दुर्घटना कहें तो बेहतर होगा, दोनों मध्यम मार्ग पर सहमत हों

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इसबार का गणतंत्र-दिवस गनतंत्र-दिवस न बन जाए, इसकी आशंका मैंने पहले ही व्यक्त की थी। मुझे खुशी है कि किसानों के प्रदर्शनों में किसी ने भी बंदूके नहीं चलाईं। न तो किसानों ने और न ही पुलिसवालों ने! लेकिन बंदूकें चलने से भी अधिक गंभीर घटना हो गई। उसे दुर्घटना कहें तो बेहतर होगा।
ऐसी दुर्घटना किसी भी राष्ट्र के इतिहास में कभी घटी हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है। क्या कोई भी राष्ट्र अपने लालकिले या राष्ट्रपति भवन या संसद भवन या प्रधानमंत्री कार्यालय पर किसी संप्रदाय के ध्वज को फहरा सकता है? हर संप्रदाय का ध्वज सम्मान के योग्य है लेकिन लाल किले पर उसका फहर जाना तो दुस्साहस की पराकाष्ठा है। यह राष्ट्र-ध्वज का अपमान है। यह राष्ट्र का अपमान है।
ऐसी घटनाएं तभी घटती हैं, जब दुनिया के देशों में सरकारों का खूनी तख्ता-पलट होता है। यहाँ किसी का खून बहना तो दूर, बाल भी बांका नहीं हुआ। लाल किले का इतना मजबूत दरवाजा, जिसे पागल हाथी भी नहीं तोड़ सकते, उसे लांघकर उपद्रवी अंदर घुस जाएं, सैकड़ों की संख्या में मंच पर चढ़ जाएं और पुलिस असहाय निरुपाय खड़ी रहे, क्या ऐसी अनहोनी पहले कभी हुई है?
खंभों और गुंबजों पर चढ़ते वक्त उन उपद्रवियों को पुलिस ने रोका क्यों नहीं? पुलिस अगर उनके विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई करती तो भी पूरा देश उसका समर्थन करता लेकिन पुलिस की इस अकर्मण्यता के पीछे कई लोग अब सरकार का ही हाथ बता रहे हैं। दिल्ली की सीमाओं पर आक्रामक किसानों के साथ पुलिस के लचर-पचर व्यवहार को भी इस सरकारी साजिश का अंग बताया जा रहा है। लगभग सौ पुलिसवाले बुरी तरह से घायल होकर अस्पताल में पड़े हैं।
किसान नेता प्रदर्शनकारियों के कुकृत्य की कितनी ही भर्त्सना करें, लेकिन अब इस आंदोलन के माथे पर काला टीका लग गया है। मैंने इस अहिंसक आंदोलन को दुनिया का अपूर्व आंदोलन कहा था लेकिन इसका असली चरित्र अब उजागर हो गया है। यह नेताविहीन तो है ही, यह दिशाविहीन भी है। इसका अब बिखरना और टूटना अवश्यंभावी है। ज़रा सोचें कि दिल्ली के अलावा अन्य 20 शहरों में हुए किसानों के प्रदर्शन इतने शांतिपूर्ण कैसे हुए? क्योंकि इनके पीछे पार्टियां थीं और नेता थे।
जाहिर है कि अब एक फरवरी को संसद पर किसान-प्रदर्शन असंभव होगा। सरकार और किसान, दोनों अपना-अपना दुराग्रह छोड़ें। वापसी की रट न लगाएं। न किसानों की और न ही कानूनों की वापसी हो। दोनों मध्यम मार्ग पर सहमत हों। इन कानूनों को जो राज्य मानना चाहें, वे मानें, जो न मानना चाहें, वे न मानें।
(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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