कांशीराम के वो नारे जिसे लगाते वक्त वह कहते, कोई ऊंची जाति का हो तो वह यहां से…

लखनऊ। देश में दलित नेताओं के नामों की जब भी चर्चा शुरू होती है तो दो नाम सामने आते हैं। पहला बाबू जगजीवन राम। दूसरा कांशीराम। कांशीराम की पहचान न सिर्फ बसपा के संस्थापक से है, बल्कि दलित उत्थान के लिए दिए गए उन नारों से भी है, जिसे लेकर आज भी हंगामा होता है। उन नारों के पीछे कहानी क्या है? उसका असर क्या पड़ा? ऐसे नारे देने क्यों पड़े? आज के राजनीति के किरदार और किस्से में उन्हीं पर बात होगी। आइए, बारी-बारी से सबकी बात करते हैं।

नारों पर बात करने से पहले कांशीराम के जन्म, करियर और दलित मूवमेंट की बात करते हैं।

कांशीराम पैदा हुए तो परिवार ने धर्म परिवर्तन कर लिया
कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में हुआ था। वह चमार जाति के थे। परिवार ने उनके जन्म के बाद धर्म परिवर्तन कर लिया। इस कारण उन्हें सामाजिक भेदभाव सामना नहीं करना पड़ा। ‘बहनजी’ नाम की किताब लिखने वाले अजय बोस बताते हैं, “सिख समाज में धर्म परिवर्तन करके शामिल हुए दलितों की वह हैसियत तो नहीं होती जो ऊंची जातियों की होती है पर उन्हें हिन्दू समाज के दलितों की तरह लगातार अपमान और दमन का सामना नहीं करना पड़ता था।”

आरक्षित कोटे से नौकरी मिली तो भेदभाव शुरू हो गया
1956 में कांशीराम ग्रेजुएट हो गए। उसी साल आरक्षित कोटे से केंद्रीय सरकार में नौकरी लग गई। 1958 में उनकी नौकरी पुणे के पास स्थित किरकी के डीआरडीओ में लग गई। यहां वह गोला-बारूद फैक्ट्री की लेबोरेट्री में असिस्टेंट के पद पर थे। यहां उनके साथ जातीय स्तर पर भेदभाव शुरू हो गया। कांशीराम यह बर्दाश्त नहीं कर सके और 1964 में नौकरी छोड़ दी। पुणे के बाकी इलाको में गए और देखा कि दलित जातियों का आर्थिक शोषण और सामाजिक दमन किया जा रहा है।

दलितों के लिए काम करने वाले ज्यादातर नेता स्वार्थी और लालची थे
‘कांशीराम’ बहुजनों के नायक, किताब में बद्री नारायण लिखते हैं, “कांशीराम दलितों के लिए कुछ करना चाहते थे इसलिए वह दलित मूवमेंट को आगे बढ़ा रही आरपीआई से जुड़ गए। उन्होंने पाया कि दलितों की लड़ाई लड़ने वाले नेता अवसरवादी, लालची और स्वार्थी बन चुके हैं। एकता की बात तो करते हैं लेकिन एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हैं।”

ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4
कांशीराम देशभर के दलितों को एकजुट करना चाहते थे। युवाओं पर उनकी खास नजर थी। 14 अप्रैल 1973 को ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉईज फेडरेशन का गठन किया। इसे शॉर्ट में बामसेफ कहा गया। 1981 के अंत में इस संगठन को नया किया और नाम दिया दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी DS-4, जिस दिन गठन हुआ उस दिन नारा दिया, “ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं DS-4”

इन नारों के बाद दलित कांशीराम के पक्ष में एकजुट होने लगे। कांशीराम ने डीएस-4 का पहला कार्यक्रम 25 दिसंबर को नासिक को बोट क्लब में किया। नाम दिया था जनता की संसद। द ऑप्रेस्ड इंडिया पत्रिका में कहा, “जन संसद ऐसे ही ज्वलंत समस्याओं पर बहस करने का मौका देगी। यदि यह बहस और विचार-विमर्श देश के कोने-कोने तक जाएगी तो इसका अलग प्रभाव पड़ेगा।” कांशीराम इसके बाद ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया वर्ग के खिलाफ लोगों को एकजुट करने में लगे रहे।

तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार
1983 में कांशीराम ने सौ नेताओं के साथ दिल्ली के आसपास के 7 जिलों में लगातार 40 दिन तक साईकिल के जरिए यात्रा की। इन यात्राओं के दौरान उन्होंने गांव में दलितों के साथ हो रहे सामाजिक भेदभाव को देखा। मन व्यथित हुआ तो नारा दिया, तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार। यह नारा एक तरह से दलितों के लिए आह्वान था। ऊंची जाति के लोग हक्के-बक्के रह गए।

ऊंची जाति के लोग यहां से चले जाएं
बहनजी किताब में अजय बोस लिखते हैं, “एक बार कांशीराम मंच पर भाषण देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने पहली लाइन में कहा, अगर श्रोताओं में ऊंची जाति के लोग हों तो अपने बचाव के लिए वे वहां से चले जाएं।” इसके बाद कांशीराम के समर्थन में जोरदार नारेबाजी हुई। उनकी रैलियों से ऊंची जाति के लोग गायब होते चले गए।

वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा
1983-84 नारों का साल रहा। कांशीराम और उनके साथियों ने कई नारे दिए। उनमें ये प्रमुख रहे।

– वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा नहीं चलेगा।

– जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी।

इसके अलावा एक नारा जो सबसे ज्यादा मशहूर हुआ वह था, “वोट से लेंगे CM/PM, आरक्षण से लेंगे SP/DM” इस नारे में वोट के जरिए मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद और आरक्षण के जरिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और पुलिस सुपरिटेंडेंट के पद लेने की बात कही गई थी।

पहला चुनाव हारने के लिए दूसरा हरवाने के लिए और तीसरा जीतने के लिए होता है
क्या ऊंची जातियों के खिलाफ जहर भरी भाषणबाजी कांशीराम की महज राजनीतिक मुद्रा थी? इस सवाल के जवाब में उनके घनिष्ट पत्रकार मित्र टी.वी आर शिनॉय कहते हैं, “नवें दशक के शुरू में चुनावी फायदे के लिए दलित और पिछड़ों के बीच कांशीराम गठबंधन की बात करते थे। इस गठबंधन की बात उन ऊंची जातियों के खिलाफ की जाती थी जिनकी आर्थिक और राजनीतिक हैसियत दिन-पर-दिन बढ़ती जा रही थी।”

चमार लोग एक रात में सिर पर बैठने की उम्मीद नहीं कर सकते
1995 में पत्रकार सीमा मुस्तफा ने कांशीराम से पूछा था, “आपके मंत्रिमंडल में इतने कम दलित क्यों हैं?” कांशीराम ने पहले पैरों की तरफ फिर अपने सिर की तरफ संकेत किया और कहा, “चमार लोग जो यहां नीचे रहते थे एक ही रात में सिर पर बैठने की उम्मीद नहीं कर सकते।”

इस बयान के तीन साल पहले तक कांशीराम पिछले 30 सालों से दलितों के गांव में घूम-घूमकर उन्हें उनके हक के लिए जागरुक करते थे। उन्हें एकजुट करने के लिए नारा लगाते थे। हालांकि, इसके बाद भी वह राजनीति में सक्रिय रहे लेकिन नारों के जरिए ऊंची जाति पर हमला करने से बचते रहे।

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