचती मुग्धाओं को मुहबाए निहारोगे , ही दो मिनट में सन्निपाती होकर जय श्रीराम का जाप करोगे , रोज़गार की जगह फ़िलिम में बितावोगे और खाने ने निखालिस शुद्ध माल तलाशोगे तो दोनो नही होगा ।
– के आ रे ? बात कामदेव औ रति की हो रही थी बिचवा में मूसर कहाँ से आ गवा ?
– ई मिसिंग लिंक हौ डारविन का
– कौन इन क
– एक डारविन रहा , इंसान जानवर से आदमी कैसे बना और का का बना ई लिखा है डारविन ने बनमानुष और आदमी के बीच की एक कड़ी ग़ायब रही , उसे डारविन ने मिसिंग लिंक कहा है । भारत आ गया होता और हमे गणेश जी को दूध पिलाते देखता तो पकड़ के मिसिंग लिंक में डाल देता ।
– भाड़ में जाय मिसिंग लिंक , ये बता औघड बाबा का क्या हुआ ? रति और सती तो दोनो बहने थी फिर सौतिया डाह काहे ?
– असल होली खेलन कि मन करे तो कालिदास के कुमार संभवम सर्ग आठ पढ़ । तब तक हम पिचकारी बनाते हैं। कृष्ण की बांसुरी के रंग वाली । बिहारी कहते हैं –
“अधर धरत , हरि के पड़त , ओठ डीथी पट ज्योति ।
हरित बांस की बांसुरी , इंद्र धनुष रंग होत ॥”
– भावार्थ ?
– होली कल है
– नशेड़ी , दुष्ट , नौटंकी ! एनवक्त पर कल ?
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ पदाधिकारी रहे, प्रख्यात चित्रकार हैं और एक प्रखर चिंतक हैं )