एक प्रोफेसर जो पहले ब्यूरोक्रेसी, फिर राजनीति में आए: प्रधानमंत्री कैसे बने

देश के 14वें प्रधानमंत्री और लगातार दो कार्यकाल पूरा करने वाले डॉ. मनमोहन सिंह नहीं रहे। वो 92 साल के थे। गुरुवार, 26 दिसंबर को अचानक तबीयत बिगड़ने पर उन्हें दिल्ली AIIMS के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती किया गया था। डॉक्टरों ने निधन की पुष्टि कर दी।

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एक प्रोफेसर, जो पहले ब्यूरोक्रेसी, फिर राजनीति में आए। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने की कहानी और उनसे जुड़े किस्से…

जब प्रमोशन लेकर आई मनमोहन की मंत्री से लड़ाई

डॉ मनमोहन सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान) के पंजाब के गाह गांव में 26 सितंबर, 1932 को हुआ था। उनकी माता का नाम अमृत कौर और पिता का नाम गुरुमुख सिंह था। देश के विभाजन के बाद सिंह का परिवार भारत चला आया।

मनमोहन सिंह ने पंजाब यूनिवर्सिटी से 1952 में इकोनॉमिक्स में बैचलर और 1954 में मास्टर्स डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने 1957 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और 1962 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की।

पढ़ाई पूरी करने के बाद मनमोहन सिंह ने 1966-1969 के दौरान यूनाइटेड नेशंस के लिए काम किया। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से ऑफर मिलने के बाद वो देश आकर प्रोफेसर बन गए।

मनमोहन सिंह का ब्यूरोक्रेटिक करियर उस वक्त शुरू हुआ जब ललित नारायण मिश्रा ने उन्हें कॉमर्स मिनिस्ट्री में बतौर एडवाइजर नौकरी दी। उस दौर में मनमोहन सिंह खुलेआम कहा करते थे कि विदेशी व्यापार के मुद्दों पर भारत में उनसे ज्यादा जानने वाला कोई नहीं है।

एक बार उनके मंत्री ललित नारायण सिंह से उनकी असहमति हो गई। मनमोहन सिंह ने कहा कि वो दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में प्रोफेसर की अपनी नौकरी पर वापस चले जाएंगे।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सचिव पीएन हक्सर को इसकी भनक लग गई। उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार का पद ‘ऑफर’ कर दिया। इस तरह मंत्री से लड़ाई उनके लिए प्रमोशन लेकर आई।

मनमोहन सिंह ने 1970 और 1980 के दशक में भारत सरकार में अहम पदों पर रहे। 1972-76 तक चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर, 1982-85 तक रिजर्व बैंक के गवर्नर और 1985-87 तक प्लानिंग कमीशन के मुखिया रहे।

जब राजीव ने मनमोहन सिंह को ‘जोकर’ कहा

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल का किस्सा है। 1985 से 1990 की पंचवर्षीय योजना के लिए एक मीटिंग रखी गई। उस वक्त योजना आयोग के उपाध्यक्ष मनमोहन सिंह ने एक प्रेजेंटेशन दिया। उनका फोकस गांव और गरीब थे, जबकि राजीव गांधी का विजन शहरी डेवलपमेंट का था। वो बड़े-बड़े हाईवे, मॉल, अस्पताल चाहते थे।

प्रेजेंटेशन के बाद राजीव गांधी भड़क गए। उन्होंने सबके सामने मनमोहन को डांट लगाई। अगले ही दिन पत्रकारों ने जब राजीव से योजना आयोग के बारे में पूछा तो राजीव ने कहा कि वो ‘जोकरों का समूह’ है।

पूर्व केंद्रीय गृह सचिव सी.जी. सोमैया उस समय योजना आयोग के सदस्य थे। अपनी बायोग्राफी ‘द ऑनेस्ट ऑलवेज स्टैंड अलोन’ में लिखते हैं,

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मैं मनमोहन के साथ ही बैठा था। अपमान के बाद उन्होंने योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का मन बना लिया था। मैंने कहा कि आप जल्दबाजी में इस्तीफा देंगे तो देश का नुकसान होगा। अपमान का घूंट पीकर भी मनमोहन पद पर बने रहे।QuoteImage

राजीव गांधी मनमोहन सिंह को पसंद नहीं करते थे। आखिरकार जुलाई 1987 में मनमोहन को योजना आयोग से हटा दिया गया। (स्केचः संदीप पाल)

राजीव गांधी मनमोहन सिंह को पसंद नहीं करते थे। आखिरकार जुलाई 1987 में मनमोहन को योजना आयोग से हटा दिया गया। (स्केचः संदीप पाल)

करीब दो दशक बाद जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को PM के नाम की तलाश थी, तो उन्होंने उन्हीं मनमोहन सिंह को चुना।

जब सुषमा स्वराज बोलीं- सोनिया PM बनीं, तो सिर मुंडवा लूंगी 2004 में अटल बिहारी सरकार ‘शाइनिंग इंडिया’ के नारे के साथ चुनाव में उतरी। 13 मई 2004 को नतीजे आए तो वोटर्स ने उन्हें नकार दिया। सत्ता की चाबी कांग्रेस की अगुआई वाली UPA के हाथों में चली गई। सोनिया गांधी उस वक्त कांग्रेस प्रेसिडेंट थीं। माना जा रहा था कि वही प्रधानमंत्री होंगी।

BJP की फायर ब्रांड नेता सुषमा स्वराज ने ऐलान किया था कि सोनिया PM बनती हैं तो वे मुंडन कराएंगीं और सांसद पद से इस्तीफा देंगी। इन सब के बीच 15 मई को सोनिया को संसदीय दल का नेता चुन लिया गया, लेकिन प्रधानमंत्री के नाम पर तस्वीर साफ नहीं हो रही थी।

देश में PM कौन होगा, इस अनिश्चितता को लेकर शेयर बाजार में 17 मई 2004 को 4,283 पॉइंट की बड़ी गिरावट दर्ज की गई थी। विपक्ष लगातार इस बात को उछाल रहा था कि 100 करोड़ की आबादी वाले देश में एक विदेशी महिला प्रधानमंत्री बनने जा रही है।

राहुल गांधी अड़ गए कि सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी UPA सरकार में विदेश मंत्री रहे नटवर सिंह अपनी किताब ‘वन लाइफ इज नॉट एनफ’ में लिखते हैं, ‘उस समय गांधी परिवार पसोपेश में था। राहुल ने अपनी मां से कहा कि वो PM नहीं बनेंगी। राहुल अपनी मां को रोकने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। दोनों मां-बेटे के बीच ऊंची आवाज में बातें हो रही थीं। राहुल को डर था कि मां PM बनीं तो उन्हें भी दादी और पिता की तरह मार दिया जाएगा।’

सोनिया ने राहुल के दबाव में आकर PM पद काे छोड़ा था। (स्केचः संदीप पाल)

सोनिया ने राहुल के दबाव में आकर PM पद काे छोड़ा था। (स्केचः संदीप पाल)

नटवर लिखते हैं, ‘राहुल बेहद गुस्से में थे। उस वक्त मैं, मनमोहन सिंह और प्रियंका वहीं थे। बात तब बढ़ गई जब राहुल ने कहा कि मां मैं आपको 24 घंटे का टाइम दे रहा हूं। आप तय कर लीजिए क्या करना है? आंसुओं से भरी मां (सोनिया) के लिए यह असंभव था कि राहुल की बात काे वो दरकिनार कर दें।’

राजीव की समाधि पर पहुंचीं सोनिया और फैसला कर लिया उथल-पुथल के बीच 18 मई 2004 की सुबह सोनिया गांधी सुबह जल्दी उठीं। राहुल और प्रियंका के साथ चुपचाप घर से बाहर निकल गईं। सोनिया की कार राजीव गांधी की समाधि पहुंची। तीनों थोड़ी देर तक समाधि के सामने बैठे रहे।

उसी शाम 7 बजे संसद के सेंट्रल हॉल में कांग्रेस सांसदों की बैठक हुई। सोनिया गांधी ने राहुल और प्रियंका की तरफ देखकर कहा- मेरा लक्ष्य कभी भी प्रधानमंत्री बनना नहीं रहा है। मैं हमेशा सोचती थी कि अगर कभी उस स्थिति में आई, तो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनूंगी। आज वह आवाज कहती है कि मैं पूरी विनम्रता के साथ ये पद स्वीकार न करूं।

सोनिया गांधी के नाम की चिट्ठी तैयार थी, ऐन वक्त मनमोहन का नाम आया सोनिया गांधी के PM न बनने का फैसला सुनते ही सांसदों में हलचल मच गई। मणिशंकर अय्यर ने लगभग चीखते हुए कहा कि लोगों की अंतरात्मा की आवाज कहती है कि आपको ही PM बनना चाहिए। दो घंटे तक चुने हुए सांसदों ने सोनिया गांधी को PM बनने के लिए राजी करने की कोशिश की।

UP के एक सांसद ने कहा, ‘मैडम आपने वो मिसाल कायम की है, जैसा पहले महात्मा गांधी ने की है। आजादी के बाद जब देश में पहली बार सरकार बनी तो गांधी जी ने भी सरकार में शामिल होने से मना कर दिया था। तब गांधी जी के पास नेहरू थे। अब कोई नेहरू कहां है।’

ये सांसद नहीं जानते थे कि सोनिया के पास भले ही नेहरू न हों, लेकिन एक तुरूप का इक्का जरूर था। जिसका जिक्र सोनिया ने अभी तक नहीं किया था। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मनमोहन सिंह हमेशा सोनिया गांधी के आस-पास थे। आखिरकार, कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह के नाम का ऐलान कर दिया गया।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपने संस्मरणों की किताब ‘टर्निंग पॉइंट्सः ए जर्नी थ्रू चैलेंजेज’ में लिखा कि UPA की जीत के बाद राष्ट्रपति भवन ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने से संबंधित चिट्ठी भी तैयार कर ली थी, लेकिन जब सोनिया गांधी उनसे मिलीं और डॉ. मनमोहन सिंह का नाम आगे किया तो वह चकित रह गए थे। बाद में दोबारा चिट्ठी तैयार करनी पड़ी थी।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति कलाम से मिलकर PM पद के लिए मनमोहन का नाम आगे किया।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति कलाम से मिलकर PM पद के लिए मनमोहन का नाम आगे किया।

मनमोहन सरकार में सोनिया गांधी का बड़ा दखल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ऑफिस में एमके नारायणन जैसे सीनियर अफसरों को नियुक्त किया गया, जिनकी वफादारी मनमोहन से ज्यादा सोनिया गांधी के प्रति थी।

PM मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू अपनी किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में लिखते हैं कि मनमोहन सिंह ने खुद उनसे स्वीकार किया था कि कांग्रेस अध्यक्ष के पास सत्ता का केंद्र है और उनकी सरकार पार्टी के प्रति जवाबदेह है।

संजय बारू कहते हैं कि सोनिया का प्रधानमंत्री न बनना एक राजनीतिक स्ट्रैटजी थी। उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री जरूर बनाया था, लेकिन उन्हें वास्तविक सत्ता नहीं सौंपी थी।

UPA-1 के सामाजिक विकास कार्यक्रमों का श्रेय लेने के लिए सोनिया के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और प्रधानमंत्री कार्यालय में होड़ लगा करती थी। मनमोहन सिंह के तमाम फैसलों में सोनिया गांधी का हस्तक्षेप होता था।

संजय बारू लिखते हैं कि 2009 में सत्ता में वापस आने के बाद उन्होंने मनमोहन सिंह से पूछे बिना प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री का पद ऑफर कर दिया था, जबकि वो सीवी रंगराजन को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे। इसी तरह ए राजा और टीआर बालू जैसे नेताओं को मनमोहन सिंह की मर्जी के खिलाफ मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था। जिन पर बाद में भ्रष्टाचार के आरोप लगे।

सोनिया की मर्जी के खिलाफ मोंटेक सिंह अहलूवालिया को लेकर आए मनमोहन मनमोहन और सोनिया के बीच एक मद्धम ही सही, लेकिन रस्साकशी चल रही थी। मसलन- मनमोहन सिंह मोंटेक सिंह अहलूवालिया को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे। उन्होंने मोंटेक का नाम सोनिया गांधी के पास भेजा। सोनिया के ऑफिस से मोंटेक का नाम खारिज हो गया। सोनिया ने अहलूवालिया की जगह पी. चिदंबरम को चुना।

मनमोहन किसी भी तरह मोंटेक को लाना चाहते थे। इसलिए उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाने का प्लान बनाया। यहां बड़ी समस्या लेफ्ट पार्टीज थीं, जिनके सहयोग से UPA सरकार चल रही थी।

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी अपनी किताब ‘हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में लिखती हैं कि मोंटेक को लाने में वरिष्ठ वामपंथी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने उनकी मदद की।

मनमोहन ने मोंटेक सिंह को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाने के साथ कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया। यानी वे कैबिनेट की बैठक में भी शामिल हो सकते थे।

मनमोहन ने मोंटेक सिंह को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाने के साथ कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया। यानी वे कैबिनेट की बैठक में भी शामिल हो सकते थे।

पद संभालने से पहले मोंटेक सिंह अहलूवालिया सीधे मनमोहन सिंह के पास गए। उन्होंने पूछा कि उन्हें सबसे पहले किससे मिलना चाहिए। तब मनमोहन ने कहा कि जाओ सबसे पहले 80 साल के कामरेड सुरजीत से मिलो। उस समय कांग्रेस के कई नेता मनमोहन, सुरजीत और मोंटेक सिंह तीनों सरदारों की साठ-गांठ का मजाक बनाते थे।

‘मुझे श्रेय नहीं चाहिए, मैं बस अपना काम करना चाहता हूं’ 26 सितंबर 2007 की बात है। राहुल गांधी कांग्रेस महासचिव बन गए थे। वो कांग्रेस महासचिवों के प्रतिनिधिमंडल के साथ मनमोहन सिंह को जन्मदिन की बधाई देने पहुंचे। राहुल ने PM को 500 गांवों में मनरेगा का दायरा बढ़ाने के लिए एक ज्ञापन दिया था। अगले दिन मीडिया ने छापा कि राहुल ने PM को मनरेगा को बढ़ाने के लिए कहा।

संजय बारू अपनी किताब में लिखते हैं, ‘मैंने मजाक में अपने एक करीबी पत्रकार को SMS किया कि ये घोषणा PM की तरफ से जन्मदिन का तोहफा है। ये संदेश कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचा, तो मामला बिगड़ गया।’

मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू और उनकी किताब की कवर फोटो।

मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू और उनकी किताब की कवर फोटो।

संजय बारू लिखते हैं, ‘मनमोहन ने मुझसे पूछा- आपने वो मैसेज क्यों भेजा। मैंने कहा- सर मनरेगा को बढ़ाने का श्रेय आपको जाता है। मनमोहन ने गुस्से में कहा- मैं कोई श्रेय नहीं लेना चाहता। मैं सिर्फ अपना काम कर रहा हूं। मुझे किसी तरह का कोई मीडिया प्रोजेक्शन नहीं चाहिए।’

जब परमाणु डील पर अड़ गए मनमोहन सिंह 2006 की बात है। मनमोहन सिंह ने वॉशिंगटन में USA के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से मुलाकात की। दोनों ने न्यूक्लियर डील पर दस्तखत किए। इसे इंडो-यूएस सिविल न्यूक्लियर एग्रीमेंट कहा गया। इस डील के जरिए परमाणु व्यापार को लेकर भारत का 30 साल का वनवास खत्म हो रहा था। 1974 में भारत के परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका ने तमाम आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे।

2 मार्च 2006 को नई दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से हाथ मिलाते भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।

2 मार्च 2006 को नई दिल्ली में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से हाथ मिलाते भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह।

लेफ्ट पार्टियों का कहना था कि इस समझौते से देश की स्वतंत्र विदेश नीति पर असर पड़ेगा। वामपंथी पार्टियों के मुताबिक ये अमेरिका की तरफ से फेंका गया एक जाल है। उस समय लेफ्ट के पास तकरीबन 60 सांसद थे। उन्होंने समर्थन वापस ले लिया।

वामपंथियों की ओर से सरकार को डराने का काम CPI नेता एबी वर्धन कर रहे थे। एक बार पत्रकारों ने उनसे पूछा कि सरकार कब तक सेफ है। उन्होंने कहा कि शाम 5 बजे तक तो सेफ है। इसके आगे का मैं नहीं जानता।

सोनिया गांधी ने भी शुरुआत में इसका समर्थन किया, जब वामपंथियों ने समर्थन लेने की बात कही तो वो भी डील काे वापस लेने की बात करने लगीं।

सरकार को सदन में विश्वास मत से गुजरना पड़ा। मनमोहन ने अटल बिहारी वाजपेयी को राजनीति का भीष्म बताते हुए अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन मांगा। वाजपेयी ने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन मुस्कुरा दिए। हालांकि, मनमोहन सिंह की सरकार ने सपा नेता अमर सिंह की मदद से 19 वोटों से यह विश्वासमत जीत लिया।

बराक ओबामा ने मनमोहन सिंह के बारे में क्या लिखा? अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने राजनीतिक सफर पर लिखी किताब ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’ में नवंबर 2010 की भारत यात्रा के बारे में करीब 1400 शब्दों में लिखा है। उस वक्त मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे।

ओबामा ने लिखा, ‘डॉ. मनमोहन सिंह का PM के रूप में चुनाव देश की प्रगति की दिशा में हुआ एक प्रयास था, लेकिन सच है कि वह अपनी लोकप्रियता की वजह से प्रधानमंत्री नहीं बने बल्कि उनको सोनिया गांधी ने PM बनाया।’

ओबामा लिखते हैं, ‘मनमोहन सिंह एक ऐसे बुजुर्ग सिख नेता थे, जिनका कोई राष्ट्रीय राजनीतिक आधार नहीं था। ऐसे नेता से उन्हें अपने 40 वर्षीय बेटे राहुल के लिए कोई सियासी खतरा नहीं दिखा, क्योंकि तब वो उन्हें बड़ी भूमिका के लिए तैयार कर रही थीं।’

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बराक ओबामा को डिनर पर आमंत्रित किया था।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बराक ओबामा को डिनर पर आमंत्रित किया था।

ओबामा लिखते हैं, ‘नवंबर की उस रात मनमोहन सिंह का घऱ छोड़ते हुए सोच रहा था कि 78 साल के प्रधानमंत्री जब अपनी जिम्मेदारी से अलग होंगे तो क्या होगा? क्या मशाल कामयाबी के साथ राहुल गांधी तक पहुंच जाएगी? उनकी मां ने जो नियति तय की है वो पूरी होगी?’

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