अरविंद केजरीवाल जमानत पर रिहा क्या हुए, पंजाब में मुख्यमंत्री भगवंत मान के राजनीतिक भविष्य पर अटकलों का दौर चल पड़ा। मुख्यमंत्री की “खराब सेहत” और मोहाली के एक निजी अस्पताल में उनका भर्ती होना आग में घी डालने वाला था। पंजाब और दिल्ली के बीच या कहें तो मान और केजरीवाल के बीच की रस्साकशी, राज्य में आम आदमी पार्टी के संक्षिप्त राजनीतिक इतिहास की एक पहचान रही है।
मान ने केजरीवाल के हित में बड़ी भूमिका निभाई और किसी भी कीमत पर आम आदमी पार्टी का सुप्रीमो बनने में साथ दिया। खुद भगवंत मान ने भी पंजाब में निर्विवाद ‘नंबर वन’ बनने की कोशिश में राज्य में अपने विरोधियों- फुल्का, छोटेपुर, खैरा और अन्य को नहीं बख्शा। दोनों नेता समान रूप से क्रूर, आत्ममुग्ध, छवि के प्रति सचेत होने के साथ-साथ प्रतीकों में खेलने और नरेटिव गढ़ने के आदी रहे हैं; और दोनों ने दिल्ली और पंजाब में जन असंतोष का लाभ उठाने और पारंपरिक पार्टियों को नष्ट करने के लिए नई संचार प्रौद्योगिकी, लोकलुभावन वायदों और कार्यकर्ताओं का खूब इस्तेमाल किया है।
पंजाब में प्रभुत्व के इस दौर (2014-22) में, पंजाब में भगवंत मान और आम आदमी पार्टी ने स्पष्ट रूप से केजरीवाल और दिल्ली जैसी ही पारी खेली। पंजाब में आम आदमी पार्टी के संसाधनों- पुरुषों और सामग्रियों का इस्तेमाल दिल्ली और देश भर के अन्य राज्यों में किया गया।
मान मुख्यमंत्री पद के लिए दिल्ली की पहली पसंद कभी नहीं रहे लेकिन उनके पीछे के जन-समर्थन से दिल्ली मजबूर हुई। हालांकि पंजाब की सत्ता में आने के बाद दिल्ली की मंशा भगवंत मान को नाममात्र का मुखिया बनाकर असल सत्ता अपने हाथ में रखने की ही रही। लगभग एक साल तक ऐसा ही रहा भी। पंजाब के लिए राज्यसभा उम्मीदवारों का फैसला दिल्ली ने ही किया, “आरसी सर” (राघव चड्ढा) पंजाब के नौकरशाहों को आदेश देते रहे, शराब पर उत्पाद शुल्क सहित सरकारी नीतियां तय करते रहे। दिल्ली की तर्ज पर आप के क्लीनिक और ‘स्कूल ऑफ एमिनेंस’ पंजाब में भी लागू किए गए।
पंजाब के मंत्री महज “रबर स्टांप” रहे क्योंकि सचिवालय में तो दिल्ली की चल रही थी। पंजाब का पैसा पंजाब के बाहर विज्ञापनों और हवाई यात्राओं पर खर्च हुआ। पंजाब के मंत्रियों, विधायकों और कार्यकर्ताओं की ऊर्जा गुजरात और हिमाचल में लगी। सत्ता संभालने के एक साल बाद भी मान, अपनी निजी लोकप्रियता के बावजूद, बेड़ियों में जकड़े किसी और के इशारे पर चलते रहे। हालांकि 2023 की गर्मियों में हालात बदलने शुरू हुए।
समय के साथ अनुभव मिला तो मान का आत्मविश्वास और दृढ़ता भी बढ़ी। पिछले साल संगरूर में हार के बाद जालंधर उपचुनाव में मुश्किलों के बावजूद मिली जीत ने उनकी पूर्व वाली लोकप्रियता पर मुहर लगा दी। विपक्ष को बैकफुट पर और नौकरशाही को डरा कर रखने के लिए सतर्कता विभाग का रणनीतिक इस्तेमाल शुरू कर दिया। ढका-छुपा “बीजेपी के प्रति झुकाव” और “ऑपरेशन लोटस” के डर का इस्तेमाल करते हुए, बड़ी चतुराई से “आरसी सर” को पंजाब से बाहर धकेल दिया।
यही समय था जब “शराब घोटाला” और केजरीवाल सहित दिल्ली के शीर्ष नेताओं को जेल ने दिल्ली में केजरीवाल और आप की मुश्किलें बढ़ा रखी थीं। मान ने मौके का इस्तेमाल खुद की मजबूती और सत्ता में आया ‘शून्य’ भरने में किया। “आरसी सर” की जगह उनके (मान के) ओएसडी और परिवार ने ले ली। अधिकांश ग्रामीण विधायक दबदबा देख करीब हो लिए। दिल्ली के वफादारों के विभागों में फेरबदल होने लगा और लोकसभा चुनाव के लिए टिकट बांटने में भगवंत को पहली बार खुली छूट मिली।
हालांकि लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन से मान फिर दबाव में आ गए जब वह 13 में से सिर्फ 3 सीटों पर सिमट गई। वोट शेयर भी 42% से गिरकर 26% रह गया। दिल्ली को दरकिनार किए जाने से जोश में आया असंतुष्ट खेमा स्पीकर कुलतार संधवान के नेतृत्व में दिल्ली के साथ खड़ा दिखा। संघर्ष में अल्प विराम के बाद, हाल के विधानसभा सत्र में तलवारें फिर खिंचीं गईं जब संधवान ने एक अभूतपूर्व कदम में, एक जूनियर पुलिस अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत पर डीजीपी को विधानसभा में बुलाने के लिए सदन का समर्थन मांगा। सत्तारूढ़ पार्टी के कई विधायकों ने अपनी ही सरकार की नाकामी और भ्रष्टाचार पर तीखी आलोचना की जिससे सरकार और मुख्यमंत्री को शर्मिंदगी उठानी पड़ी।
केजरीवाल की जमानत पर रिहाई ने भगवंत की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। केजरीवाल के स्वागत के लिए दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में उन्हें बोलने नहीं दिया गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर आतिशी मार्लेना के शपथ ग्रहण में उनकी अनुपस्थिति इसी से उपजी नाराजगी का नतीजा थी। केजरीवाल ने पंजाब के सभी मंत्रियों की एक बैठक दिल्ली में बुलाई जिसे मान के अधिकारों का अतिक्रमण और अपमान माना गया। अपने मुख्यमंत्री के प्रति ऐसे व्यवहार से राज्य में एक खराब राजनीतिक संदेश भी गया। हालांकि मान ने तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए चार मंत्रियों को हटा दिया जिनमें से कई दबाव में थे।
अस्पताल में भर्ती रहते मान को बदले जाने की हालिया “अफवाह” को एक तरह का “ट्रायल रन” या “असफल तख्तापलट” के तौर पर देखा गया। हालांकि सत्ता का संतुलन अब भी मान के पास कायम है और निकट भविष्य में उन्हें बदलने की संभावना भी कम है। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली और केजरीवाल खुद बहुत कमजोर हो गए हैं। पंजाब में उनकी विश्वसनीयता उतनी नहीं है और दिल्ली जीतना जीवन-मरण का सवाल बन चुका है। ऐसे में पंजाब में अपनी ही सरकार को अस्थिर करने का उनका कोई भी प्रयास आत्मघाती और मूर्खतापूर्ण होगा।
यही नहीं, भगवंत मान अपनी सारी दुश्वारियों के बावजूद- जिनमें शराब छोड़ने में उनकी असमर्थता, उनकी अनुभवहीनता और प्रतिशोध वाली राजनीति शामिल है- अब भी पंजाब में सबसे बड़े नेता और राष्ट्रीय स्तर पर आप के स्टार प्रचारक बने हुए हैं। पंजाब में आम आदमी पार्टी भगवंत का पर्याय है और भगवंत आम आदमी पार्टी के। उनकी आंतरिक मजबूती और “लड़ने की इच्छा” देखते हुए यह भी अकल्पनीय है कि वह बिना लड़े घुटने टेक देंगे। विधायकों के एक बड़े वर्ग का समर्थन अब भी उनके साथ है और आम आदमी पार्टी की पंजाब इकाई में उनके मुकाबले कोई “चेहरा” भी नहीं है।
कुलतार संधवान, हरजोत बैंस, हरपाल चीमा, बलजिंदर कौर जैसे नाम मुख्यमंत्री को बदलने वाले चेहरे के रूप में चर्चा में भले हों, इनमें से कुछ की कोई पहचान नहीं या फिर उन पर “दिल्ली के पिट्ठू” का ठप्पा लगा है। पृष्ठभूमि में बीजेपी की गुप्त मौजूदगी भी बड़ा सवाल है जो सरकार के अस्थिर होते ही कीचड़ फैलाने से बाज नहीं आएगी।
यहां भगवंत मान की तुलना अपने अंतिम कार्यकाल वाले कैप्टन अमरिन्दर सिंह से करना बेहतर होगा। 2021 में पंजाब में कांग्रेस सरकार के अंतिम दौर में जब कैप्टन को बदला गया, उनकी विश्वसनीयता खत्म थी और अधिकांश विधायक किनारा कर चुके थे। उनकी जगह लेने को सिद्धू, जाखड़, चन्नी जैसे चेहरे तो थे ही, कैप्टन लड़ने वाली ताकत खो चुके थे। भगवंत अब भी उस स्थिति से कोसों दूर हैं।
इसका मतलब यह नहीं कि सब कुछ दुरुस्त है। मान भी शायद राजनीति में अपने चरम पर पहुंच चुके हैं और लोकप्रियता भी धीरे-धीरे नीचे आ रही है। चूंकि पंजाब अराजकता, ड्रग्स, भ्रष्टाचार और बढ़ते कर्ज से जूझ रहा है, मान का लोकलुभावनवाद, सस्ती चालें, विज्ञापनों पर अंधाधुंध पैसा उड़ाना और प्रतिशोध की राजनीति वाला मॉडल लंबे समय तक टिकने वाला नहीं है।
उनकी व्यक्तिगत नाकामियां- लगातार झूठ, लोगों से दूरी, शराब की लत, विश्वसनीय टीम की कमी, नीति की नासमझी, ओडीएस की मनमानी, सरकार में परिवार का हस्तक्षेप जैसी अफवाहें- उन्हें असहज करती रहेंगी और इसका नुकसान भी होगा ही। अब इसे चेतावनी समझें या संकेत, उनकी पार्टी के किसी भी विधायक या मंत्री ने अस्पताल में उनसे मिलने या सोशल मीडिया पर उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करने की हिम्मत नहीं दिखाई, जब तक कि कांग्रेस विधायक परगट सिंह ने अस्पताल में उनसे मिलने वाला प्रथम व्यक्ति बनकर उन सबको सोचने पर मजबूर नहीं किया।
अगर ऐसी ही रफ़्तार रही और 2025 की शुरुआत में दिल्ली चुनावों के बाद केजरीवाल मजबूत होकर उभरे, तो तय है कि वह भगवंत मान को हटाने का एक और प्रयास शुरू करने में कोताही नहीं करेंगे, जो आसानी से बाहर होने की दिशा में पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह वाली सबसे निचली सीढ़ी पर तेजी से लुढ़कने को तत्पर दिखाई दे रहे हैं।