पांच राज्यों में चुनावः किसकी तरफ है वोटरों का रूख, शुरू हुए कयास

लेखक-योगेश कुमार गोयल

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11 दिसम्बर को घोषित होने वाले देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों को लेकर तमाम राजनीतिक दलों, सर्वेक्षण एजेंसियों तथा विश्लेषकों द्वारा अपने-अपने कयास लगाए जा रहे हैं। हर कोई यह जानना और भविष्यवाणी करना चाह रहा है कि इन पांच राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम तथा तेलंगाना में किस दल की लुटिया डुबेगी और किस दल के सिर पर जीत का सेहरा बंधेगा। छत्तीसगढ़ में मतदाता दो चरणों में हुए मतदान के जरिये अपना फैसला ईवीएम में बंद कर चुके हैं और अब 28 नवम्बर को मध्य प्रदेश तथा मिजोरम और 7 दिसम्बर को राजस्थान और तेलंगाना में भी सभी राजनीतिक दलों के भाग्य का फैसला ईवीएम में लॉक हो जाएगा और यह लॉक खुलेगा 11 दिसम्बर को, जब ईवीएम से एक-एक कर हर विधानसभा क्षेत्रों के नतीजे बाहर निकलेंगे। छत्तीसगढ़ में तो मतदान प्रक्रिया पूरी हो चुकी है और अब शेष चारों राज्यों पर हर किसी की नजरें केन्द्रित हैं।

चुनावों के दृष्टिगत इन चारों राज्यों की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों पर सिलसिलेवार नजर डालें तो हर कहीं कमोवेश सभी पार्टियों को भीतरघात से जूझना पड़ रहा है। हर जगह टिकट न मिलने से नाराज नेताओं द्वारा पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल होने या निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने का माहौल देखा जा रहा है। शुरूआत करते हैं मध्य प्रदेश से, जहां 28 नवम्बर को मतदाता दोनों प्रमुख दलों भाजपा व कांग्रेस सहित चुनाव अखाड़े में उतर रहे सभी राजनीतिक दलों की किस्मत का फैसला करेंगे। यहां शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा पिछले डेढ़ दशकों से सत्तारूढ़ है लेकिन इसे एंटीइनकमबेंसी फैक्टर कहें या कुछ और पर सच यही है कि कुछ समय में इस राज्य में पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ नीचे गिरा है।

15 वर्षों का एंटी इनकंबेंसी फैक्टर, बहुचर्चित व्यापम घोटाला, किसानों को उनकी फसलों के उचित दाम न मिलना, बेरोजगारी को लेकर युवाओं में व्याप्त आक्रोश, एससी-एसटी एक्ट में बदलाव को लेकर सवर्णों की नाराजगी इत्यादि कई ऐसे मुद्दे हैं, जो भाजपा की मौजूदा सरकार पर भारी पड़ सकते हैं। पिछली बार भाजपा को इस राज्य में 230 में से 165 रिकॉर्ड सीटों पर शानदार जीत हासिल हुई थी और कांग्रेस महज 58 सीटों पर सिमट गई थी किन्तु इस बार सत्ता विरोधी लहर के साथ-साथ कांग्रेस भी आक्रामक मुद्रा में दिखाई दे रही है। कांग्रेस भी भले ही ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ जैसे अनुभवी नेताओं के बूते अपनी वैतरणी पार करने के ख्वाब संजो रही है किन्तु गुटों में विभाजित कांग्रेस खुद को संगठित रख पाने में सफल नहीं हो पा रही है। दूसरी ओर बसपा और सपा ने यहां कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

जहां तक राजस्थान की बात है तो मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया की कार्यशैली से आम जनता के एक बड़े वर्ग के अलावा सरकारी कर्मचारी और यहां तक कि भाजपा के कई नेता और कार्यकर्ता भी खफा बताए जाते हैं। चुनाव के बाद भी वसुन्धरा ही भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी का एकमात्र पसंदीदा चेहरा हैं किन्तु वसुन्धरा के नेतृत्व में भाजपा को कांग्रेस की ओर से कड़ी चुनौती मिलने की संभावनाओं के मद्देनजर ही वसुन्धरा ने कुछ ही माह पहले राजस्थान में ‘गौरव यात्रा’ का आयोजन कर किसानों के लिए मुफ्त बिजली सरीखी अनेकों लोकलुभावन घोषणाएं की थी। चुनाव से ठीक पहले की गई इस तरह की यात्रा और घोषणाएं मतदाताओं को प्रभावित करने में कितना सफल रहती हैं, यह तो 11 दिसम्बर को पता चल ही जाएगा लेकिन फिलहाल जमीनी हकीकत यही है कि पिछली बार 200 में से 160 सीटों पर धमाकेदार जीत दर्ज करने वाली भाजपा को इस बार कई गंभीर चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है।

कुछ माह पहले अजमेर तथा अलवर लोकसभा उपचुनावों में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था, जिससे साबित भी हो गया था कि राजस्थान में भाजपा के लिए हालात अनुकूल नहीं हैं किन्तु फिर भी ‘गौरव यात्रा’ के अलावा वसुन्धरा सरकार की कार्यशैली में कोई अंतर देखने को नहीं मिला, जिससे मतदाताओं का उनकी सरकार के प्रति भरोसा बढ़ सके। इस राज्य की चुनावी परिस्थितियों की पड़ताल की जाए तो पार्टी के बहुत से स्थानीय नेता भी दबी जुबान में स्वीकार कर रहे हैं कि उनकी सरकार के खिलाफ जनता में काफी आक्रोश है। यहां पिछले चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था जबकि अन्य दलों को 15 सीटें मिली थी लेकिन इस बार भाजपा और कांग्रेस के ही बीच कांटे का मुकाबला तय है और कांग्रेस को यहां कम आंकना उचित नहीं होगा। कुल मिलाकर राजस्थान में भाजपा को चुनावी वैतरणी पार करने के लिए सिर्फ ‘मोदी मंत्र’ पर ही भरोसा है।

अगर बात करें पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम की तो पूर्वोत्तर का यही एकमात्र ऐसा राज्य बचा है, जहां भाजपा अभी सत्ता से दूर है। इसलिए भाजपा ने यहां किला फतेह करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया हुआ है। 1987 में अस्तित्व में आए 50 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में एक अलगाववादी से मुख्यमंत्री बने ललथनहवला 1989 से 1998 तक और फिर 2008 तथा 2013 में मिजोरम के मुख्यमंत्री बने। फिलहाल मिजोरम में उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है और उन्हें चुनावों में परास्त करना भाजपा के इतना आसान नहीं होगा किन्तु साम, दाम, दंड, भेद हर तरह के दांव खेलते हुए भाजपा किसी भी कीमत पर अपने नियंत्रण से बाहर रह गए पूर्वोत्तर के इस एकमात्र राज्य में भी अपना परचम लहराने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है।
अब चलते हैं 2014 में अस्तिव में आए दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना की ओर, जिसका गठन 2014 के लोकसभा चुनाव के आसपास ही हुआ था। तेलंगाना में पहला विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही हुआ था और 119 सीटों वाली इस राज्य की पहली विधानसभा में चन्द्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी (टीआरएस) ने 63 सीटें हासिल कर सत्ता संभाली थी। बाद में जोड़-तोड़ की राजनीति करते हुए राव कुछ और पार्टियों को अपने साथ मिलाकर सरकार के पक्ष में सीटों की संख्या बढ़ाकर 82 करने में सफल हुए थे।

फिलहाल चन्द्रशेखर राव नहीं चाहते थे कि तेलंगाना के विधानसभा चुनाव आगामी वर्ष लोकसभा चुनाव के साथ ही हों, इसीलिए उन्होंने नियत समय से कुछ महीने पहले ही विधानसभा भंग कर दी। हालांकि उन्होंने अपने शासनकाल में कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणाएं की और उन पर कुछ काम भी हुआ किन्तु नए राज्य में जनता की उम्मीदों तले दबे मुख्यमंत्री अक्सर अपनी शानो-शौकत पर भारी-भरकम खर्च के आरोपों से भी घिरे रहे हैं। ऐसे में समय से पहले चुनाव कराने का चन्द्रशेखर राव का दांव उनकी पार्टी टीआरएस के लिए कितना फायदे का सौदा साबित होगा, यह तो चंद दिनों बाद चुनाव परिणाम घोषित होते ही पता चल ही जाएगा लेकिन दूसरी ओर देखा जाए तो चन्द्रशेखर राव के बारे में इस तरह की चर्चाएं आम हैं कि भाजपा के प्रति उनका रवैया सहयोगी सरीखा रहा है और भाजपा तेलंगाना में स्वयं अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को आतुर है, इसलिए इस राज्य के चुनाव परिणामों पर हर किसी की नजरें टिकी रहना स्वाभाविक ही है।

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