नई दिल्ली। अब इसे ‘सेल्फ गोल’ कहें या ‘फिक्सिंग’, सच यही है कि भारतीय फुटबॉल का नुकसान हो चुका है। फीफा ने ‘तीसरे पक्ष द्वारा अनुचित प्रभाव’ का आरोप लगाकर भारत को निलंबित कर दिया, यानी भारत अब न सिर्फ अंडर-17 महिला विश्व कप की मेजबानी से वंचित रहेगा बल्कि निलंबन हटने तक भारतीय फुटबाल टीम किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में भी भाग नहीं ले सकेगी।
अब सरकार और प्रशासकों की कमेटी (सीओए) फीफा से निलंबन हटाने और अंडर-17 महिला विश्व कप की मेजबानी की अनुमति देने पर बात कर रही है।
अटार्नी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से इस आधार पर 22 अगस्त तक सुनवाई टालने का अनुरोध किया है कि फीफा के साथ बीच का रास्ता निकालने पर बात जारी है। कोर्ट ने अनुरोध मानते हुए सरकार से ‘अंडर-17’ आयोजन की तैयारी जारी रखने को कहा है। पूरे प्रकरण से दुःखी दिल्ली फुटबाल क्लब के कर्ताधर्ता रंजीत बजाज कहते हैं: “यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि मामले की सुनवाई सोमवार तक के लिए टल गई है, यानी तब तक हमारी सासें अटकी रहेंगी।”
निलंबन ऐसे वक्त में भारतीय फुटबॉल के लिए बड़ा झटका है जब खराब ‘फीफा रैंकिंग’ के बावजूद यह हमारा मुख्य खेल बनने के संकेत दे रहा था। भारत को 11 से 30 अक्तूबर तक महिला अंडर-17 फीफा टूर्नामेंट की मेजबानी करनी है। ऐसे में मेजबानी के लिए पूरी तरह तैयार खेल मंत्रालय अब निलंबन हटवाने की मशक्कत में उलझा हुआ है।
फीफा काउंसिल के ब्यूरो ने 15 अगस्त को तत्काल प्रभाव वाले इस निलंबन की घोषणा की और इसे हटाने की शर्तें भी बताईं। कहा कि इन शर्तों के पूरा होने और उनसे सहमत होने के बाद ही बात आगे बढ़ेगी।
फीफा ने यह भी साफ किया कि ‘एआईएफएफ को फीफा और एएफसी की जरूरतों के अनुरूप संशोधित किया जाना है और इसे बिना किसी तीसरे हस्तक्षेप के एआईएफएफ महासभा से अनुमोदित होना है।’ यहां तीसरे पक्ष से आशय कोर्ट से है। हालांकि फीफा एआईएफएफ का मातृ संगठन है लेकिन हर देश को सिस्टम दुरुस्त करने और इसे पारदर्शी बनाने का अधिकार है।
इसके अध्यक्ष का चुनाव दिसंबर, 2020 में होना था लेकिन पूर्व अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल 18 मई, 2022 तक इस पद पर बने रहे। यह तो सुप्रीम कोर्ट था जिसने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया और न्यायमूर्ति अनिल दवे की अध्यक्षता में पूर्व निर्वाचन आयुक्त एस वाई कुरैशी और पूर्व भारतीय कप्तान भास्कर गागुंली के साथ तीन सदस्यीय प्रशासकीय कमेटी (सीओए) बना दी।
कमेटी को न सिर्फ एआईएफएफ के रोजमर्रा के मामलों को देखने बल्कि राष्ट्रीय खेल संहिता और दिशानिर्देशों के अनुरूप इसका संविधान तैयार करने का दायित्व भी सौंपा गया। सीओए ने विभिन्न राज्य संगठनों और अन्य हितधारकों से बात करने के बाद 36 राज्य संघों के प्रतिनिधियों और भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके और दो साल पूर्व रिटायर होने वाले 36 प्रख्यात फुटबाल खिलाड़ियों को नई कार्यकारी समिति के लिए वोट देने को अधिकृत करने की सिफारिश की।
यहां तक तो सबकुछ ठीकठाक था और खेल प्रेमी भी खुश थे लेकिन 36 नामी फुटबॉलरों को वोटिंग मिलने की बात से वे लोग परेशान हो गए जिनकी नजरें अध्यक्ष पद पर थीं। यहीं पर प्रफुल्ल पटेल को राजनीति का मौका मिल गया। प्रफुल्ल विरोधी कुछ राज्य संघों में पाला बदल हुआ और रिव्यू पिटिशन की तैयारी हो गई। यह निलंबन किसी एक की राजनीति नहीं, कुछ व्यक्तियों की ‘सत्ता लिप्सा’ का नतीजा है जिसने हमें शर्मसार किया है।
फुटबॉल सबसे ज्यादा खेला, पसंद किया जाने वाला और देखा जाने वाला खेल है। भारत में इसकी असीम संभावनाएं हैं। दुनिया भारत की ओर देख रही है और खेल से जुड़ा हर इंसान जानता है कि फुटबाल महासंघ बीसीसीआई से किसी भी मायने में कम धनी नहीं है। 35 राज्य संघों की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी पर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की टिप्पणी से साफ है कि वह इस प्रकरण में उनके हस्तक्षेप से संतुष्ट नहीं हैं।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा: “आपको तय करना होगा कि देश में टूर्नामेंट चाहती हैं या नहीं। यदि नहीं, तो आप हर तरह से कोर्ट की हर पहल को रोकने की कोशिश करें। चाहती हैं कि टूर्नामेंट हो और आप इसे गंवाना नहीं चाहतीं तो अपने क्लाइंट्स को कोर्ट के साथ ईमानदार बने रहने को कहें। अदालत के आदेश में हस्तक्षेप के लिए पिछले दरवाजे वाले तरीके हमें पसंद नहीं।”
आखिर जस्टिस चंद्रचूड़ को ऐसी सख्त टिप्पणी क्यों करनी पड़ी? वजह साफ थी- जो लोग प्रफुल्ल पटेल को हटाना चाह रहे थे, उन्हीं से गलबहियां करते दिखे, और वह भी फुटबाल नहीं, अपने निजी स्वार्थ के लिए। ऐसे लोगों ने एक ऑनलाइन बैठक कर अदालती आदेश के खिलाफ समीक्षा याचिका का भी फैसला किया जिसमें प्रफुल्ल पटेल भी मौजूद थे।
ऐसा पहली बार हुआ जब फीफा ने 85 साल पुरानी एआईएफएफ को प्रतिबंधित किया। सब जानते हैं कि इस सब के पीछे प्रफुल्ल पटेल हैं जो 12 साल तक इसके अध्यक्ष बने रहे। यह उनका फुटबॉल प्रेम नहीं था कि वे राज्य संघों की बैठक में शामिल हुए। इसके पीछ क्या था, किसी से छुपा नहीं है!
सुप्रीम कोर्ट और सीओए व्यवस्था को पारदर्शी बनाना चहते थे और इसीलिए उन्होंने नामी फुटबॉलरों को राज्य संघों के बराबर प्रतिनिधित्व देने की सिफारिश की थी। यह सिफारिश 36 नामी फुटबॉलरों में 24 पुरुष और 12 महिलाओं को वोट का अधिकार देती है। यही विवाद की जड़ बना। फीफा की आपत्ति पर सरकार और सीओए इसे हटाने पर राजी भी हो गए लेकिन इसी से फीफा और अन्य लोगों को झंडा बुलंद करने का अवसर मिला गया।
पूर्व खिलाड़ी सतिंदर सिंह बिष्ट कहते हैं: “नामी फुटबॉलर अच्छे प्रशासक भले न हो सकते हों, वे खेल को अंदर और बाहर से अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए उनका प्रतिनिधित्व वाजिब था। प्रशासन के लिए तो हमारे पास राज्य संघों का प्रतिनिधित्व है ही।”
हालांकि सीओए ने आश्वस्त किया कि उसने चुनाव के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुरूप ही प्रतिष्ठित चुनाव अधिकारियों की देखरेख में व्यवस्थाएं की हैं। लेकिन देखना होगा कि क्या फीफा इस निलंबन को रद्द करता है? क्या खेल मंत्रालय फीफा को मनाने में सक्षम रहा? क्या चुनाव निष्पक्ष तरीके से हो सकेंगे? इनके जवाब अगले कुछ दिनों में मिलने हैं।
भारत में सचिन तेंदुलकर भगवान हैं और क्रिकेट धर्म। अब यह जल्द ही अतीत की बात हो सकती है क्योंकि फुटबॉल गोलपोस्ट पर सही शॉट ले रहा है। लेकिन यह प्रतिबंध इस राह की बाधा बनकर आया है। हाल में खबरें आईं कि विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी फुटबॉलर पॉल पोग्बबा के भाई फलोरेंटीन पोग्बबा ने भारतीय फुटबॉल क्लब- एटीके मोहन बागान के साथ अनुबंध किया है।
दिल्ली के पूर्व खिलाड़ी इसलिए भी नाराज हैं कि यह खबर भारतीय फुटबॉल के भविष्य के प्रति उम्मीद जगाने को पर्याप्त थी लेकिन निलंबन ने इस बड़ी संभावना पर पानी फेर दिया। वैसे, यह सही समय है कि खेल मंत्रालय खेल संस्कृति में सुधार के लिए हिम्मत से आगे आए। इसके लिए उसे खेल संघों को और ज्यादा पारदर्शी बनाने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास ही तो करना होगा।