क्या अब कास्ट नो बार को टाटा, जातियों को खुश करने में अगला नंबर किसका?

नई दिल्ली. गुजरात में विजय रूपाणी (Vijay Rupani) को हटाकर भूपेंद्र पटेल (Bhupendra Patel) को सीएम बनाने के पीछे बीजेपी (BJP) की क्या मंशा रही है ये किसी से अब छुपी नहीं है. सब जानते हैं कि पाटीदार समाज को खुश करने के लिए ऐसा किया गया. दरअसल गुजरात का पाटीदार समाज राज्य में शुरू से जागरूक रहा है और हर पार्टी में उनकी मौजूदगी रही है. बीजेपी के लिए उनको किनारे लगाकर ज्यादा दिन तक सत्ता में बने रहना मुश्किल था.

तो क्या ये मान लिया जाए कि बीजेपी ने हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र में कास्ट नो बार का जो प्रयोग किया उसे अब तिलांजलि देने जा रही है? इन राज्यों में पार्टी ने वहां की सबसे प्रभावशाली जाति को मुख्यमंत्री ना बनाकर किसी अन्य जाति पर दांव खेला था. पर जिस तरह से गुजरात में विजय रूपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल को सीएम का ताज सौंपा गया है उसे देखकर यही लगता है कि बीजेपी और भी स्टेट में सरकार और संगठन के लेवल पर परिवर्तन करने वाली है.

पार्टी यह बात भली भांति समझ रही है कि आने वाले विधानसभा चुनाव हों या अगला लोकसभा चुनाव लड़ाई कांटे की होने वाली है. 2 से 3 पर्सेंट वोटों का मार्जिन भी बीजेपी का खेल बिगाड़ सकता है. इसलिए पार्टी अपने परंपरागत वोटरों या नाराज कुछ प्रभावी जातियों को खुश करने के लिए कड़े फैसले ले सकती है. तो क्या हरियाणा-उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में सरकार और संगठन लेवल पर कुछ और कड़े फैसले लेने वाली है पार्टी?

कास्ट बैरियर तोड़ने की रणनीति काम नहीं आई

बीजेपी ने हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन और गुजरात में पाटीदार आरक्षण आंदोलन के चरम पर पहुंचने के बावजूद इन संप्रभु जातियों की उपेक्षा करके अन्य जातियों को लीडरशिप सौंपी. हरियाणा में एक पंजाबी मनोहरलाल खट्टर, महाराष्ट्र में एक ब्राह्मण देवेंद्र फडणवीस और गुजरात में जैन समुदाय से आने वाले विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री बनाया था.

इसमें बीजेपी की क्या मंशा थी ये समझना बहुत मुश्किल है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना रहा है हरियाणा में बीजेपी एंटी जाट वोट के बल पर राज्य में लंबे शासन की तैयारी में थी. हो सकता है कि गुजरात, महाराष्ट्र में भी यही सोच रही हो पर यह दांव शायद अब उल्टा पड़ गया है.

अप्रैल महीने में इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक इंटरव्यू में गृहमंत्री अमित शाह ने माना था कि राज्य की मुख्य संप्रभु जातियों को कमान ना दे कर कास्ट बैरियर तोड़ने की उनकी योजना के चलते कुछ समस्याएं हुईं हैं पर हम अपने स्टैंड पर कायम रहेंगे. पर गुजरात से विजय रूपाणी को हटाने के बाद अब लगता है कि बीजेपी अपने स्टैंड पर कायम नहीं रहने वाली है.

क्या हरियाणा में जाटों को भी खुश किया जाएगा

जाट लैंड की धरती हरियाणा में 2014 में बीजेपी प्रदेश के इतिहास में पहली बार सत्ता में आई. प्रदेश का वोटिंग रुझान बता रहा था कि बीजेपी को सभी वर्गों का वोट मिला था. कांग्रेस की भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार को प्रदेश के मतदाताओं ने खारिज कर दिया था. इसके बावजूद कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने जाटों के लिए ओबीसी रिजर्वेशन का प्रावधान किया था जो बाद में सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं सका.

2014 आम चुनावों में बीजेपी को पूरे देश में मिले जनसमर्थन का असर हरियाणा में भी दिखा और पार्टी कुल 90 सीटों में से 48 सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत हासिल कर पाई. बीजेपी का वोट प्रतिशत भी सबसे ज्यादा रहा. बीजेपी के खाते में 33.4 प्रतिशत से ज्यादा वोट पड़े, जबकि कांग्रेस के खाते में 20.6 प्रतिशत आए.

बीएसपी भी 4.4 प्रतिशत वोट लेने में कामयाब रही. हरियाणा जनहित कांग्रेस को 3.6 प्रतिशत वोट मिले. बीजेपी के बाद दूसरे नंबर पर 19 सीट लेकर इंडियन नेशनल लोकदल को जनता ने पसंद किया. कांग्रेस को 15 सीट ही मिल सकीं.

लेकिन 2019 आते-आते हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार की चमक जनता के आगे फीकी पड़ गई. बीजेपी 48 सीट से 40 पर आ गई और कांग्रेस को 31 सीटें मिलीं. जेजेपी के पास बार्गेनिंग करने की पावर आ गई. बाद में बीजेपी को ना चाहते हुए भी जेजेपी के साथ गठबंधन करके सरकार बनानी पड़ी. दरअसल बीजेपी के इस अलोकप्रियता के पीछे कई कारण रहे पर जो एक कारण सबसे ज्यादा उभर कर आया वो जाटों की बीजेपी से नाराजगी रही.

हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन की चिंगारी चुनावों में बीजेपी पर भारी पड़ी. इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह भी रहा कि बीजेपी ने सत्ता और संगठन दोनों जगहों पर जाटों की उपेक्षा की. सरकार में नंबर एक और नंबर 2 पंजाबी ही बने रहे. हालांकि वर्तमान में हरियाणा बीजेपी को ओमप्रकाश धनखड़ के रूप में स्टेट प्रेसिडेंट मिल गया है पर शायद जाट केवल इतने से मानने वाले नहीं हैं. किसान आंदोलन के बढ़ते प्रभाव और मनोहर लाल खट्टर सरकार को कई और मोर्चों पर मिल रही नाकामियों को देखते हुए यह संभव है कि जल्द ही किसी जाट को प्रदेश का नेतृत्व दिया जाए.

महाराष्ट्र में भी मराठा समुदाय को खुश करना है

गुजरात में पाटीदार समुदाय और हरियाणा में जाटों की तरह महाराष्ट्र में मराठा पावर का जलवा है. एक अनुमान के मुताबिक करीब 33 पर्सेंट वोट मराठा समुदाय के हैं. 1960 से अभी तक महाराष्ट्र में कुल 18 मुख्यमंत्री हुए जिसमें 10 मराठा मुख्यमंत्री चुने गए हैं. इस समुदाय की ताकत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि राज्य के 50 पर्सेंट एजुकेशनल इंस्टि्ट्यूट, 70 पर्सेंट डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव बैंक और 90 पर्सेंट शुगर फैक्ट्री मराठा लोगों के हाथों में है.

राज्य के पिछले विधानसभा चुनावों में करीब 366 सीटों में 288 सीटों पर मराठा एमएलए काबिज थे. वहीं विधान परिषद की कुल सीटों में 46 पर्सेंट इसी समुदाय के लोग काबिज थे. सवाल यह उठता है कि इतनी संप्रभु जाति को कोई भी पार्टी कैसे अलग-थलग कर सकती है.

मराठा आरक्षण को लेकर राज्य की राजनीति लगातार गर्म हो रही है. सभी राजनीतिक दल इस बहाने मराठा समुदाय को लुभाने में लगे हुए हैं. बीजेपी को अगर अगले चुनाव में इनका समर्थन चाहिए तो किसी मराठा नेता से देवेंद्र फडणवीस को रिप्लेस करना होगा.

यूपी में ब्राह्मणों के लिए क्या हो सकता है?

यूपी में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जो अभूतपूर्व समर्थन मिला उसमें ब्राह्मण मतदाताओं की बड़ी भूमिका रही है. जिस तरह गुजरात में पाटीदार कम्युनिटी है उसी तरह यूपी में ब्राह्मण कम्युनिटी है. ब्राह्मण कम्युनिटी का प्रदेश में सरकारी नौकरियों, कोर्ट-कचहरी, मीडिया, स्कूल-कॉलेज में वर्चस्व है. इसके साथ ही प्रदेश में करीब 10 पर्सेंट के करीब आबादी के चलते सभी राजनीतिक पार्टियों में इस समुदाय के विधायक हैं.

2017 में विधानसभा के चुनावों में प्रदेश से 44 ब्राह्मण विधायक बीजेपी के जीते थे और 12 ब्राह्मण विधायक अन्य पार्टियों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. यानि 2017 के विधानसभा चुनावों में कुल ब्राह्मण विधायकों की संख्या 56 थी. कम से कम इतने ही जगहों पर ये दूसरे स्थान पर रहे. इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रदेश में ब्राह्मण कम्युनिटी कितनी महत्वपूर्ण है. बीजेपी के साथ दिक्कत ये है कि इस बार के चुनावों में इस समुदाय को लगता है कि उनके साथ अन्याय हो रहा है.

दरअसल यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ठाकुर समुदाय से आते हैं. यूपी की राजनीति में वर्चस्व के लिए ठाकुर बनाम ब्राह्मण की राजनीति चलती रही है. इसलिए कांग्रेस और बीजेपी में अब तक सरकार और संगठन में दोनों जातियों का बैलैंस बनाया जाता रहा है. पहली बार ऐसा है कि बीजेपी में सरकार और संगठन दोनों में ब्राह्मण नहीं है. जिन ब्राह्मणों को केंद्र या राज्य में मंत्रिमंडल में जगह मिली हुई है वो भी इस समुदाय के कद्दावर नेताओं में नहीं हैं. फिलहाल यूपी में बीजेपी का नेतृत्व परिवर्तन का सपना पूरा नहीं हो सका है. तो क्या संगठन में किसी ब्राह्मण को भूमिका मिल सकती है?

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