नई दिल्ली। भारत की जनसंख्या गणना एक बार फिर अनिश्चितकाल के लिए टाल दी गई है। और 150 सालों में यह पहला मौका होगा जब जनसंख्या के आंकड़े समय पर नहीं आएंगे। आइए समझते हैं कि ऐसा क्यों है।
जनसंख्या गणना का काम पिछले साल पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1881 से लेकर अब तक, यहां तक कि युद्ध के दौरान भी जनसंख्या गणना को कभी नहीं टाला गया। इसका कारण यह है कि जनसंख्या गणना आंकड़े जमा करने का सबसे विशाल काम है। इससे न सिर्फ देश में रहने वाले लोगों की संख्या का पता चलता है, बल्कि उनकी शैक्षिक स्थिति, उनके घरों में मौजूद सामान, उनके रोजगार की हालत आदि के बारे में भी जानकारी मिलती है।
इस काम में देरी का अर्थ है कि न सिर्फ हमें ये सारे आंकड़े नहीं पता होंगे, बल्कि सरकार को भी अपनी नीतियां बनाने में दिक्कत होगी क्योंकि उसे लक्ष्य तय करने में कठिनाइ होगी।
मोदी सरकार का कहना है कि कोविड महामारी के चलते जनसंख्या गणना को टाला गया है। हालांकि, यह असली वजह नहीं है। इससे पहले हुए दो अन्य विशाल सर्वे को लेकर भी विवाद हुआ था। पहला था उपभोक्ता खर्च का सर्वे। इस सर्वे से पता चला था कि देश में उपभोक्ता खर्च में कमी आई है और लोग 2012 में भोजन आदि पर जितना खर्च कर रहे थे 2018 में उससे काफी कम कर रहे थे।
इस सर्वे के विस्तृत आंकड़े जब 2019 में एक अखबार ने प्रकाशित किए तो सरकार ने यह मानने से ही इनकार कर दिया कि सरकार ने अधिकृत तौर पर इन आंकड़ों को जारी किया है। हर पांच साल में होने वाले इस सर्वे से हमें यह भी पता चला कि देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की स्थिति क्या है। और अब 10 साल से इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है।
वित्त मंत्रालय के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णामूर्ति सुब्रहमण्यम ने सरकार से ये आंकड़े जारी करने का आग्रह किया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। स्थितियों को खराब बताने वाले आंकड़े से सरकार का मुंह मोड़ना खतरनाक है, खासतौर से तब जब सरकार ने खुद ही ऐसे सर्वे कराए हों। लेकिन मौजूदा सरकार के साथ तो ऐसा ही है।
साल 2019 में भी सामने आया था कि सरकार के बेरोजगारी पर 2018 के सर्वे से खुलासा हुआ था कि देश में बेरोजगारी की दर ऐतिहासिक 6 फीसदी पर पहुंच चुकी है। यह आजादी के बाद की सबसे बड़ी बेरोजगारी दर थी। इस सर्वे को भी एक अखबार ने प्रकाशित किया था और सरकार ने इसे भी झुठला दिया था।
नीति आयोग ने एक तरह का बयान जारी किया कि आंकड़ों में दिक्कत थी, लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सरकार ने इन्हीं आंकड़ों को बिना किसी बदलाव के जारी कर दिया था। इसके बाद से बेरोजगारी दर में कोई सुधार नहीं हुआ है और स्थिति बीते चार साल से लगभग वैसी ही बनी हुई है।
समस्या और गंभीर तब हो जाती है जब नागरिकता कानून के कारण सरकार पर बढ़े अविश्वास के चलते गणनाकारों को अपना काम करने में लोगों का सहयोग मिलने में कठिनाइयां हो सकती हैं। मोदी सरकार ने एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन) के पहले कदम के तौर पर एनपीआर (नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर) को जनगणना में जोड़ दिया है। इसका अर्थ है कि सरकार और निचले स्तर के अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार संदिग्ध नागरिक घोषित करने का अधिकार मिल जाता है। इससे लोगों को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है।
इस तरह यह प्रक्रिया एनआरसी से शुरु होकर फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल यानी विदेशी नागरिक प्राधिकरण से होते हुए डिटेंशन सेंटर (हिरासत केंद्र) पर रुकती है। इसके बाद क्या होगा, पूरे के पूरे परिवारों को जेल भेजा जाएगा, पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग रखा जाएगा, ऐसा सबकुछ हम असम में देख चुके हैं।
इस सबके मद्देनजर जनगणना करने वाले लोग, जोकि आमतौर पर निचले दर्जे के कर्मचारी, सरकारी स्कूल शिक्षक आदि होते हैं, जब जनगणना से संबंधित सवाल लोगों से पूछेंगे तो उन्हें लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है। भारत के पूर्व सांख्यिकीविद प्रणब सेन का कहना है कि, “स्थितियां ऐसी हो सकती हैं कि हम सही तरीके से जनगणना कर ही नहीं पाएं और अगर जनगणना सही तरीके से नहीं हो पाई तो अगले 10 साल के लिए हमारे पास देश के पारिवारिक आंकड़े नहीं होंगे। अगर ऐसा हुआ, जैसा कि आशंका है कि ऐसा ही होगा, तो अगले 11 साल हम काफी समस्याओं का सामना करेंगे।”
दूसरी समस्या और भी है। कुछ राज्यों ने कहा है कि वे अपने यहां इसे लागू नहीं करेंगे। केरल ने तो केंद्र को सूचित कर दिया है कि वह अपने यहां एनपीआर को लागू नहीं करेगा क्योंकि उसे इसके लागू होने से कानून-व्यवस्था बिगड़ने की आशंका है। केरल ने सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी हुई है।
मध्य प्रदेश ने भी पहले कहा है कि वह इसे लागू नहीं करेगा, महाराष्ट्र में भी इसका विरोध हो रहा है। पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने तो अपने नागरिकों से कह दिया है कि गणना करने आए लोगों का प्रतिरोध करें और उन्हें कोई कागज न दिखाएं। लेकिन ओडिशा और बिहार जैसे राज्यों ने कहा है कि वे एनपीआर को आंशिक रूप से अपने यहां लागू करेंगे। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि वे अपने नागरिकों को जेल नहीं जाने देंगे, इसके बदले सबसे पहले वे खुद जेल जाना पसंद करेंगे।
संघीय तौर पर देखें तो साफ है कि अगर कोई डेटा जमा भी किया जाता है तो वह अधूरा होगा और उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। संभवत: यही कारण है कि जनगणना के काम में देरी हो रही है। सरकार दरअसल विशाल जनविरोध के दूसरे दौर का सामना नहीं करना चाहती, लेकिन फिर भी एनपीआर-एनआरसी की बात करना भी नहीं छोड़ना चाहती।
अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि एनआरसी लागू नहीं होगा और जनगणना में एनपीआर को हटा दिया जाएगा, तो जनगणना शुरु हो जानी चाहिए थी। लेकिन वे ऐसा नहीं कहेंगे। एनआरसी लागू करने की कोशिश में सरकार पूरा जोर लगाने को तैयार है, हालांकि इसकी किसी भी बड़े वर्ग ने कोई मांग नहीं की है, जिसका विरोध न सिर्फ राजनीतिक तौर पर बल्कि विपक्षी दलों की राज्य सरकारों द्वारा भी किया जा रहा है., साथ ही इसके लागू होने पर ऐसा जनविरोध सामने आ सकता है जिसे हमने हाल के दिनों में नहीं देखा है।
दांव पर तो विश्वसनीय डेटा है जो एक दशक से सामने नहीं आया है। लेकिन ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था और भारतीयों की स्थिति पर कोई आंकड़े नहीं होने से सरकार को कोई दिक्कत नहीं है, खासतौर से तब जब उसे पता है कि आंकड़े कम से कम पॉजिटिव तो नहीं ही आने हैं।
यही कारण है कि हमने उस परंपरा को तोड़ दिया है जिसे हम 1881 से निरंतर निभाते रहे हैं, जिसके तहत हमें समय से जनगणना के आंकड़े और भारतीयों और भारत की असली स्थिति की जानकारी मिलती रही है।
(आकार पटेल एम्नेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष हैं। लेख में विचार उनके अपने हैं।)