नई दिल्ली। आम तौर पर भारत के जासूस और उनके मुखिया अपने संस्मरण नहीं लिखते हैं। ये उसी तरह है जैसा कि अन्य देशों या उपमहाद्वीप में कहीं भी उन जैसे नौकरशाह, न्यायाधीश, मंत्री और उनके जैसे लोग जब अपने संस्मरण लिखते हैं तो आमतौर पर अपने कार्यकाल के हालात या अपने साथ काम करने वालों की आलोचना करते हुए अपने कारनामों का बखान करते हैं।
कश्मीर में जब 1988-90 के दौरान आतंकवाद और घुसपैठ ने सिर उठाना शुरु किया तो उस समय खुफिया के प्रमुख ए एस दुलत थे। इसके अलावा जब 1999 में एयर इंडिया की फ्लाइट आईसी-814 का अपहरण हुआ तो वे रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख थे।
उन्होंने अपनी किताब में अपने कामकाज को लेकर बहुत अच्छा विवरण दिया है, जिसे पढ़कर हमें उस दौर के और खासतौर से बीते तीन दशकों में हमारी खुफिया एजेंसियों के कामकाज और तौर-तरीकों का अंदाजा होता है।
उनकी किताब एक तरह से विभिन्न अध्यायों का एक झमेला है जिसमें कुछ संस्मरण हैं, कुछ में कुछ लोगों का चरित्र चित्रण है तो कुछ में उनकी तैनाती आदि की बातें हैं। इसी में करीब 50 पन्नों में जासूसी की कला का विवरण, भारतीय खुफिया समुदाय का नजरिया और अपने काम को लेकर उनके अपने विचार भी हैं। इस अध्याय का शीर्षक है ‘विल्डरनेस ऑफ मिरर्स’ या इसे हिंदी में छवियों का मायाजाल कह सकते हैं। यह एक ऐसा वाक्यांश है जिसे एक अन्य जासूस ने भी सोवियत संघ द्वारा अपने विरोधियों को भ्रमित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ‘रणनीतियों, धोखेबाजी, कलाबाजी’ के लिए प्रयोग करने के बारे में बताया जाता है।
दुलत ने हालांकि बहुत अधिक तो नहीं, लेकिन कुछ तो खुलासे किए हैं कि आखिर जासूसी से जुड़े अधिकारी करते क्या हैं। उन्होंने लिखा है,
‘डेस्कवर्क दरअसल काफी महत्वपूर्ण है।’ यह शख्स फील्ड में काम करता है और चाहता है कि उसे उसी तरह जाना भी जाए, लेकिन यह स्पष्ट है कि वह वह किसी तेजतर्रार काम करने वाले के मुकाबले किसी बुद्धिजीवी से अधिक प्रभावित होता है या प्रेरित होता है। वे पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) एम के नारायण का जिक्र करते हैं, जो खुफिया ब्यूरो में उनके सीनियर थे। वे तीन जगह नारायण को ‘द ग्रेट नारायणन’ कहते हैं। इसमें मौजूदा एनएसए अजित डोवाल का भी रेखांकन है। वैसे तो दुलत व्यक्तिगत रूप से उनके एक्शन से भरपूर करियर का हवाला देते हैं, लेकिन फिर भी वे बॉन्ड स्टाइल के जासूसों के मुकाबले विचारकों और स्माइलीज़ की तरफ ज्यादा आकर्षित दिखाई देते हैं। उनके लेखन से पता चलता है कि वे स्वयं एक विचारक हैं।
अपने शुरुआती वर्षों के जिक्र में वे कहते हैं कि, ‘वह भी क्या दिन थे जब खुफिया ब्यूरो एक तरह की कला सीखने की जगह होती थी जहां पुलिसवाले खुफिया अधिकारियों में बदलते थे, यहां तक कि लिखने-पढ़ने वालों का भी कायाकल्प हो जाता था।’ संभवत: अब ऐसा नहीं है।
और भी कई चीज़ें वक्त के साथ बदल गई हैं। उनके शुरुआती दिनों में काउंटर-इंटेलिजेंस (भारत में विदेशी जासूसों की तलाश करना और उनसे भिड़ना) जासूसी का एक अधिक अहम पहलू था, न कि उतना जितना यह बन गया है।
‘आज काउंटर-इंटेलिजेंस को उस किस्म की अहमियत नहीं दी जाती’ है क्योंकि ‘काउंटर टेररिज़्म ने इसकी जगह ले ली है।’
इसका कुछ हिस्सा तो अपने आप ही हो गया है। जब कश्मीर में घुसपैठ और चरमपंथ तैयार हो रहा था, तो उस वक्त के भारतीय व्यवस्था को कोई खास जानकारी नहीं थी। वे लिखते हैं कि, ‘आतंकियों के अंदरूनी नेटवर्क से हमारा कोई संपर्क ही नहीं था’ जिसके चलते ‘घाटी में आतंकवाद दिनोंदिन बढ़ रहा था और इसे कैसे रोकें या खत्म करें इसकी हमें कोई भनक तक नहीं थी।’
जनवरी 1990 में खुफिया ब्यूरो ने तीन सप्ताह के अंतराल में ही अपने चार अफसरों को खोया। दुलत के अफसरों ने उन्हें घेर लिया और मांग की कि उन्हें वापस घर भेज दिया जाए। उन्होंने कहा, ‘हम अब यहां किसी भी हालत में रहना नहीं चाहते।’ यह इसलिए हम है क्योंकि मामूली चीज़ों से ही स्थितियां बदल जाती हैं।
तो फिर इस किस्म की जगहों पर आखिर खुफिया अधिकारियों की भूमिका क्या है? दुलत साफ कहते हैं कि उनकी भूमिका लोगों से मेलजोल बढ़ाने की है। यह सही भी लगता है। कोई भी जासूस अगर सिर्फ अपने में ही मगन रहता है तो बेकार है। हमें दुश्मन बीच रहकर ही उसका पता चल सकता है। लेकिन भारत सरकार ने 30 वर्षों तक इसके उलट रास्ता अपनाया। और इस रास्ते पर वह ऐसे ही बढ़ती रही। दुलत कहते हैं कि दिल्ली को वहां की चीजें सिर्फ काले-सफेद में ही दिखती थीं, जबकि पूर्वोत्तर और कश्मीर जैसी मुश्किल जगहों पर ऐसी स्थितियां काम नहीं करती हैं।
सिर्फ शक के आधार पर मुस्लिमों को खुफिया एजेंसियों में न रखने से हमें कोई फायदा नहीं होने वाला, यह ऐसी बात जिसकी वकालत खुलकर दुलत कई साल से कर रहे हैं।
वे लिखते हैं कि इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि भारत सरकार अब बातचीत (हुर्रियत के साथ) और आतंकी समूहों से संवाद स्थापित करने के रास्ते अच्छा नहीं मानती है। वे कहते हैं कि ‘इस तरह की सोच को भारतीय खुफिया संसार में मेरे दोस्त नर्म रवैया मानते हैं।’
दुलत कहते हैं कि इसका कारण पाकिस्तान है। यह एक तरह से पावलोवियन थ्योरी की तरह प्रतिक्रिया है, जिसमें प्राकृतिक स्थितियों के साथ घुलना-मिलना की सोच खत्म हो जाती है। पाकिस्तान उस केंद्र में है जो ‘भ्रम, अविश्वास, कल्पना की कमी और उन स्थितियों को नियंत्रित करता है जिससे जासूसी का खेल चलता है।’
जिस तरह से नेशनल सिक्यूरिटी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा का फोकस बदला है उसी तरह 1990 के बाद से काउंटर-इंसर्जेंसी पर हमारी हर प्रतिक्रिया में यही भाव रहता है कि ‘पाकिस्तान ही हमारा एकमात्र दुश्मन है।’
और इस नतीजे पर पहुंचने या इसे ही सही मान लेने के चलते हमारी सरकारी व्यवस्था और इससे जुड़े लोग अन्य विरोधियों के साथ संवाद ही नहीं करना चाहते। मसलन आईएसआई प्रमुख को भर्ती करने की कोशिश करके, क्योंकि ‘किसी न किसी तरह से हमें यह आशंका है कि एक पाकिस्तानी भरोसे लायक नहीं है, वह दिक्कतें पैदा करेगा, और सीधे तौर पर बोलें तो वह एक बदमाश है।’
यह उल्लेखनीय है कि इस तरह की आदिम सोच सभी जगहों पर मौजूद है, कि सरकार का एक हिस्सा है जो दुश्मन को समझने और उसे बदनाम करने से जुड़े हुआ है।
दुलत कहते हैं कि हर सुबह होने वाली बैठकों में सीआईए प्रमुख का पहला सवाल होता है कि, ‘क्या किसी नए आदमी को कल से अब तक भर्ती किया?’ वे आगे कहते हैं कि ’ऐसा दिखावा करने का कोई तुक नहीं है कि हमारे धंधे का यह बुनियादी उसूल नहीं है।’ लेकिन कौन सा धंधा चलेगा अगर हमारे पास किसी को भर्ती करने की न तो इच्छा और न ही क्षमता?
फोकस में इस तरह का बदलाव, या सीधे कहें कि खुफियागीरी के इस हिस्से का परित्याग करना किसी भी तरह फायदेमंद नहीं रहा है और कश्मीर में जो स्थितियां बनी हैं उसका सबूत हैं।
रॉ प्रमुख और खुफिया ब्यूरो के सबसे वरिष्ठ अफसरों में से एक (दुलत वाजपेयी सरकार में पीएमओ में भी रहे) ने जो कुछ लिखा है, वह हैरान करने वाला है।
उन्होंने जासूस और लेखक जॉन ले कार्रे को यह कहते हुए उद्धृत करता है कि ‘यदि आप किसी देश के मानस की तलाश कर रहे हैं, तो इसकी खुफिया सेवा अनुचित जगह नहीं है।’
दुलत ने जो खुलासा किया है, हम उसके व्यापक प्रभावों पर हम अगले सप्ताह गौर करेंगे।