परिवेश में बदलावों की लंबी कड़ी, सोशल मीडिया की भी मर्यादा हो

गिरीश्वर मिश्र

जीवन जीने की शैली बहुत हद तक उस परिवेश के बीच और इर्द-गिर्द सजती-संवरती है जो उसके लिए जरूरी साजो-सामान और अवसर मुहैया कराता रहता है । वस्तुतः दोनों इस तरह एक-दूसरे के इतने करीब होते हैं कि उनके बीच किसी तरह के कार्य-कारण का रिश्ता ढूंढ निकालना असम्भव सा हो जाता है । यह परिवेश नैसर्गिक रूप से हमें उपलब्ध होता है पर मनुष्य के रूप में हम उसमें बदलाव लाते रहते हैं ।

सभ्यताओं के विकास की कहानी बताती है कि परिवेश में बदलावों की लंबी कड़ी में मीडिया की सत्ता आज सबसे महत्व की हो चली है ।मानव इतिहास की नवीनतम सर्वव्यापी घटना के रूप में सूचना-संचार का गठन आज कई मानकों का अतिक्रमण कर नए प्रतिमान स्थापित कर रहा है । इस क्रम में सोशल मीडिया के आविष्कार ने एक बड़ा अध्याय जोड़ा है जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि वह मनुष्य के अस्तित्व के प्रश्न और उसे वास्तविक धरातल पर सुलझाने की प्रक्रिया को दिशा दे रहा है ।

मनुष्य के लिए अपनी आत्माभिव्यक्ति और दूसरों के साथ उसे साझा करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। समाज में इनकी व्यवस्था के लिए आज सोशल मीडिया हाबी हो रहा है जिसका चक्र अब सतत चलता रह रहा है। इनके तात्कालिक प्रभाव इतने जबरदस्त होते हैं कि उनकी गिरफ्त में जो फंसता है उसे कोई दूसरी राह नहीं सूझती । उल्टे इनसे जुड़े रहने का चाव और चाहत ऐसे तीव्र और सघन ढंग से बढ़ती जाती है कि ज्यादातर लोगों को समय कम पड़ने लगता है । आज सोशल मीडिया हमारे अस्तित्व के हर निजी और सार्वजनिक पहलू को स्पर्श कर रहा है ।

उसी के ‘थ्रू’ और उसी में रच-बस कर अब सारे जीवन व्यापार होने लगे हैं । यथार्थ, सत्य, अनुकरण और कल्पना के विविध रूपों तक हमारी साक्षात और परोक्ष पहुंच अब बहुत हद तक मीडिया से होकर ही होने लगी है । आमतौर पर अब आदमी मीडिया की प्रस्तुति वाली दुनिया के साथ ही अपनी वास्तविक भौतिक दुनिया से भी जुड़ता है। यदि वास्तविक दुनिया से उसका सीधा संपर्क हो भी तो वह उसे सोशल मीडिया की प्रस्तुति के आलोक में ही देखने-समझने की कोशिश करता है । सूचना का बढ़ता साम्राज्य हमारे परिवेश में सबसे व्यापक और प्रभावी बदलाव साबित हो रहा है।

सोशल मीडिया के वास्तविक और मूर्त रूप इंटरनेट और मोबाइल फोन के प्रसार ने जीने का सलीका उलट-पलट दिया है । जीवन के साथ उसका रिश्ता लगभग सभी आयामों में फैलता-पसरता गया है । सूचना तो हमेशा ही जरूरी थी और ज्ञान तथा शिक्षा से उसका निकट का रिश्ता तो पुराना था परंतु उसकी दखल बाकी जिंदगी में इतनी केंद्रीय हो जाएगी ऐसा पहले किसी ने नहीं सोचा था। विश्व के बीच विश्व का एक प्रतिरूप उपस्थित करते हुए मीडिया बाह्य अवसरों और आतंरिक प्रेरणाओं को रचते हुए बड़े ही संवेदनशील ढंग से हमारे आचरण को काटती, छांटती और समृद्ध करता चल रहा है।

ऐसे में आज हर तरह के कारोबार में मीडिया का अनिवार्य हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है । तीव्र प्रवाह और निजता-सार्वजनिकता दोनों का दायरा बढ़ाते हुए आज सारी चीजें उसी के अधीन होती जा रही हैं। हम हर बात के लिए इसके तंत्र के ऊपर निर्भर हुए जा रहे हैं। नैसर्गिक और वास्तविक दुनिया में बनाने वाले मानवीय रिश्तों और उनके बीच आपसी सम्बंध को स्थगित और विस्थापित कर मीडिया उनका नया गणित बना रहा है और नई पीढ़ी उसी के हिसाब से चलने को तत्पर है। मीडिया अब बुद्धि, विवेक और भावना सबको नियंत्रित कर रहा है ।

प्रेम, घृणा,लोभ, उत्साह, विषाद, या द्वेष के भाव हों अथवा किसी क्षेत्र में कुशलता अर्जित करने की चुनौती हो सबकी और सारी राहें उसी से या उसके पास से हो कर गुजरती हैं । मीडिया अब संदेश का माध्यम या संदेश ही नहीं रहा । वह संदेश का जनक और लक्ष्य भी नहीं रहा बल्कि आगे बढ़ उसको भी रचने वाला होने लगा है । हम सब अपने को मीडिया के अनुरूप ढालने लगे हैं ।

आकर्षण इतना है कि मीडिया में अपनी छवि बनाने को लेकर हम अतिरिक्त रुचि के साथ मीडिया के उपयोग के लिए सतर्क और सजग रहते हैं । इसे जान-समझ कर मीडिया को व्यक्ति, समुदाय और समाज के मानस को अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति के उद्देश्य से ढालने या ‘मैनिपुलेट‘ करने की व्यापक कोशिशें भी चल पड़ीं ।

अब सीधे तौर पर या फिर कुछ आवरणों के बीच अप्रत्यक्ष रूप से मीडिया व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को मनचाही दिशाएं दे रहा है । यह सब इस तरह होता है कि अपरिहार्य हो रहे मीडिया का प्रतिकार करना मुश्किल हो जाता है । मीडिया के लगातार अभ्यास के साथ उपजती आसक्ति तरह-तरह के व्यसनों का रूप लेती जा रही है ।

व्यसन के आवेश में आकर बच्चे और बड़े अपना आपा खो देते हैं और वह सब करने लगते हैं जो अस्वाभाविक, अस्वस्थ और हानिकारक भी हो सकता है । दैनिक व्यवहार में मीडिया की उपस्थिति और संगति जिस तरह बढ़ रही है वह खतरे का संकेत दे रही है । लोग घंटों फेसबुक और व्हाट्स ऐप लगे रहते हैं और अपने अन्य कार्यों की उपेक्षा करते रहते हैं ।

लोग मीडिया पर लाइक, शेयर और ‘सब्सक्राइब करते रहने के दबाव में रहते हैं । दुर्निवार होते जा रहे मीडिया के प्रकोप से जुड़ी घटनाएं विगत वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। सोशल मीडिया नायाब है और ट्विटर, व्हाट्स ऐप, फेसबुक आदि के जरिये जाल, फरेब, धोखा, प्रेम, सहायता, और परोपकार हर तरह की सत्य-कथाएं आये दिन चर्चा में आती रहती हैं। कई दुर्घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनमें पब जी और तमाम वीडियो गेम मीडिया के माध्यम से जुड़कर न केवल सामान्य जीवन में व्यवधान पैदा करते हैं बल्कि प्राणलेवा साबित हो रहे हैं ।

अक्सर ऐसे व्यसन उन परिवारों में अधिक घटित हो रहे हैं जहां माता-पिता या अभिभावक बच्चों के साथ पर्याप्त संवाद नहीं रखते और उनको परिपक्व होने के प्रति जाने-अनजाने में तटस्थता या उपेक्षा का भाव रखते हैं । पारिवारिक तनाव और आपस में भरोसे की कमी के कारण बच्चों में ऐसे व्यसनों के प्रति झुकाव बढ़ जाता है । दुर्भाग्य से बच्चों के पालन-पोषण को प्रायः परिस्थितियों पर ही छोड़ दिया जाता है और माता-पिता की भूमिका को प्रौढ़ होने के क्रम में सीखने-समझने का विषय मानने की प्रवृत्ति कम ही दिखाती है ।

प्रायः लोग अपने बचपन के अनुभवों को दुहराते मिलते हैं । आज के बदले परिवेश की चुनौतियों के मद्देनजर अभिभावकों में रिश्तों के मूल्य की पहचान लानी होगी । साथ ही नए सन्दर्भ में मीडिया की तीव्र उपस्थिति के सत्य को स्वीकार करते हुए समाज में अभिभावक के दायित्व की समझ और चेतना फैलाना बड़ा आवश्यक होगा।

वस्तुतः सोशल मीडिया दुधारी तलवार जैसी है और उसका संभाल कर ही उपयोग होना चाहिए । पुरानी हिदायत है कि किसी भी चीज की अति खतरनाक होती है : अति सर्वत्र वर्जयेत् । सोशल मीडिया के बढ़ते खतरे हमें उन पर मर्यादाओं के बारे में सोचने को बाध्य करते हैं जो उसके प्रभावी रूप के सामने अक्सर भुला दिए जाते हैं । निजी क्षमता, पारिवारिक जीवन और सामाजिक सक्रियता को ध्यान में रखते हुए हमें इसके उपयोग की विधाओं और सीमाओं पर गौर करना होगा और आवश्यक कदम उठाने होंगे ।

इसे व्यसन मान कर इसको मनोरोग की श्रेणी में डाल देना तो सांस्कृतिक क्षरण का प्रमाण है । इसके समाधान की ओर ध्यान देना होगा जिसके लिए तात्कालिक आर्थिक फायदों को किनारे रख कैसी सामग्री उपलब्ध की जा सकती है इसे नियमित करने के लिए उचित कायदे कानून की व्यवस्था भी अपनानी होगी । लगता तो यही है कि डिजिटल होती दुनिया और भी डिजिटल होगी । बाजार, आफिस और स्कूल हर जगह इसका विस्तार हो रहा है।

इसके फायदों और सुभीते को देखते हुए यह भी जरूरी होगा कि डिजिटल साक्षरता के साथ डिजिटल के नफे-नुकसान की शिक्षा भी मिले । तभी उसके फायदे मिल सकेंगे । बदल रहे देशकाल में सोशल मीडिया की अनिवार्य भूमिका को देखते हुए उसके सकारात्मक उपयोग की दशाओं और दिशाओं पर अतर्कता के साथ कदम उठाना आवश्यक है ।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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