‘कोरोना’ पर कविता से बयां ​की ‘किसी बिवाई पर मरहम लगाकर तो देखिए…

औरैया। कोरोना की त्रासदी और लॉक डाउन की बेबसी ने भले ही लोगों को अनगिनत कष्ट दिए हैं। जनमानस इस अनदेखे-अनजाने वायरस की जघन्य मारण शक्ति से त्राहि-त्राहि कर रहा है। कोविड-19 की छापामार यलगार से पूरा विश्व आर्थिक मोर्चे पर ध्वस्त होता जा रहा है, बचाव के बंकर तलाशे जा रहे हैं।
सरकारों से रोज उनकी संवेदनशीलता और रणनीतिक प्रतिभा पर सवाल पूछे जा रहे हों, सड़क पर हजारों मील की यात्रा करते थके और लहूलुहान पांव मजदूर की मजबूरी का महाकाव्य बन गए हों, लेकिन ये भी सच है कि महामारी के इस हाहाकार में मानवता के कुछ लोमहर्षी दृश्य भी अपनी संवेदनशील आभा से मनमस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गए।
 एक दिन जब जब मैं हाई-वे की ओर निकला तो झुलसा देने वाले कोलतार की सड़क पर कुछ लोगों को नङ्गे पांव चलते देखा। आत्मा सिहर उठी और उपरोक्त पंक्तिया लिखी। ‘शायर की कहन जमाने ने सुनी और ऐसे लोगों की मदद को हाथ बढ़े। अजीतमल में प्रशासन द्वारा परदेशियों को भरपेट भोजन के साथ भेंट किये जा रहे चरण पादुका के दृश्य को देखकर कवि मन भावुक हो उठा और प्रशासन तक अपनी बात कुछ इस तरह पहुंचाई।
जरूरतमन्दों को फुटवियर उपलब्ध कराने का यह कार्य स्वानुभूति का चरम है। यह कार्य करने वाले बन्धु युग के भरत हैं, जो राम द्वारा चौदह वर्ष के लिए दी गयी खड़ाऊं का कर्ज इस तरह चुका रहे हैं। इनके पांव सहला कर आप दरिद्र नारायण का जलाभिषेक ही कर रहे हैं। जनपद का जनमानस अधिकारियों और समाजसेवियों की यह सदाशयता सदैव याद रखेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भारतीय चेतना को पुष्ट करती यह इकलौती घटना नहीं है।
 औरैया की माटी में जन्मे राष्ट्रकवि अजय अंजाम ने कहा कि पहले दिन के जनता कर्फ़्यू से लेकर सरकारी लॉक डाउन के इस ‘मन्वन्तर’ में मानवीय संवेदना ने कई ऐसे पुरुषार्थ भी किये जो उसके ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ स्वरूप को बल देते हैं। याद है,दिल्ली,हरियाणा,नोएडा और अन्य इलाकों से एकदिन हजारों लोग भूखे प्यासे पैदल ही निकल पड़े थे। भले इस इस दौरान कई दृश्यों ने सरकारी विफलता के ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किये हों, लेकिन कई दृश्य ऐसे भी थे जिन्होंने हमें मनुष्य होने पर गर्व करने के अवसर दिए।
पूरा हिंदुस्थान हाइवे और सड़कों के किनारे यूं आ खड़ा हुआ था जैसे वे वर्षों बाद घर लौट रहे अपने कुटुम्बियों की अगवानी करने आये हों। घरों में माओं,भाभियों,बहनों और नव-वधूटियों के हाथ चकला-बेलन पर थिरक उठे थे, मासूम हाथ पैक कर रहे थे तो वयस्क हांफते-ढाँफते पैकेट लेकर सड़क की ओर भाग रहे थे, कोई अपना भूखा न रह जाये इसलिए हलवाईयों ने भोजन बनाने का मेहनताना छोड़ दिया था। संघ और विहिप की शाखाएं बौद्धिक से ‘प्रसादिक’ हो उठी थीं। स्वयंसेवक अन्नपूर्णा हो गए थे।
 उधर थाली-ताली और दीप प्रज्ज्वलन के दृश्यों ने भावुक आंखों को ‘वयम राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:’ की आभा से दीपित कर दिया था। कोरोना फाइटर के साथ अभद्रता और जमात के उत्पात से राष्ट्र-आत्मा छलनी हुई, लेकिन जगह-जगह उन पर पुष्प बरसाते, माला पहनाते हाथों ने उन जख्मों को रफ़ू करने का भरसक प्रयास किया। सेना ने पुष्पक विमानों से पुष्पवर्षा की तो मानों पूरे देश की चेतना ने कोरोना फाइटर्स को पलकों पर बैठा लिया। हाल ही में 20 लाख करोड़ का पैकेज कोरोना-वृष्टि से पहलती आर्थिक दीवार में ‘दौचर’ लगाने का श्रेष्ठ उपक्रम है।
अब ‘स्वमेव मृगेन्द्रता’ यानी आत्म निर्भरता का अपराजेय पौरुष हमें विश्वगुरु बनने का मार्ग प्रशस्त करेगा। सो ‘उत्तिष्ठ भारत’। आइये, हम संकट के इस काल में रुदन की नकार से पुनर्निर्माण के सकार की ओर चलें। और ‘अहम ब्रम्हास्मि’ की उस पराकाष्ठा तक पहुंचे जिसके आगे सिर्फ प्रणव है,मात्र ओंकार।
 गीत का एक बन्द-
सवा अरब के हौसले, सवा अरब की हिम्मतें, सवा अरब की बाजुएं,सवा अरब की ताकतें ये हौसलें हैं एकजुट ये हिम्मतें हैं, एकजुट ये बाजुएं हैं, एक जुट ये ताकतें हैं, एकजुट ये देश है वो देश जो कभी रुका, झुका नहीं चला है, अपनी राह पर सदा चला थका नहीं ये आपदाएं आयी हैं,चली गयी हैं हारकर हम विप्पतियों से निकले और भी निखार कर ये बला जो है कोरोना नाम की वो जाएगी, सूर्य हर्ष का उगेगा, शाम मुस्करायेगी, एक साथ गा लिया तो राष्ट्रगान, हारेगा कोरोना जीतेगा हिन्दुथान।

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