डॉ. मोक्षराज
कोरोना वायरस, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इबोला, वेस्ट नाइल, सार, निपाह, जीका या कोई त्वचा रोग भी यदि है तो उस संक्रामक रोग को एक सीमा तक फैलने से रोकने के लिए अभिवादन का ढंग भी वैज्ञानिक व युक्तिसंगत होना चाहिए। एक ऐसा अभिवादन प्रकार, जिसमें किसी मत-संप्रदाय आदि की गंध व संकुचित भावों का कोई स्थान न हो। जिसका प्रयोग सभी स्थानों पर और सदैव सबके लिए किया जा सके। शुद्ध वातावरण व उत्तम स्वास्थ्य की अवस्था में गले मिलना, माथा या हाथ चूमना, चरण स्पर्श करना प्रेम व श्रद्धा को प्रकट करने हेतु उचित हो सकते हैं किंतु सभी परिस्थितियों में हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करने की मुद्रा सर्वाधिक निरापद व श्रेष्ठ है।
‘नमस्ते’ ही प्रमुख अभिवादन था
वैदिक काल अर्थात् करोड़ों वर्ष से ऋषि-मुनि व समस्त आर्य नर-नारी अभिवादन के लिए हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करने की रीति को अपनाये हुए थे। वेद, ब्राह्मणग्रन्थ, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि आर्ष ग्रन्थों एवं पुराण आदि में भी ‘नमस्ते’ का ही उल्लेख मिलता है। आर्यों की मूल परंपरा के अनुसार वेदों को 1,96,08,53,120 वर्ष हो रहे हैं, तब से ही ‘नमस्ते’ का चलन रहा है। किन्तु पिछले 400-500 वर्षों में अनेक संप्रदायों व संस्थाओं ने अपने-अपने मठाधीश गुरुओं को प्रसन्न करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिवादन शब्द गढ़ लिए हैं। अपने इष्ट का स्मरण करना या उसकी जय बोलना पृथक विषय है लेकिन अभिवादन के लिए तो सर्वजनीन शब्द होना ही चाहिए। उसके लिए ‘नमस्ते’ से बढ़कर दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। प्रत्यक्ष अभिवादन के लिए ‘नमस्ते’ ही करना चाहिए। नमस्ते के भाव की पूर्णता नमस्कार शब्द में कदापि संभव नहीं है। अत: मित्र-शत्रु, सज्जन-दुर्जन, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सबको ‘नमस्ते’ कहने की वैदिक परंपरा है। वस्तुतः ‘नमस्ते’ एक शब्दमात्र नहीं बल्कि यह पूर्ण वाक्य है। ’नम:+ते ‘ अर्थात् मैं आपका मान्य करता हूँ, मैं आपको नमन करता हूँ, मैं आपके हृदय में विद्यमान दिव्य आत्म तत्त्व के प्रति नतमस्तक हूँ।
वैदिक ग्रंथों में ‘नमस्ते’ का प्रयोग
वेदों में ‘नमस्ते’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । जैसे कि ‘शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मा मा हिंसी:’ तथा यजुर्वेद का 16 वाँ अध्याय तो नमस्ते पद से ही आरंभ होता है -‘नमस्ते रुद्र मन्यव।’ शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मवादिनी गार्गी महर्षि याज्ञवल्क्य को ‘नमस्ते याज्ञवल्क्याय’ कहकर संबोधित करती हैं। कठोपनिषद् में भी यमाचार्य अपने अतिथि नचिकेता को ‘नमस्ते ब्रह्मन् ! स्वस्ति…’ कहते हैं। वाल्मीकि रामायण में महर्षि वशिष्ठ विश्वामित्र ऋषि को ‘नमस्तेऽस्तु गमिष्यामि मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा’ कहकर अपने मित्रभाव को व्यक्त करते हैं। महाभारत में गान्धार देश के रहने वाले दुर्योधन के मामा शकुनी, युधिष्ठिर से ‘नमस्ते भरतर्षभ’ कहते हैं तथा राजा युधिष्ठिर भी श्रीकृष्ण जी को ‘नमस्ते पुंडरीकाक्ष’ बोलकर अपने मनोभाव व्यक्त करते हैं। इसी प्रकार परवर्ती पौराणिक ग्रन्थों में भी अनेक संदर्भों में ‘नमस्ते’ का ही प्रयोग मिलता है। गरुड़ पुराण में 56 बार, देवी भागवत पुराण में 66 बार, ब्रह्माण्ड पुराण में 95 बार, कूर्म पुराण में 99 बार, शिव पुराण में 148 बार अभिवादन के रूप में नमस्ते का ही प्रयोग किया गया है।
आर्य समाज द्वारा ‘नमस्ते’ का प्रचार
‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा देने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती ने प्राचीन परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए सत्यार्थ प्रकाश लिखा था, जिसके अंतिम भाग में उल्लेखित स्वमंतव्यामतव्य प्रकाश में उन्होंने ‘नमस्ते’ को ही सबके अभिवादन के लिए प्रसिद्ध किया। महर्षि दयानंद सरस्वती ने सन् 1875 से प्रत्येक आर्य समाज में ‘नमस्ते’ के अभिवादन को अनिवार्य किया तथा इसे वैदिक अभिवादन की संज्ञा प्रदान की। उनकी प्रेरणा से अनेक देशों में उनके प्रचारकों ने भी इसी अभिवादन को विशेष प्रसिद्धि दिलायी। इंग्लैंड में श्यामजी कृष्णवर्मा, अमेरिका में लाला हरदयाल, लाला जिंदाराम व सिद्धूराम, अफ्रीका में भाई परमानंद, भवानी दयाल संन्यासी व स्वामी शंकरानंद आदि ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध व 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में वेद प्रचार करते हुए ‘नमस्ते’ की परंपरा का भी प्रचार किया। आर्य समाज के अनेक विद्वान प्रचारकों ने मॉरिशस, त्रिनिदाद, फिजी, गयाना, बर्मा, नेपाल आदि अनेक देशों में इसी शब्द को प्रचलित किया, जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व में आज भी भारतीय अभिवादन के रूप में ‘नमस्ते’ को ही जाना जाता है।
अमेरिका व इजराइल को भी भाया ‘नमस्ते’
हाल ही में अहमदाबाद में हुए विशाल आयोजन के अंतर्गत प्रधानमंत्री मोदी ने कई बार ‘नमस्ते ट्रंप’ कहकर इसी मूल अभिवादनपद को पुनः विश्व पटल पर प्रचारित कर दिया तथा इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू व डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाथ जोड़कर ‘नमस्ते’ करना मनमोहक था। आज कोरोना वायरस की विभीषिका को नियंत्रित रखने के लिए विश्व के अनेक देश नमस्ते के परंपरागत ढंग को अपना रहे हैं। यह महर्षि दयानंद के संकल्प की गाथा का भी सफल मंचन है। भारत की संस्कृति एवं ज्ञान परंपरा को प्रमाणित करने के लिए ये उत्साहजनक उदाहरण है।
(लेखक वॉशिंगटन डीसी में भारतीय संस्कृति शिक्षक हैं।)