तालिबान के लिए पाकिस्तान 3 वजहों से करता रहा अमेरिका से दगा, अब यही हुकूमत…

काबुल। अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हो गई है। इसी के साथ अफगानिस्तान में बीस साल पहले शुरू हुआ अमेरिका का युद्ध भी समाप्त हो गया। अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी को पाकिस्तान अपनी जीत की तरह पेश कर रहा है। इसके संकेत इन तीन खबरों से मिलते हैं…

खबर-1: तालिबान के काबुल पर कब्जा जमाने के बाद पाकिस्तान की राजधानी की एक केंद्रीय मस्जिद के ऊपर तालिबान का झंडा लहरा रहा था।

खबर-2: तालिबान के काबुल पर कब्जा जमाने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने घोषणा करते हुए कहा कि अफगानिस्तान गुलामी की जंजीरें तोड़ रहा है।

खबर-3: पाकिस्‍तान के राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने पश्चिम देशों को धमकी दी है कि अगर तालिबान को मान्‍यता नहीं दी गई तो उन्‍हें एक और 9/11 का सामना करना होगा।

ऐसे में सवाल उठता है कि अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे का पाकिस्तान जश्न क्यों मना रहा है? अफगान वार में सार्वजनिक रूप से अमेरिका के साथ खड़े पाकिस्तान ने अंदरखाने तालिबान की क्या-क्या मदद की? तालिबानी हुकूमत पाकिस्तान के जी का जंजाल कैसे बन सकती है? आइए, एक-एक करके समझते हैं…

तालिबानी हुकूमत पर पाकिस्तान के खुश होने की 3 वजहें

  1. 1947 में इस्लाम के आधार पर पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। 1971 में सिविल वार हुआ और ईस्ट पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश बन गया। पाकिस्तान को पश्तो बहुल बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा को लेकर भी यही चिंता है। इसलिए वहां मदरसों के जरिए कट्टरपंथी इस्लाम को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिससे इस्लाम नेशनलिज्म के आगे पश्तून नेशनलिज्म फीका पड़ जाए। ज्यादातर तालिबानी नेता इन्हीं मदरसों से निकले हैं। इसलिए पाकिस्तान के वैचारिक हित तालिबान के जरिए पूरे हो सकते हैं।
  2. 1947 के बाद से ही अफगान सरकार ने डूरंड लाइन को मानने से इनकार कर दिया। डूरंड लाइन पाकिस्तान के पश्तून बहुल इलाकों को अफगानिस्तान से अलग करती है। अफगानिस्तान इसे पश्तूनिस्तान मानता है। पाकिस्तान का मानना है कि तालिबानी हुकूमत आने से उनके डूरंड लाइन का मसला हल हो सकता है।
  3. अफगानिस्तान की अशरफ गनी सरकार के भारत से अच्छे संबंध रहे हैं। इससे पाकिस्तान पर भारत को कूटनीतिक बढ़त हासिल थी। भारत को काउंटर करने के लिए अब पाकिस्तान तालिबानी हुकूमत की मदद ले सकता है।

हथियार, ट्रेनिंग, पनाह, पासपोर्ट और बिजनेस के जरिए तालिबान की मदद

अमेरिका जिस तालिबान से लड़ रहा था, उसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने ही बनाया था। बाद में भी ISI ने तालिबान को पैसा, ट्रेनिंग और हथियार देना जारी रखा। हक्कानी नेटवर्क से भी ISI के गहरे रिश्ते हैं, जो तालिबान के लिए काम करता है।

CIA के एक पूर्व एंटी टेररिस्ट हेड डगलस लंदन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि पाकिस्तानी सेना के प्रमुख कमर जावेद बाजवा और ISI के प्रमुख हमीद फैज हक्कानी से अकसर मिलते रहते थे। लंदन ने बताया, ‘जब अमेरिका खलील हक्कानी और दो अन्य हक्कानी नेताओं को सौंपने के लिए बाजवा पर दबाव डालता था, तो हर समय बाजवा कहते थे कि हमें नहीं पता वो कहां हैं?’ जबकि हक्कानी परिवार लंबे समय से अफगान सीमा से सटे पाकिस्तान के इलाके में रह रहा है।

पाकिस्तान ने अंदरखाने तालिबान की कई तरह से मदद की। पाकिस्तान के बॉर्डर वाले इलाकों में खास तौर से क्वेटा शहर में, तालिबान लड़ाकों और उनके परिवारों को पनाह दी। तालिबान के घायल लड़ाकों का पेशावर और कराची के अस्पतालों में इलाज तक कराया। हक्कानियों के लिए पाकिस्तान में रियल एस्टेट, तस्करी और अन्य बिजनेस को चलाने का मौका दिया जिससे उसकी वार मशीन चलती रहे।

ISI ने तालिबान का इंटरनेशनल स्टेटस बढ़ाने में भी मदद की। तालिबान नेता अब्दुल गनी बरादर ने दोहा, कतर में शांति वार्ता में भाग लेने के लिए और विदेश मंत्री वांग यी के साथ चीन के तियानजिन में मिलने के लिए पाकिस्तानी पासपोर्ट पर यात्रा की। डगलस लंदन का कहना है कि बिना पाकिस्तान की मदद के तालिबान वहां नहीं हो सकता था जहां इस वक्त है।

अमेरिका इसलिए सहता रहा पाकिस्तान का दोहरा रवैया

युद्ध के दौरान अमेरिकियों ने पाकिस्तान के दोहरे खेल को सहन किया क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था। पाकिस्तान के पोर्ट और एयरपोर्ट्स ने अमेरिकी सैन्य उपकरणों के लिए एक एंट्री पॉइंट और सप्लाई लाइन मुहैया कराई। एक अमेरिकी अधिकारी के मुताबिक पाकिस्तान एक तरफ अमेरिका की मदद कर रहा था और दूसरी तरफ जंग के दौरान तालिबानियों को प्लानिंग, ट्रेनिंग और ग्राउंड सपोर्ट मुहैया करा रहा था। हालांकि पाकिस्तान को अमेरिका का सहयोगी माना जाता था, लेकिन उसने हमेशा अपने हितों के लिए काम किया।

तालिबानी हुकूमत कैसे बन सकती है पाकिस्तान की मुसीबत?

  • संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की पूर्व राजदूत मलीहा लोदी ने डॉन अखबार में लिखा है, ‘युद्ध से तबाह देश पर शासन करना तालिबान की असली परीक्षा होगी। वो युद्ध में माहिर है, शासन करने में नहीं। ऐसे में वो दूसरे देशों की कितनी बात मानता है, इस पर शक है।’
  • पाकिस्तान ने डूरंड लाइन को प्रभावी बनाने के लिए लाखों डॉलर खर्च किए हैं, लेकिन तालिबान ने अभी तक इस पर स्थिति साफ नहीं की है। इसके उलट तालिबान ने पाकिस्तान के दुश्मन तहरीक-ए-तालिबान से नजदीकी बढ़ाई है। तहरीक-ए-तालिबान सैकड़ों पाकिस्तानी नागरिकों की मौत का जिम्मेदार है।
  • अगर अफगानिस्तान गृह युद्ध की तरफ बढ़ता है तो पाकिस्तान में शरणार्थियों की बाढ़ आ सकती है। 2020 के एक अनुमान के मुताबिक पाकिस्तान में करीब 14 लाख अफगान रिफ्यूजी रहते हैं।
  • पश्चिमी देशों में पाकिस्तान की प्रतिष्ठा पहले से ही कमजोर है। पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाने की मांग चल रही है। ऐसे में अगर पाकिस्तान पर वित्तीय प्रतिबंध लग जाते हैं तो उसकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

पाकिस्तान में CIA के पूर्व स्टेशन प्रमुख रॉबर्ट ग्रेनियर के मुताबिक, ‘पाकिस्तान और ISI सोचते हैं कि वे अफगानिस्तान में जीत गए हैं, लेकिन उन्हें देखना चाहिए कि वो चाहते क्या हैं?’ ऐसे में पाकिस्तान के लिए सवाल यह है कि वे उस टूटे हुए देश का क्या करेंगे जो पिछले 20 साल में उसके किए गए प्रयासों का ईनाम है?

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