अमेरिकी पत्रकार बॉब वुडवार्ड (जो वॉटरगेट स्कैंडल की रिपोर्टिंग के लिए मशहूर हैं) बिल क्लिंटन के जमाने से अमेरिकी राष्ट्रपतियों का कार्यकाल कलमबद्ध कर रहे हैं। अर्थात, वह सभी राष्ट्रपतियों के कार्यकाल और उस दौरान होने वाली घटनाओं पर किताबें लिख रहे हैं। यह एक तरह का इतिहास है जो वास्तविक समय में ही हमारे सामने किताब की शक्ल में हमारे सामने आ रहा है। पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने भी पिछले तीन लोकसभा के बारे में भी ऐसा ही किया है। उन्होंने 2014 और 2019 के चुनावों के बारे में रिपोर्टिंग की है और किताबें लिखी हैं और अब ‘2024: भारत को चौंका देने वाला चुनाव’ शीर्षक से एक किताब लाने वाले हैं।
जाहिर तौर पर यह किताब चुनावी प्रचार अभियान के बारे में है, लेकिन इससे हम उस दौर से भी रूबरू होते हैं, जिससे होकर हम चुनाव प्रचार के क्षण तक पहुंचे थे। इसमें कोविड महामारी और उसके प्रबंधन में सरकारी नकामी पर पर एक अध्याय है (जिसे अब बेशक भुला दिया गया है)। और दूसरा अध्याय किसानों के आंदोलन पर पर है।
और, शायद मोदी सरकार के पतन की शुरुआत 2019 के आखिर में शाहीन बाग आंदोलन से मानी जा सकती है और जो 2021 में किसान आंदोलन के वक्त चरम पर थी जब मोदी सरकार को किसानों के सामने झुकना पड़ा था।आंलन से लेकर से लेकर इसके पता 2019 के अंत में शाहीन बाग आंदोलन से शुरू होने वाले उस दौर से लगाया जा सकता है, जो 2021 के अंत में किसानों के सामने देर से आत्मसमर्पण करने के समय चरम पर था।
इसी मोड़ पर मुझे किताब का सबसे रोचक हिस्सा दिखता है, जो आखिर में है और जहां राजदीप सरदेसाई ऐसे सवालों के जवाब देते हैं जिसे वे खुद ही अकसर पूछे जाने वाले सवाल (फ्रीक्वेंटली आस्क्ड क्वेश्चंस) कहते हैं। ऐसे तीन सवाल हैं, और पहला है: क्या मोदी युग का अंत होने वाला है?
राजदीप सरदेसाई इस सवाल का जवाब कुछ कारणों से ना में देते हैं। यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे इस सवाल को एक अलग कोण से देखते हैं। और वह है- क्या मोदी जाने वाले हैं? इसे देखने का एक और तरीका है, और उस पर हम थोड़ी देर में वापस आएंगे। सरदेसाई लिखते हैं कि, ‘दृढ़ निश्चय’ और ‘सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी करने की तत्परता’ यह सुनिश्चित करेगी कि मोदी अपना तीसरा कार्यकाल पूरा करें। वे हाल ही में कई फैसलों पर किए गए यू-टर्न ओर इशारा करते हैं, और लैटरल एंट्री के फैसले को वापस लेने को एक संकेत मानते हैं।
मोदी के सहयोगी, यानी चंद्रबाबू नायडू जैसे उनकी सरकार को समर्थन देने वाले लोग अपने क्षेत्रीय एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं और सरकार के साथ अपने तालमेल या मेलजोल को अस्थिर करने में रुचि नहीं रखते। यह एक बिंदू है। तो फिर आरएसएस और उसके हितों के बारे में क्या?
सरदेसाई कहते हैं कि संघ इस बात को जानता-मानता है कि मोदी बीजेपी से कहीं ज्यादा लोकप्रिय हैं (सर्वे के अनुसार) जहां हर चौथा वोटर कहता है कि वे बीजेपी को सिर्फ मोदी की वजह से वोट देते हैं, हालांकि इसमें 2019 के मुकाबले गिरावट आई है जब हर तीसरा वोटर ऐसी बात कहता था।
फिलहाल मोदी का कोई अंदरूनी शत्रु नहीं है, इसका अर्थ है कि मोदी अपने 75वें जन्मदिन के बाद भी बने रहेंगे। उनके 75वां जन्मदिन में एक साल से भी कम वक्त बचा है।
इसके बाद, किताब इस सवाल को तलाशती है कि क्या राहुल गांधी ‘आखिरकार एक सार्थक राजनेता के रूप में उभरे हैं’। सरदेसाई ने इसका जवाब ‘हां’ में दिया है। उनका कहना है कि पहले के मुकाबले काफी बदलाव आया है (यही वजह है कि ‘आखिरकार उभरे’ का सवाल उठा)। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और निश्चित ही लोकसभा चुनाव परिणाम और उसके बाद संसद के अंदर हुआ बदलाव इसका सबूत है।
हालांकि, सरदेसाई लिखते हैं कि अभी भी उनके मोर्चे पर काफी कुछ किया जाना बाकी है और राज्य विधानसभाओं के चुनाव हमें राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमताओं और योग्यताओं के बारे में और भी कुछ समझने में मददगार होंगे।
तीसरा सवाल जो उन्होंने उठाया है वह यह है कि क्या लोकतंत्र ‘मोदी युग में भी टिक पाएगा’? इसे दिलचस्प तरीके से पेश किया गया है और लेखक ने दो चीजों को संकेतक के रूप में लिया है। पहला, आर्थिक विकास में व्यापक कमजोरी या नाकामी को शाब्दिक अर्थों के संदर्भ में और दूसरा, मोदी के शासन में अधिनायकवाद की ओर झुकाव पर। अगर सवाल का जवाब ‘हां’ है तो इन दोनों मुद्दों पर विचार करने की जरूरत है।
सरदेसाई ने जो कुछ भी कहा है, उसमें से कोई भी अपवाद नहीं है। यह सवाल कि क्या मोदी युग क्या है और क्या यह समाप्त हो गया है, इसका जवाब देने का एक और तरीका है। आखिर इस युग का सार क्या था? यह एक ऐसे व्यक्ति का समय था जो दावा कर रहा था कि वह व्यक्तिगत रूप से बदलाव लाएगा और सरकार में रहते हुए वह सबकुछ करेगा जो दशकों से नहीं हुआ। बीते एक दशक का ईमानदार मूल्यांकन सामने रखें तो पता चलेगा कि यह दावा झूठा था और इसका कोई असर दिखाई नहीं देता। अधिकांश भारतीयों का जीवन आज भी वैसा ही है जो 2014 से पहले था।
आज, बीजेपी के पास सिर्फ 240 सीटें हैं, ऐसे में काम करवाने की मोदी की क्षमता सीमित हो चुकी है, और इसे हमने कई नीतिगत फैसलों को पलटने और यू-टर्न में हमने देखा है। अब यह दावा करने का तुक ही नहीं है कि मोदी विशेष हैं और अद्वितीय हैं। नोटबंदी और कोरोना काल के लॉकडाउन जैसे उनके ऐसे फैसले जिनकी भनक कैबिनेट तक को नहीं होती थी, जिन्हें मास्टरस्ट्रोक कहा जाता था, वह क्षमता खत्म हो चुकी है। सरदेसाई बताते हैं कि सहयोगियों को अपने साथ बनाए रखने में काफी समय और ऊर्जा खर्च की जा रही है और आगे भी की जाती रहेगी ताकि कोई अंदरूनी असंतोष न हो।
वह अब एक आम नेता हैं और उन पर चढ़ी मसीहाई की चमक हमेशा के लिए खत्म हो चुकी है। वह संभवतः इस कार्यकाल के बाकी समय तक पद पर बने रहेंगे, लेकिन ऐसा सिर्फ उन कारणों से होगा जो सरदेसाई ने सूचीबद्ध किए हैं। ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि उनके पास अभी भी वह सब है जो लोगों को 2014 में लगता था, या फिर 2019 तक भी लगता था। वैसे यह अपने आप में यह कोई बुरी बात भी नहीं है।
इतने प्रचंड प्रचार अभियान के बाद, जिसमें से अधिकांश अनुचित और पूरी तरह से नकली ही था, हम एक आम सी राजनीति के दौर में वापस आ गए हैं। जहां हम इस कठिन सवाल पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं कि 50 करोड़ लोगों को गरीबी से उठाकर समृद्धि की ओर कैसे ले जाया जाए और ऐसे समय में करोड़ों नौकरियां कैसे पैदा की जाएं, खासतौर से तब जबकि ऐसा करना अब पहले के मुकाबले कहीं अधिक कठिन है।
यदि हम ऐसा करने में कामयाब हो सकें तो यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी और चाहे हम वहां पहुंचें या नहीं, लेकिन हम सरदेसाई से उम्मीद कर सकते हैं कि वे हमें मोदी के इन पांच साल की यात्रा पर तो ले ही जाएंगे।