नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि किसी भी प्रकार का असंगत निर्णय न्यायिक संस्थानों की सार्थकता पर सवाल खड़े करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी न्यायिक संस्थानों की जिम्मेदारी है कि समाज के कमजोर लोगों के फैसलों में खासा सतर्कता बरतें। खासकर जो लोग विकलांग हैं या देख नहीं सकते उनके प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है।
न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की पीठ ने हिमाचल प्रदेश के हाई कोर्ट के एक आदेश को रद्द कर दिया। उसमें कहा गया कि न्यायिक लेखन इतना कठिन न हो कि लोगों को समझ ही न आए। इस लापरवाही चलते हाई कोर्ट के एक कर्मचारी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हुई। चूंकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निर्णय को रद्द करना दुर्भाग्यपूर्ण है मगर इस तरह के असंगत निर्णयों से न्यायिक संस्थानों की छवि खराब होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये हो सकता है सभी न्यायाधीशों के निर्णय लिखने की शैली अलग हो मगर उनमें सरल भाषा का प्रयोग तो किया जा सकता है। पीठ ने कहा कि हमेशा यह ध्यान रहना चाहिए कि न्यायिक संस्थाएं जो भी फैसले देती हैं उसका व्यापक असर होता है। जिसमें समाज के सभी वर्गों के लोग भी आते हैं। संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक के तौर पर न्यायिक संस्थाओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे समाज के सभी वर्गों खासकर विकलांग असहाय लोगों को ध्यान में रखते हुए फैसले दें।
यह जाहिर है कि भारतीय संविधान पर गांधी का भी व्यापक असर है। वे बराबर कहा करते थे कि जब तक समाज के आखिरी व्यक्ति के आंख में आंसू है तब तक हम आजाद नहीं हैं। ऐसे में गांधी के जीवन का असर हम भारत की तमाम संस्थाओं पर देख सकते हैं।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट का मूल मकसद यही है कि न्यायिक संस्थाओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि फैसलों और आदेशों का डिजिटल संस्करण सुलभता के साथ उपलब्ध कराए जाएं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आईआरएसी नियम के तहत मामलों को आगे बढ़ाना चाहिए। आईआरएसी प्रणाली जो कि प्रसिद्ध पद्धति है और न्यायिक संस्थाएं इसका पालन करती हैं तो आम जन तक इसका लाभ पहुंचता है।