ओम राउत के निर्देशन में बनी ‘आदिपुरुष’ फिल्म को लेकर हाई कोर्ट ने निर्माताओं को फटकार लगाई है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फिल्म पर बैन लगाने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा, आप लोग धार्मिक ग्रंथों को बख्श दीजिए. इसके साथ ही कोर्ट ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ ही केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को याचिका के जवाब में निजी हलफनामा दाखिल करने को कहा है.
28 जून को सुनवाई के दौरान अदालत ने सेंसर बोर्ड से फिल्म को प्रमाण पत्र देने पर अचरज जताया और कहा कि यह एक “भारी गलती” थी. अदालत के मुताबिक इस फिल्म ने व्यापक रूप से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाया है. अदालत ने सेंसर बोर्ड के साथ ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय को इन याचिकाओं पर जवाब देते हुए निजी हलफनामे दायर करने के लिए कहा.
कोर्ट ने धार्मिक समुदायों से की तुलना
अदालत की कार्रवाई सिर्फ नोटिस भेजने तक ही सीमित नहीं है. वेबसाइट लाइव लॉ डॉट इन के मुताबिक न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान और श्रीप्रकाश सिंह की पीठ ने कहा, “मान लीजिये कुरान पर एक छोटी सी डॉक्यूमेंटरी बनी होती, गलत चीजें दिखाते हुए, तो आप देखते कि फिर क्या होता है.”
अदालत का कोई धार्मिक झुकाव नहीं है
एक मीडिया चैनल के मुताबिक पीठ ने इस मामले में आगे कहा, “फिल्म बनाने वालों की भारी गलती के बावजूद, हिंदुओं की सहिष्णुता की वजह से हालात खराब नहीं हुए.” हालांकि पीठ ने आगे यह भी कहा कि अदालत का कोई धार्मिक झुकाव नहीं है और अगर उसके सामने कुरान या बाइबल पर ऐसा कोई मसला आया होता तो भी अदालत का रुख यही होता.
बार एंड बेंच डॉट कॉम के मुताबिक पीठ ने सेंसर बोर्ड के सदस्यों पर भी टिप्पणी की और कहा, “आप कह रहे हैं कि संस्कार वाले लोगों ने इस मूवी को सर्टिफाई किया है जहां रामायण के बारे में ऐसा दिखाया गया है तो वो लोग ‘धन्य’ हैं.”
हाई कोर्ट की इस टिप्पणी की आलोचना
इलाहाबाद हाई कोर्ट की इस टिप्पणी की कई जानकारों ने आलोचना की है. दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति आर एस सोढ़ी का कहना है कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच इस तरह तुलना करना ठीक नहीं है और हाई कोर्ट का यह बयान सोच की अपरिपक्वता को दिखाता है.उन्होंने यह भी कहा, “दुनिया के बड़े धर्म इस अपरिपक्वता से ऊपर उठ चुके हैं कि वो इस बात की परवाह करें कि कोई उनके भगवानों के बारे में क्या कह रहा है.
धार्मिक मामलों में पक्षपात
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने एक ट्वीट में अदालत की भाषा को लेकर आलोचना की है. कुछ विश्लेषकों ने अदालत की टिप्पणी को धार्मिक मामलों में पक्षपात से भी जोड़ा है. बर्लिन की ‘फ्री यूनिवर्सिटी’ के फेलो अनुज भुवानिया ने एक ट्वीट में कहा, “ऐसा लग रहा है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट की इस पीठ ने फैसला कर लिया है कि वो हिंदू राष्ट्र की संवैधानिक अदालत की तरह पेश आएगी.”
पहले भी हो चुका है ऐसा
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इससे पहले भी कई मामलों में ऐसे बयान दिये हैं जो भारत की धर्मनिरपेक्षता के ताने बाने में फिट नहीं बैठते. सितंबर 2021 में अदालत ने गोकशी के आरोप का सामना कर रहे एक व्यक्ति से जुड़े मामले पर सुनवाई के दौरान कहा था कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए और “गाय की सुरक्षा को हिंदू समाज का मूलभूत अधिकार बना देना चाहिए क्योंकि हम जानते हैं कि जब एक देश की संस्कृति और विश्वास को ठेस पहुंचती है तो देश कमजोर होता है.”
हिंदी फिल्म उद्योग की एक आदत
अदालत ने यह भी कहा था, “पश्चिमी देशों में फिल्में बनाने वाले तो ईशा मसीह और पैगंबर मोहम्मद का मजाक नहीं उड़ाते, लेकिन हिंदी फिल्मकार धड़ल्ले से बार बार हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाते हैं.” अदालत का कहना था कि यह हिंदी फिल्म उद्योग की एक आदत बन चुकी है और इसे समय रहते रोकना होगा.