नई दिल्ली। केंद्र की मोदी सरकार द्वारा किसानों के लिए लाए गए कृषि संबंधी विधेयकों को लेकर संसद से सड़क तक संग्राम छिड़ गया है। विपक्ष के साथ-साथ सहयोगी भी मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ( बीजेपी) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सहयोगी अकाली दल ने भी बगावती तेवर अख्तियार कर लिए हैं।
किसानों के मुद्दे पर बीजेपी की सबसे पुरानी सहयोगी शिरोमणी अकाली दल ने खुद को मोदी सरकार से अलग कर लिया है। पिछले साल शिवसेना बीजेपी का साथ छोड़कर अलग हो गई थी। ऐसे में अब एनडीए का किला दरकता नजर आ रहा है, जो बीजेपी के लिए चिंता का सबब है।
अकाली दल के केंद्र सरकार से समर्थन वापस लेने के सवाल पर सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि हमारी पार्टी का अगला कदम क्या होगा ये हम पार्टी की बैठक के बाद जल्द ही बताएंगे। इससे साफ जाहिर है कि फिलहाल अकाली ने सरकार से खुद को अलग किया है, लेकिन गठबंधन तोड़ने पर कोई फैसला नहीं लिया है।
बता दें कि शिरोमणी अकाली दल और बीजेपी का साथ 27 साल पुराना है। अकाली का राजनीतिक आधार सिर्फ पंजाब तक सीमित है, वह बीजेपी के जूनियर पार्टनर के तौर पर है। अकाली दल के साथ बीजेपी का गठबंधन 1997 में हुआ था। पंजाब में 1999 के लोकसभा और 2002 और 2017 के विधानसभा चुनावों में गठबंधन के खराब प्रदर्शन के बावजूद समझौता जारी है।
इस दौरान बीजेपी की जितनी भी केंद्र में सरकार बनी सबसे में अकाली दल के नेता मंत्री बने। 2014 और 2019 में हरसिमरत कौर मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री रही है, लेकिन अब उन्होंने सरकार से खुद को अलग कर लिया है। इस तरह से अकाली ने एनडीए सरकार का साथ फिलहाल छोड़ दिया है।
राजनीतिक वजह भी है, क्योंकि अकाली दल पंजाब में अभी हाशिये पर है। 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 सीटों में से अकाली दल को महज 15 सीटें मिली थीं। 2017 से पहले अकाली दल की राज्य में लगातार दो बार सरकार रही थी।
राजनीतिक एक्सपर्ट्स बताते हैं कि अकाली दल राज्य में अपने वोट बैंक को दोबारा सहेजने में जुटी है। दो साल बाद राज्य में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। हरसिमरत का इस्तीफा भी इसी कड़ी का हिस्सा है। इसके लिए अकाली आगे एनडीए भी छोड़ सकते हैं।
अकाली दल से पहले 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद बीजेपी की 30 साल पुरानी सहयोगी शिवसेना ने साथ छोड़ दिया था। मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर छिड़ी जंग से बीजेपी और शिवसेना की राह जुदा हो गए। बता दें कि हिंदुत्व के नाम पर बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन 1989 में शुरू हुआ था।
शिवसेना ने 1995 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के साथ गठबंधन कर शानदार सफलता हासिल की। इस दोस्ती में तब तक दरार नहीं आई जब तक बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में रही और शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे जीवित थे। इतना ही नहीं महाराष्ट्र और केंद्र की सत्ता से बीजेपी के बाहर होने के बाद भी शिवसेना ने नाता नहीं छोड़ा था।
2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद शिवसेना और बीजेपी के रिश्ते में खटास आनी शुरू हो गई थी। शिवसेना और बीजेपी केंद्र में साथ रहते हुए भी 2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अलग-अलग किस्मत आजमाया था, क्योंकि दोनों के बीच सीट शेयरिंग को लेकर फॉर्मूला नहीं बन सका था। हालांकि, नतीजे आने के बाद शिवसेना ने बीजेपी को समर्थन देकर सरकार में भागीदार हो गई थी। इसके बाद 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में दोनों ने मिलकर लड़ा।
2019 के विधानसभा के नतीजा आने के बाद बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला था। इसके बावजूद दोनों दलों के रिश्तों के बीच सत्ता की कुर्सी ने दरार डाल दी। राज्य की सत्ता के लिए 30 साल की दोस्ती एक झटके में खत्म हो गई। यह फासला इतना बढ़ गया कि शिवसेना ने न सिर्फ बीजेपी से दोस्ती तोड़ी, बल्कि खुदको एनडीए से अलग कर लिया और कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर सत्ता की कमान उद्धव ठाकरे ने अपने हाथ में ले ली।
दिलचस्प बात यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने तमाम छत्रपों को एकजुट करके 1997 से 2004 तक सरकार चलाई। इसी फॉर्मूले को लेकर बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव की सियासी जंग को फतह किया था। नरेंद्र मोदी जिन दलों के साथ मिलकर सत्ता पर काबिज हुए थे, उनमें से चार सहयोगी दल साथ छोड़कर अलग हो गए हैं।
2018 मार्च में आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) एनडीए से बाहर हुई। अगस्त में जम्मू-कश्मीर में बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती से साथ गठबंधन तोड़ा। 2019 के चुनाव से ठीक पहले बीजेपी के सहयोगी दल आरएलएसपी के चीफ उपेंद्र कुशवाहा नाता तोड़कर महागठबंधन का हिस्सा बन गए हैं।
बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और यहां भी एनडीए में सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा है। रामविलास पासवान की एलजेपी और नीतीश कुमार की जेडीयू आमने-सामने हैं। दोनों पार्टियों के नेता एक दूसरे के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर रहे हैं। एलजेपी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान सार्वजनिक रुप से नीतीश कुमार के नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर भी अपने मतभेद ज़ाहिर किए हैं।
एनडीए में सहयोगी दलों के बीच आती दूरियों पर जब हमने वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल से बात की तो उन्होंने कहा कि सरकार की नीतियों और सरकार चलाने की नीतियों में अंतर होता है। भारतीय जनता पार्टी के लिए देश की सरकार चलाने का जो विजन है वो उसका अपना विजन होता जा रहा है न एनडीए का। संगठन के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी बीजेपी अपनी नीतियों पर चला रही है। इस वजह एनडीए के सहयोगी दल नाराज हो रहे हैं। उनका लगने लगा है हमारी नीतियां उतना मायने नहीं रखती। इसलिए उनमें असंतोष फैल रहा है।
इसके अलावा एनडीए में अधिकतर क्षेत्रीय दल जुड़े हैं। बीजेपी के बढ़ते कद देख उनके अंदर अपने जनाधार को बचाने का दबाव बढ़ने लगा है। अपने अस्तीत्व को बचाने के लिए छोटे दल बीजेपी से अलग हो रहे हैं और अपने राज्य में अपना पूराना जनाधार पाने की कोशिश कर रहे हैं। अकाली दल पंजाब में और शिवसेना महाराष्ट्र में यही काम कर रही है।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि जैसे-जैसे भाजपा मजबूत होती जा रही है और मोदी सरकार अपने एजेंडे पर काम कर रही है वैसे-वैसे बाकी दलों को इस बात का डर लग रहा है कि कहीं अगला चुनाव आने तक बीजेपी के आगे बाकी सभी राजनीतिक दल अप्रासंगिक न हो जाएं।
गौरतलब है कि एनडीए की संस्थापक पार्टियों में चार दल अभी एक साथ हैं। इनमें बीजेपी, अकाली दल, अन्ना द्रमुक, मिजो नेशनल फ्रंट, पीएमके शामिल हैं। लेकिन, इनमें से अन्ना द्रमुक, मिजो नेशनल फ्रंट, पीएमके बीच में एनडीए को छोड़ चुके हैं और अब दोबारा साथ में आए हैं। सिर्फ अकाली दल एक मात्र पार्टी है, जो पहले दिन से अभी तक एनडीए में बनी हुई है।
बता दें कि एनडीए भाजपा समेत 14 दलों से मिलकर बना था। इनमें भाजपा, अन्ना द्रमुक, समता पार्टी, बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल, राष्ट्रीय तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, पीएमके, लोक शक्ति, एमडीएमके, हरियाणा विकास पार्टी, जनता पार्टी, मिजो नेशनल फ्रंट, एनटीआर टीडीपी एलपी शामिल थे।
फिलहाल एनडीए में 26 पार्टियां हैं। इनमें से 17 पार्टियां ऐसी हैं, जिनके लोकसभा या राज्यसभा में सदस्य हैं। फिलहाल एनडीए के लोकसभा में 336 और राज्यसभा में 117 सदस्य हैं।