नई दिल्ली। बैंकिंग समुदाय में यह सुनना बड़ी आम बात है कि एनपीए (गैर निष्पादित परिसंपत्तियां) बैंकिंग कारोबार का ही एक हिस्सा होता है। लोन देंगे तो कुछ वापस नहीं भी आएंगे। लोन देने के कारोबार की प्रकृति ही ऐसी है। यह एक वाजिब सोच है। लेकिन दिक्कत यह है कि यह सिद्धांत जब व्यवहार में उतरता है तो कुछ और ही शक्ल ले लेता है। कम-से-कम भारतीय बैंकिंग सेक्टर में तो ऐसा ही होता है।
इस सेक्टर के काम करने का तरीका ऐसा है कि मामूली लोन लेने वालों की तो खदेड़कर गिरेबान पकड़ लो लेकिन बड़े लोन वालों को यूं ही जाने दो। जैसे, भारतीय बैंकिंग प्रणाली इस कहावत को सच साबित करने में जुटी हो कि ‘अगर आप पर बैंक का 100 डॉलर लोन है तो यह आपकी समस्या है। लेकिन अगर आप पर 100 मिलियन डॉलर का लोन है तो यह बैंक की समस्या है।’
क्या हाल के दिनों में यह जमीनी हकीकत बदल गई है? खबरें तो ऐसा ही कह रही हैं। 28 जून, 2023 को जारी आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के हवाले से जो खबरें पिछले कुछ हफ्तों के दौरान छपी हैं, वे बताती हैं कि भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में एनपीए नाटकीय रूप से गिरकर 10 साल के निचले स्तर पर आ गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि वित्त वर्ष 2023 में कुल एनपीए 3.9% रहा जबकि 2018 में यह 11.5% था। इस अवधि में कुल उधार में भी खासा इजाफा देखा गया जो 2018 में 83.6 लाख करोड़ रु. से बढ़कर 2023 में 135 लाख करोड़ हो गया। उधार के बढ़े आधार पर कुल एनपीए के प्रतिशत में आई गिरावट सही तस्वीर नहीं रख रही।
आंकड़ों के हवाले से आरबीआई की रिपोर्ट में कहा गया है: ‘एक मजबूत बैंकिंग प्रणाली के नेतृत्व में भारतीय वित्तीय प्रणाली अर्थव्यवस्था की उत्पादक जरूरतों के लिए स्थिर और सहायक बनी हुई है। ठोस कमाई, पर्याप्त पूंजी, पर्याप्त तरलता और परिसंपत्ति की गुणवत्ता में हुई बेहतरी की वजह से भारतीय बैंक 2022 के शुरू से चल रहे क्रेडिट चक्र में दिख रही तेजी को बनाए रखने के लिहाज से अच्छी स्थिति में हैं।’
अगर इस विषय को अब भी सिस्टम में तैयार हो रहे एनपीए की संख्या के आधार पर देखा जाए, तो एक अलग ही तस्वीर सामने आएगी। अगर पुराने एनपीए की संख्या इस वजह से गिर गई कि इसमें भारी कटौती की गई और तमाम उधार को बट्टे खाते में डाल दिया गया, फिर भी नए एनपीए सिस्टम में जुड़ते रहे, तो यह एनपीए के प्रबंधन और सार्वजनिक पैसे की सुरक्षा के तौर-तरीकों पर बड़े सवाल खड़े करता है। बैंकों के पास जो भी पैसा है, वह आखिरकार भारत के आम लोगों का है जिसे वे अपनी कमाई से बचाकर बैंक में डालते हैं और जिसका इस्तेमाल बैंक व्यवसायों को उधार देने में करते हैं।
कुल एनपीए प्रतिशत में गिरावट का कारण क्या है? मजबूत रिकवरी हुई हो तो अच्छी बात है, लेकिन अगर ऐसा उधारी को बट्टे खाते में डालने से हुआ है तो बुरा है। एनपीए पर काबू करने के लिए अगर सख्त रुख अपनाया गया हो, जहां जरूरी हो, वहां डंदात्मक कार्रवाई हुई हो तो बात समझ में आती है।
इससे इनकार नहीं कि कुछ ऐसे मामले हो सकते हैं जिनके पास व्यावसायिक विफलता जैसी उधार न चुका पाने की वाजिब वजह हो। लेकिन उनका क्या जो उधार चुकाने की स्थिति में होते हुए भी पैसे नहीं देते हैं और ढीली प्रशासनिक व्यवस्था का लाभ उठाते हैं? जान-बूझकर उधार न चुकाने वालों के साथ बैंकिंग व्यवस्था ने क्या किया, यह देखना सबसे ज्यादा जरूरी है।
सोचें, 2021-22 में कुल एनपीए 5.8% था जो 7.44 लाख करोड़ रुपये था जबकि साल के शुरू में एनपीए 8.35 लाख करोड़ था। इसमें आई गिरावट का कारण यह था कि 1.79 लाख करोड़ रुपये के उधार को बट्टे खाते में डाल दिया गया। लेकिन जब 2021-22 खत्म हुआ, तो 2.83 लाख करोड़ रुपये के नए एनपीए खड़े हो गए थे।
हकीकत यह है कि पिछले पांच सालों (2018-2022) में जब कुल एनपीए 9.2% से घटकर 5.8% हो गया है, इस दौरान बट्टे खाते में डाली गई रकम 10.25 लाख करोड़ की रही। इसके साथ ही इस अवधि के दौरान 20 लाख करोड़ रुपये से कुछ ही कम के नए एनपीए हो गए। दी गई अवधि में साल-दर-साल, नया एनपीए बट्टे खाते में डाले गए या वसूली गई राशि से कहीं अधिक रहा है। जहाज के पुराने छेद को ‘दुरुस्त’ किया जा रहा है जबकि इसी दौरान उससे बड़े छेद बन जा रहे हैं। क्या यह जहाज समुद्र में तैरे सकेगा? तैरना तो दूर, इसका तो एक जगह खड़ा रहना मुश्किल है।
व्यवस्था के लिहाज से भी देखें तो एनपीए की समस्या में कोई सुधार नहीं हो रहा। हमारी बैंकिंग व्यवस्था को तभी मजबूत माना जा सकता है जब हम बेहतर मूल्यांकन, निगरानी, पर्यवेक्षण, नियंत्रण और प्रशासकीय व्यवस्थाओं की ओर बढ़ें। लेकिन हम तो इसके करीब भी नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं कि हर तरफ ढिलाई है और एनपीए को लेकर हमारे यहां कोई चेतावनी प्रणाली नहीं है जिससे लगता है कि सिस्टम ने इस संदेश को मन में बैठा लिया है कि भारत में तो काम ऐसे ही होगा।
यह एक ढीली व्यवस्था को चुस्त और अधिक कुशल नहीं, बल्कि और ढीली होने के लिए प्रोत्साहित करता है। शासन-प्रशासन की ओर से दिए जा रहे संकेत बड़ा बदलाव ला सकते हैं। लेकिन जान-बूझकर उधार न चुकाने वालों के खिलाफ सख्ती या उन्हें शर्मिंदा करने की कोई इच्छाशक्त ही नहीं दिखती।
इसके बजाय, नियामक ने बैंकों को जानबूझकर उधार न चुकाने वालों के तौर पर वर्गीकृत खातों के संबंध में समझौता करके मामले को निपटाने या फिर उधार को तकनीकी बट्टे खाते में डालने की इजाजत दे दी है। समझौता का विचार ही साफ संकेत देता है कि हम ‘मोल-तोल’ के लिए तैयार हैं और एक छोटी सी समय सीमा के बाद आप दोबारा उधार ले सकते हैं।
यह सब बैंकिंग की नियमित भाषा हो सकती है, लेकिन इनमें से कोई भी भारत के लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर सकता। उस पर सार्वजनिक नीति पर बड़ा प्रभाव डालने वाले राजनीतिक-व्यावसायिक गठजोड़ से यही छवि बनती है कि भारत के वित्तीय संस्थान में सड़ांध भर गई है। यह राष्ट्र के ताने-बाने को कमजोर करता है और उन्हीं लोगों के आगे बढ़ने का रास्ता खोलता है जो नियमों को तोड़-मरोड़कर ‘खेल’ सकते हैं। लेकिन यह वैसे विकास के लिए रुकावट है जो अच्छा, टिकाऊ और सभी के लिए समान तरीके से अवसर उपलब्ध कराने वाला हो।
ऐसे देश में जहां योग्य नागरिकों को दी जाने वाली छोटी-छोटी सब्सिडी पर सवाल उठाए जा रहे हैं, इन्हें रोकने की पैरोकारी की जाती है, उन्हें ‘रेवड़ी’ संस्कृति कहकर इसका मजाक बनाया जाता है और इसी के इर्द-गिर्द राजनीतिक बहस चलाई जाती है, जैसे कि भारत के लोग भिखारी हों और उनके लिए छोटी-छोटी मुफ्त चीजें या सुविधाएं ही सबसे बड़े कारक हैं, एनपीए के प्रबंधन का तौर-तरीका बेहद आपत्तिजनक है। क्या सब्सिडी और ‘रेवड़ियों’ की जगह एनपीए को चर्चा के केन्द्र में नहीं होना चाहिए?
यह भारत के लोगों का पैसा है और अगर बैंक परियोजनाओं की वास्तविकता और धन के अंतिम उपयोग की निगरानी नहीं कर सकते हैं, तो उधार देने वाले और उधार लेने वाले- दोनों को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो साफ है कि एनपीए गरीब जनता को लूटकर अमीरों की तिजोरी भरने का जरिया छोड़कर कुछ भी नहीं।
(जगदीश रतनानी पत्रकार और एसपीजेआईएमआर में फैकल्टी सदस्य हैं। ये उनके अपने विचार हैं)