नई दिल्ली। यूं तो वसंत में आम के मदमाते बाग में खाट डालकर ऊंघने, या फिर रबड़ी-मलाई खाने का चलन है, लेकिन इस बार का वसंत कुछ अलग रहा। फिलहाल दक्षिण के एक सूबे कर्नाटक में जोरों की रस्साकशी हो रही है, जिसके ऐन बीच में है लड़कियां! वे बड़े-बड़े फूलों वाले खुले शोख-रंग कपड़े पहनें या सिर समेत पूरे शरीर को किसी गहरे रंग में ढंककर चलें?
रोशन-खयाल लोग आपस में गुत्थमगुत्था हैं कि किसी भी तरह से बेचारी लड़कियों का बेड़ा पार हो जाए। कुल मिलाकर फ्रीस्टाइल कुश्ती चल रही है, जहां रिंग के भीतर भी पुरुष हैं और बाहर भी। फैसला चाहे जो आए, रहेगा वो एक फैसला ही, जिसमें औरतों की न मर्जी होगी, न दखल।
आज बात की शुरुआत एक सच्ची कहानी से करते हैं। नब्बे के आखिर-आखिर की बात है, जब मेरे कस्बाई मोहल्ले की लड़कियां दोपहरों में झुंड बनाकर जाने और शाम ढले लौटने लगीं। सबके हाथों में एक थैला होता, जिससे किताबें या बैडमिंटन रैकेट नहीं, बल्कि लाल-नीले धागे झांकते। पता चला कि सबकी-सब सिलाई-कढ़ाई सीखती हैं। जब वे सिर झुकाए लौट रही होतीं, मैदानों में लड़के मैच खेलते होते। मुंडियां थोड़ी और झुक जातीं। चाल थोड़ी और तेज हो जाती। मैं देखा करती।
दोस्तनुमा एक लड़की को टटोला। उसे पेंटिंग पसंद थी, लेकिन सिलाई सीखनी पड़ी। दूसरी से पूछा। पता लगा कि पड़ोसन जाती थी, तो उसे भी भेज दिया। तीसरी से पूछा। उसे सिलाई नापसंद थी, लेकिन घर से निकलने का यही अकेला तरीका था। लगभग सारी सीखनेवालियों ने सीधे-सीधे या अटक-गटककर यही बताया।
यानी इक्का-दुक्का सीने-पिरानेवालियों के साथ-साथ मोहल्लाभर लड़कियां गूंथ दी गईं। क्यों? क्योंकि सिलाई वो शौक है, जो आपको घरेलू बनाता है। पालतू बिल्ली की तरह। वो कटखनापन छोड़कर आपके पीछे-पीछे चल देती है।
ये लड़कियां अगर मर्जी का कर पातीं तो शायद खिलाड़ी बन जातीं, या फिर गायक, या आसमान ताकते हुए कोई नई आकाशगंगा ही खोज निकालतीं। या फिर नाकारा बन जातीं, बिल्कुल कुछ न करने वालियां। इतना खतरा भला क्योंकर लिया जाए! तो चलो, लड़की पर पालतूपन की इतनी तहें डाल दो कि वो उसे ही अपने वजूद का हिस्सा मान ले। इसके बाद भी कोई उद्दंड लड़की ‘मर्जी-राग’ गाए तो उसे साधने के भी ढेरों तरीके हैं।
बाजार में कई टैग मिलते हैं। ज्यों ही औरत के करीब जाने पर हल्दी-मसालों की बजाए बगावत की महक आए, झट से उसकी जबान एक पर टैग चिपका दो।
लड़की अगर बुरका पहने तो दकियानूसी। बिकनी पहने तो चरित्रहीन। नाक तक सिंदूर भरे तो मूर्ख। लाल लिपस्टिक लगाए तो अवेलेबल। ज्यादा पढ़े तो बासी। न पढ़े तो कुंद। पैर पसारकर बैठे तो बेशर्म, घर पर रहे तो घरघुस्सू। बहस करे तो बदतमीज। चुप रहे तो घुन्नी..! दुनिया में बैक्टीरिया की जितनी किस्में होंगी, उससे कहीं ज्यादा हमारे पास ये पुछल्ले हैं। जब चाहे, किसी औरत के मुंह पर लगाया और लीजिए साहब, हो गई बोलती बंद!
चुप कराने का ये तरीका सैकड़ों साल पुराना है। 25 सौ ईसा पूर्व मेसोपोटामिया (अब इराक) में एक नियम बना। अमीर घरानों की औरतें एक खास किस्म का घूंघट काढ़तीं, जो सिर से होते हुए कमर तक गिरा रहता, वहीं आर्थिक तौर पर कमजोर महिलाओं को इसकी इजाजत नहीं थी। अगर वे ऐसा करें तो सजा के तौर पर उन्हें नग्न होकर चौराहों पर खड़ा रहना पड़ता था।
हमारे देश में भी ब्रेस्ट टैक्स हुआ करता था। केरल समेत कई दक्षिणी राज्यों में तथाकथित छोटी जाति की औरतों को सीने पर कपड़ा रखने की मनाही थी। माना जाता था कि देवताओं और पुरुषों के सामने ‘अकुलीन’ स्त्री को कपड़ों की जरूरत नहीं। तब भी अगर वे ब्रेस्ट ढंकना चाहें तो उन्हें पैसे भरने होते थे, जिसे ब्रेस्ट टैक्स कहा जाता।
तो इस तरह से स्त्री किसी रेस्त्रां के सैंडविच में बदलकर रह गई। खाने के शौकीन हैं तो आलू के साथ सॉस भरकर मांगिए। जिम जाते हैं तो खीरा-टमाटर के साथ जैतून तेल डलवाइए। जैसा चाहेंगे, आपको ठीक वैसा ही सैंडविच परोसा जाएगा। लड़कियों के साथ भी यही हुआ। ग्राहकनुमा मर्द उसे अपनी-अपनी पसंद के हिसाब से ‘कस्टमाइज’ करने लगे।
बात सिर्फ कपड़ों तक नहीं रही, उनके हंसने-बोलने-चलने और सोचने तक को कंट्रोल किया जाने लगा। साल 1969 में एक किताब आई थी, बुक ऑफ एटिकेट एंड गुड मैनर्स। ये किताब बिदकी स्त्रियों को काबू लाने में चाबुक का काम करने लगी। इसमें सुझाया गया कि औरतों को क्या और कैसे करना चाहिए, ताकि पुरुषों को किसी किस्म की दिक्कत न हो।
यहां लिखा है- ढलती शाम को सज-धजकर अगर आप मुंडेर पर बैठेंगी तो ये सिग्नल है कि आप बदचरित्र हैं। ऐसे में राह चलता शराबखोर भी अगर आप पर हाथ डाले तो इसमें उसकी गलती नहीं। साल 1870 से लेकर अगले सौ सालों तक तहजीब का पूरा कारखाना चला, जिसमें औरत को सिखाया जाता था कि इंसानों (पढ़ें, पुरुष) से कैसे मिलना-चालना है।
वक्त सरका, लेकिन मर्दमानस का नजरिया एवरेस्ट की तरह अडोल रहा। मर्जी हो तो औरतों को खुले-खिले कपड़े पहना दो, जब चाहे उन पर बंदिशों की थान लाद दो। दो साल पहले जापान में एक अनूठा आंदोलन चला, जिसमें हजारों लड़कियां फ्लैट चप्पलें पहनकर स़ड़कों पर उतर आईं।
ये लड़कियां हील्स से आजादी चाहती थीं। कैंपेन को नाम मिला #KuToo। ये जापानी शब्द kutsuu से बना है, जिसका अर्थ है जूतों के कारण पैरों में दर्द। बता दें कि जापान में ढेरों दफ्तर हैं, जहां महिलाएं बिना हील्स के जाएं, तो एंट्री नहीं मिलती। सुई-सी नुकीली हील्स छोड़ आरामदेह जूते पहनने के लिए भी जापानी औरतों को आंदोलन करना पड़ा।
अब लौटते हैं अपने मुल्क में, जहां हिजाब को लेकर अखाड़ा खुला है। कुछ का कहना है, ये औरतों पर बंदिश है। कुछ तर्क हैं कि ये उनकी चॉइस है। बहसवीर एक-दूसरे पर पिले पड़े हैं। इस सबके बीच औरतों की मर्जी धुंधला रही है, लेकिन यही वक्त है, जब तमाम औरतों को साथ आना होगा। रोटी बेलती स्त्री। पॉलिसी बनाती स्त्री। कसरती बदन स्त्री। प्लस साइज स्त्री। सब साथ आएं मिलकर तय करें।
मर्जी शब्द बहुत खिलंदड़ है, अपने भीतर प्याज से भी ज्यादा परतें लिए हुए। तो प्यारी लड़कियों! जितनी बार भी तुम इस शब्द को दोहराओ, याद रखना कि तुम्हारी मर्जी सिर्फ तुम तक रहे, तुम्हारे आसपास की मर्जियों को छुए बगैर। जरा भी चूके कि मर्जी नाम की ये गेंद पुरुषिया पाले में चली जाएगी। फिर आप क्या पहनेंगी और क्या सोचेंगी- इसपर आपका बस शायद ही चल सके।