चुनावो में हेराफेरी के खुलासे पर भारत में चुप्पी क्यों ?

गिरीश मालवीय

द गार्जियन के खुलासे पर भारतीय मीडिया में अजीब सी चुप्पी है कल गार्जियन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस्राइल के कॉन्ट्रैक्टर्स की एक टीम ने दुनिया में 30 ज्यादा चुनावों में हेरफेर की। ऐसा उन्होंने हैकिंग, सोशल मीडिया के जरिए दुष्प्रचार और चुनाव प्रक्रिया में रुकावट डाल कर किया.

कॉन्ट्रैक्टर्स की इस टीम के संचालक 50 वर्षीय ताल हनान हैं, जो तेल अवीव में रहते हैं। वे इस्राइल के एक स्पेशल फोर्स के पूर्व कर्मचारी हैं। उन्होंने विभिन्न देशों में चुनावों को प्रभावित किया है, हनान की यूनिट कोड नेम “टीम जोर्ज” के तहत काम करती है।

इंटरनेशनल कॉन्जर्टियम ऑफ जर्नलिस्ट्स (आईसीजे) ने इस पूरे मामले का खुलासा किया है।

टीम जॉर्ज की प्रमुख सेवाओं में से एक परिष्कृत सॉफ्टवेयर पैकेज, एडवांस्ड इम्पैक्ट मीडिया सॉल्यूशंस या एम्स है। यह ट्विटर, लिंक्डइन, फेसबुक, टेलीग्राम, जीमेल, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर हजारों फर्जी सोशल मीडिया प्रोफाइल की विशाल आर्मी को नियंत्रित करता है।

पहले केंब्रिज एनेलिटिका फिर पगासस और अब इस टीम जॉर्ज के खुलासे के बाद अब यह सिद्ध हो गया है सोशल मीडिया का असली इस्तेमाल कौन कर रहा है.

आप इस भरम में है कि आप सोशल मीडि‍या का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में वो आपका इस्‍तेमाल कर रहा है।दुनिया भर में ऐसे गुप्त संगठन जिनके पास डेटा को समझने और हासिल करने की ताकत होती है, वे अब सोशल मीडिया की सहायता से अब चुनावों को प्रभावित कर रहे हैं।

18 से 30 साल की आयु वाले वोटर जो पहले अपने परिवार की परंपरा के आधार पर वोट डालते थे, आज उनकी खुद की सोच है पसंद नापसंद है। और ये पसंद बन रही है सोशल मीडिया से .

सोशल मीडिया पर भी इसी आयुवय के लोगो की भरमार है ट्विटर और फेसबुक के पेज शख्सियत केन्द्रित है न कि विचारधारा केन्द्रित। पार्टी ब्रांड से ज्यादा व्यक्ति पर आधारित है,

फेसबुक ट्विटर और व्हाट्सएप व्यक्तिगत व सामूहिक जासूसी का बड़ा माध्यम बन चुके हैं.

2024 के चुनाव मे वोट डालने वाले 18 से 22 की आयुवर्ग वाले युवा 30 फीसदी के आस पास होंने जा रहे हैं भारत में फेसबुक के 50 फीसदी से ज्यादा यूजर्स की उम्र 25 साल से कम है। ये यूवा ही इनका मेन टारगेट है

सोशल मीडिया बिग डेटा इकट्ठा करता है और इस बिग डेटा का विश्लेषण डाटा साइंस के जरिये किया जाता है विभिन्न तरह के डाटा की अंदरूनी जानकारियां रिकॉर्ड कर उन्हें अलग-अलग ट्रेंड, व्यवहार और बाजार के मूड के अनुसार अध्ययन किया जाता है।यदि हम कारपोरेट जगत का उदाहरण ले तो कौनसी कंपनी बाजार के अनुसार किस तरीके से काम कर रही है उस सभी डाटा को इकट्ठा किया जाता है और फिर इन जानकारियों को खास गणित की प्रणालियों के इस्तेमाल से इसके पैटर्न का अध्ययन किया जाता है।

ठीक यही काम अब चुनावी दल भी करते हैं .

डाटा एनालिसिस करने वाली कंपनियां फेसबुक डाटा के जरिए यूजर्स की प्रोफाइलिंग करती हैं। यूजर के पर्सनल डाटा को ध्यान में रखकर उसकी राजनीतिक पसंद, नापसंद को देखते हुए उससे जुड़ी हुई पोस्ट ही दिखाती हैं। लंबे समय तक ऐसी पोस्ट देखने से व्यक्ति का झुकाव किसी भी राजनीतिक पार्टी की तरफ हो जाता है

किसी भी नए यूजर की फेसबुक प्रोफाइल को डिकोड करने का एक फॉर्मैट है। इसके तहत प्रोफाइल बनाने के बाद उसके 10 पोस्ट शेयर, 100 पोस्ट लाइक और 20 पोस्ट का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है। साथ ही उसके नैटवर्क और ग्रुप का विश्लेषण किया जाता है। राजनीति से जुड़े पेज इन्हीं प्रोफाइल को देखकर बनाए जाते हैं और उन पर पोस्ट भी उसी अनुरूप में दिए जाते हैं।

कुछ साल पहले ब्रिटिश चैनल-4 ने केंब्रिज एनालिटिका के आधिकारियों का स्टिंग कर उनसे कबूलवाया था कि उनकी कम्पनी द्वारा डाटा की बड़े पैमाने पर चोरी की गई है। यह कंपनी दुनिया भर के राजनीतिक दलों के लिए चुनाव के दौरान सोशल मीडिया कैंपेन चलाती है। अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए यह फर्म हनी ट्रैप, फेक न्यूज जैसे गलत हथकंडे भी अपनाती है।

ऐसे ही एनिलिसिस से केंब्रिज एनेलेटिका और टीम जॉर्ज जेसे समुह अपनी अनुशंसा राजनीतिक दलों को देते हैं आपको याद होगा कि 2019 के चुनावों में ‘नमो टीवी’ अचानक से अस्तित्व में आया

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान 31 मार्च को यह चैनल सभी बड़े डीटीएच प्लेटफ़ॉर्म और केबल ऑपरेटरों के जरिये देशभर में अचानक से प्रसारित होने लगा, और मतदान ख़त्म होते ही ग़ायब हो गया था. न तो इसका कोई पंजीकरण था और न ही कोई इसका मालिक. हां, पहले दिन भाजपा ने सोशल मीडिया पर इसका ख़ूब प्रचार ज़रूर किया था. इसका नेटवर्क भाजपा के केंद्रीय दफ़्तर के नाम पर पंजीकृत ‘नमो एप’ पर भी था.

यानी हर तरफ के हथकंडे अपनाए जाते हैं.

हार्वर्ड के मनोवैज्ञानिक डैनियल गिल्बर्ट ने लिखा है, ‘लोगों में अक्सर किसी बात पर तुरंत विश्वास करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। साथ ही उनके लिए किसी चीज को शक के नजरिये से देखना भी मुश्किल होता है। वास्तव में विश्वास करना इतना आसान और अवश्यंभावी है कि लोग तर्कों पर कसने के बजाय स्वत: ही चीजें स्वीकार कर लेते हैं।’ गिल्बर्ट और उनके सहयोगियों ने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध किया है कि लोग अक्सर उन चीजों को पहली नजर में सही मान लेते हैं, जो वह पढ़ते हैं सुनते हैं.

सोशल मीडिया ही आज युवाओं के फर्स्ट इंफरमेशन का स्त्रोत है इसलिए ऐसे दौर में सेलेब्रिटी संस्कृति को प्रोत्साहित कर ये काम मास लेवल पर किया जाता है.

(गिरिश मालवीय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक वाल से साभार उधृत है ) 

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