सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के अधिकार से जुड़ी याचिका में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। सीधे तौर पर भारत के संघवाद से जुड़े इस मामले के केन्द्र में हैं तमिलनाडु के राज्यपाल रविंद्र नारायण रवि। 2021 में तमिलनाडु के राज्यपाल बनने के बाद से ही रवि की राज्य सरकार के साथ ठनी हुई है। राज्य सरकार ने उन पर राज्यपाल के तौर पर अपने ‘अधिकारों का अतिक्रमण’ करने और निहित राजनीतिक स्वार्थ में काम करने के आरोप लगाए हैं। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन से लेकर उनके कैबिनेट सहयोगियों तक ने रवि के खिलाफ बार-बार शिकायतें की हैं। हाल ही में राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर राज्यपाल को वापस बुलाने की मांग की।
इस मामले में भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी की जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन के साथ तीखी बहस हुई। खंडपीठ ने विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल के फैसला न लेने पर आपत्ति जताई क्योंकि राज्यपाल रवि ने न तो उन्हें मंजूरी दी और न ही उन्हें पुनर्विचार के लिए सरकार को वापस भेजा। तमिलनाडु ने तर्क दिया कि विधेयकों को अनिश्चित काल तक मंजूरी न देकर राज्यपाल राज्य को ‘बंधक’ बना रहे हैं। न्यायाधीशों ने इस पर व्यंग्य भी किया कि लगता है कि राज्यपाल ने ‘अपनी खुद की प्रक्रिया तैयार कर रखी है।’
न्यायमूर्ति पारदीवाला ने पूछा, ‘विधेयकों में आखिर ऐसी कौन सी बात है जिसका पता लगाने में राज्यपाल को तीन साल लग गए?’ उन्होंने कहा- वह (राज्यपाल) कहते हैं, ‘मैं स्वीकृति रोक रहा हूं लेकिन मैं आपसे विधेयक पर पुनर्विचार के लिए नहीं कहूंगा’… स्वीकृति रोके रखना और विधानमंडल को न भेजने से अनुच्छेद 200 के शर्तें निरर्थक हो जाती हैं।… आपको हमें तथ्यों के साथ यह दिखाने की जरूरत है कि राज्यपाल ने मंजूरी क्यों रोकी। या तो आप हमें कुछ मूल फाइलें दिखाएं, या कुछ अन्य दस्तावेज, राज्यपाल के कार्यालय में उपलब्ध कुछ समकालीन रिकॉर्ड कि किस पर विचार किया गया, इनमें क्या कमियां थीं…।’
यह बताता है कि राज्यपाल किस तरह सीधे राजनीति में शामिल हो गए हैं। वह अदालत के फैसले की भी अनदेखी कर रहे हैं। यहां तक कि 21 मार्च 2024 को मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने भी टिप्पणी की कि राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट की बातों को नहीं मान रहे और अगर राज्यपाल संविधान की अवहेलना करेंगे तो राज्य सरकार क्या करेगी? सीजेआई की टिप्पणी डीएमके मंत्री के. पोनमुडी को शपथ दिलाने से रवि के इनकार पर राज्य सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए आई थी। पोनमुडी को भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषी ठहराया गया था लेकिन बाद में उन्हें बरी कर दिया गया था; रवि ने तर्क दिया कि यह संवैधानिक नैतिकता के खिलाफ है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद रवि को झुकना पड़ा।
संविधान का अनुच्छेद 163 इस बात का प्रावधान करता है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करें लेकिन 2014 में केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से स्थितियां ड्रामाई तरीके से बदल गईं। हर हाल में जीतने की राजनीति से प्रेरित केन्द्र सरकार ने विपक्ष शासित राज्य सरकारों की नींद हराम करने के इरादे से राज्यपालों की नियुक्तियां कीं। ममता बनर्जी शासित बंगाल में जगदीप धनखड़ और फिर सीवी आनंद बोस, केरल में आरिफ मोहम्मद खान और तमिलनाडु में आरएन रवि इसी तरह के उदाहरण हैं। इस प्रवृत्ति पर पूर्व कांग्रेस नेता और पूर्व राज्यपाल मार्ग्रेट अल्वा ने करीब एक साल पहले लिखा भी, ‘… भाजपा सरकार ने राज्यपालों को संवैधानिक हिटमैन बनाकर रख दिया है।’
बाबा साहब आम्बेडकर और संविधान सभा ने राज्यपाल को एक ऐसे संवैधानिक अभिभावक के तौर पर देखा था जो राज्य कैबिनेट की सलाह से बंधा था लेकिन उस दौर में भी इस मामले में भ्रम था। कई लोगों ने इसे अंग्रेजों के समय वाले ‘गवर्नर’ के तौर पर लिया। एचवी कामथ ने राज्यपाल और मुख्यमंत्री की भूमिकाओं के बारे में संदेह जताया लेकिन तब इसे ठीक तरह से सुना नहीं गया। ऐसा लगता है कि संविधान निर्माता उस स्थिति के बारे में नहीं सोच सके कि अगर राज्यपाल अनुच्छेद 163 के दायरे से बाहर जाकर काम करने लगे तो क्या हो। तमिलनाडु के ताजा मामले या ऐसे किसी भी अन्य विवाद की स्थिति में जिसे नुकसान होता है,वह है संघवाद।
अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपालों को मिले विशेषाधिकारों को लेकर संविधान बिल्कुल स्पषट है। कोई राज्यपाल इनका इस्तेमाल अपवाद की स्थिति में ही कर सकता है जब राज्य की मशीनरी बिल्कुल ध्वस्त हो गई हो। यही बात 1968 के प्रशासनिक सुधार आयोग और 1988 के सरकारिया आयोग समेत स्वतंत्र आयोगों और सुप्रीम कोर्ट ने भी विभिन्न मौकों पर स्पष्ट की है।
अब बदले राजनीतिक माहौल में राज्यपाल न केवल तरह-तरह से विपक्ष शासित राज्यों में सत्तापक्ष के लिए मुश्किलें खड़ी करते हैं जैसा चंद सालों के दौरान बंगाल, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक और दिल्ली वगैरह में देखने को मिला बल्कि कई राज्यों में मुख्यमंत्री बनाने में भी संदिग्ध भूमिका निभा रहे हैं जैसा गोवा, बिहार और मणिपुर (2017), कर्नाटक (2018) और महाराष्ट्र (2019) के उदाहरणों से साफ है। इसी के साथ राज्य के विश्वविद्यालयों के चांसलर के तौर पर भी वे शैक्षिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहे हैं।
तमिलनाडु के राज्यपाल से जुड़ा सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा मामला पूरे देश के लिहाज से बेहद अहम है। इसका फैसला अन्य राज्य सरकारों द्वारा दायर ऐसे तमाम मामलों के लिए मिसाल का काम करेगा और भारतीय संघवाद और लोकतंत्र इसी पर टिका है।
इस लेख के लेखक शिवकुमार एस हैं।