नई दिल्ली। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जेडीयू का अध्यक्ष पद छोड़ दिया, जबकि उनका बतौर जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष दूसरे कार्यकाल का अभी सवा साल बाकी था।
नीतीश कुमार दूसरी बार अप्रैल 2019 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे, लेकिन उन्होंने अपने हनुमान रामचन्द्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) को यह जिम्मेदारी सौंप दी है।
नीतीश के इस कदम को राजनीतिक पंडित जदयू संगठन को दूसरे राज्यों में विस्तार और बिहार में मजबूती देने की रणनीति के तहत देख रहे हैं।
साल 2014 में जब लोकसभा चुनाव में जदयू को करारी हार का सामना करना पड़ा तो नीतीश ने नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को कुर्सी सौंप दी थी। और अब फिर उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ दिया है।
दरअसल बिहार इस बार के विधानसभा चुनाव में पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो फिर तरह- तरह की आशंकाएं उनके समर्थकों के मन में घर कर रही थी। इसके पीछे सच्चाई भी थी। नीतीश कुमार की खामोशी बहुत कुछ बयां कर रही थी।
नीतीश ने चुनाव परिणाम आने के बाद एनडीए नेताओं के साथ पहली बैठक में ही मुख्यमंत्री पद स्वीकार करने से मना कर दिया था। जदयू की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में उन्होंने दोहराया भी कि उन्हें सीएम बनने की तनिक भी इच्छा नहीं थी। उनसे पीएम ने बात की। वह चाहते थे कि भाजपा का कोई नेता सीएम बने। अब भी सीएम बने रहने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है।
हालांकि बिहार चुनाव में वह एनडीए के मुख्यमंत्री पद के घोषित चेहरा थे और गठबंधन को स्पष्ट बहुमत भी मिला। बावजूद इसके जदयू को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने की कसक उन्हें सालती रही।
मुख्यमंत्री का पद नीतीश कुमार ने भले ही भाजपा के अनुरोध पर स्वीकार कर लिया, लेकिन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद उन्होंने अंतत: छोड़ दिया है।
बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद से नीतीश कुमार लगातार पार्टी नेताओं, पराजित उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं से फीडबैक् लेते रहे। इस बार के विधानसभा चुनाव में जदूय को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने के पीछे सियासी प्रपंच को भी बड़ा कारण माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव में एनडीए और खासकर जदयू का प्रदर्शन शानदार रहा था। उसने 17 में 16 सीटों पर जीत हासिल की।
वैसे भी नीतीश कुमार के लिए सीएम और और राष्ट्रीय अध्यक्ष की दोहरी जिम्मेदारी निभाना चुनौतीपूर्ण था। पार्टी का दूसरे प्रदेशों में विस्तार और राज्य के अंदर दूसरी पीढ़ी तैयार करने की चुनौती भी कम बड़ी नहीं है। पार्टी के अंदर जोश भरना जरूरी है। इसके लिए एक स्वतंत्र अध्यक्ष की आवश्यकता नीतीश कुमार ने महसूस की।
नीतीश कुमार शुरू से जदयू के चेहरा और नेता रहे हैं, लेकिन जदयू की स्थापना काल दिसंबर 2003 से अप्रैल 2006 तक जॉर्ज फर्णांडिस, 2006 से अप्रैल 2016 तक शरद यादव और इसके बाद से नीतीश कुमार जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे।
मालूम हो कि अध्यक्ष की जिम्मेदारी से मुक्त रहते नीतीश कुमार ने पार्टी को ऊंचाइयों तक पहुंचाने में सबसे अच्छा योगदान किया है। दोहरी जिम्मेदारी होने की वजह से वह पार्टी को अपेक्षित समय नहीं दे पा रहे थे।
पार्टी अध्यक्ष का पद छोडऩे के बाद उन्होंने कहा है कि वह दूसरे राज्यों में भी पार्टी को मजबूत करने में समय देंगे।
नीतीश ने पार्टी की जिम्मेदारी आरसीपी सिंह को सौंपी है। वह आईएएस अधिकारी रहे हैं। वह नीतीश के केन्द्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री पद पर रहते उनके साथ सचिव और प्रधान सचिव रहे।
आरसीपी सिंह ने 2010 में ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर उन्होंने राजनीति में कदम रखा। जदयू कोटे से राज्यसभा सदस्य बने। इसके बाद से उन्होंने संगठन के लिए अपने को समर्पित कर दिया।
उन्होंने पूरे बिहार का दौरा किया। प्रखंड और जिला सम्मेलनों का आयोजन कर पार्टी के संगठन को मजबूत किया। वह कार्यकर्ताओं को सशक्त करने के हिमायती रहे हैं। कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भी उन्होंने कई बार आयोजित कराया है।
उनके अलावा संगठन को मजबूत करने और जदयू को काडर पार्टी बनाने के लक्ष्य को हासिल करने में पार्टी के किसी अन्य नेता ने कभी इतनी दिलचस्पी नहीं ली। वह नीतीश कुमार के सबसे भरोसेमंद सहयोगी भी रहे हैं।
संगठन में उनकी दिलचस्पी को देखते हुए ही शायद नीतीश कुमार ने उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी के लिए चुना है। वैसे भाजपा में भी जदयू के नेताओं में आरसीपी सिंह सबसे अधिक पसंद किए जाते हैं। वह एक कुशल रणनीतिकार के अलावा बेहतर समन्वय के लिए भी जाने जाते हैं।