पुण्यतिथि विशेष 31 : शहंशाह-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर थे मोहम्मद रफी

भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ गायकों में से एक मोहम्मद रफी गायिकी की दुनिया का वह नाम हैं ,जिसने भारतीय सिनेमा और भारतीय संगीत को उस मकाम पर पहुंचाया जिसकी ऋणी भारतीय सिनेमा सदैव रहेगा।मोहम्मद रफी आज हमारे बीच नहीं हैं,लेकिन हिंदी सिनेमा के इतिहास में वह कई संगीतकारों की प्रेरणा रहे हैं। 24 दिसंबर, 1924 को पंजाब में एक साधारण परिवार में जन्मे रफी को बचपन से ही संगीत से काफी लगाव था।

हालाँकि उनके घर में संगीत का कोई माहौल नहीं था। रफी का संगीत के प्रति रुझान देखते हुए उनके बड़े भाई ने उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने की सलाह दी । कहा जाता है कि रफी जब 13 साल के थे तो उस समय के प्रसिद्ध गायक और अभिनेता के एल सहगल आकाशवाणी लाहौर में प्रदर्शन देने आये। इस कार्यक्रम को देखने के लिए रफी भी अपने भाई के साथ गए ।

लेकिन अचानक से बिजली गुल होने की वजह से सहगल ने प्रस्तुति देने से मना कर दिया। तब रफी के बड़े भाई ने आयोजकों से आग्रह किया कि वह भीड़ की व्यग्रता को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दे । उस समय आयोजकों को यह सही लगा और उन्होंने कार्यक्रम में रफी को गाने की अनुमति दे दी।इस तरह से रफी ने अपना पहला सार्वजानिक प्रदर्शन दिया। इस कार्यक्रम में श्याम सुन्दर जो उस समय के प्रसिद्द संगीतकार थे, रफी की आवाज सुनकर मोहित हो गए और उन्होंने रफी अपने साथ काम करने का ऑफर दिया।

साल 1944 में रफी साहब को श्याम सुंदर के निर्देशन में पंजाबी फिल्म गुल बलोच में गाने का मौका मिला। इसके बाद मोहम्मद रफी ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए सपनों की नगरी मुंबई का रुख किया। साल 1945 में रफी साहब ने हिंदी फिल्म ‘गांव की गोरी’ ( 1945 ) में “अजी दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी तैसी” से हिंदी सिनेमा में कदम रखा।इसके बाद रफी को हिंदी सिनेमा में एक के बाद एक कई गीतों को गाने का अवसर मिला।

उन्होंने हिंदी के अलावा मराठी,तेलुगु,पंजाबी, बंगाली और असमियां आदि भाषाओं में भी कई गीत गाये।भारतीय सिनेमा और गायकी में आवाज की मधुरता के लिये रफी को शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा जाता है।मोहम्मद रफी को प्यार से सभी रफी साहब कहकर सम्बोधित करते थे।

रफी साहब द्वारा गाये गए कुछ प्रमुख गीतों में ओ दुनिया के रखवाले (बैजू बावरा),चौदहवीं का चांद हो ( चौदहवीं का चांद), हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं (घराना), मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम (मेरे महबूब),चाहूंगा में तुझे ( दोस्ती), छू लेने दो नाजुक होठों को ( काजल), बहारों फूल बरसाओ ( सूरज), बाबुल की दुआएं लेती जा (नीलकमल),दिल के झरोखे में ( ब्रह्मचारी), परदा है परदा ( अमर अकबर एंथनी),क्या हुआ तेरा वादा ( हम किसी से कम नहीं),चलो रे डोली उठाओ कहार (जानी दुश्मन),दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-ज़िगर (कर्ज) ,सर जो तेरा चकराए, (प्यासा),चाहे कोई मुझे जंगली कहे, (जंगली) आदि शामिल हैं।

रफी साहब को साल 1965 में गायन के क्षेत्र में उनके सराहनीय योगदानों के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया।

रफी की निजी जिंदगी की बात करे तो उन्होंने दो शादियां की थी।रफी की पहली पत्नी का नाम बसेरा बीवी था। उनसे रफी का एक बेटा हुआ,जिसका नाम सईद रफी है।लेकिन रफी की पहली शादी ज्यादा दिन नहीं चल पाई और उनका तलाक हो गया। इसके बाद रफी ने दूसरी शादी बिल्किस बानो से की,जिससे रफी को तीन बेटे खालिद रफी ,हामिद रफी, शाहिद रफी और तीन बेटियां परवीन, यास्मीन और नासरीन हुई।

हिंदी सिनेमा को अपनी गायकी की बदौलत ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाले इस महान गायक का 31 जुलाई , 1980 को 55 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। मोहम्मद रफी का आखिरी गीत फिल्म ‘आस पास’ के लिए था, उनके निधन से ठीक दो दिन पहले रिकॉर्ड किया था, गीत के बोल थे ‘शाम फिर क्यों उदास है दोस्त।

रफी ने दुनियाभर में अपनी गायिकी की अमिट छाप छोड़ी । आज भी रफी के चाहनेवालों की संख्या लाखों में है। नई पीढ़ी के ज्यादातर गीतकार उन्हें अपना आदर्श मानते है। रफी अपनी गायकी की बदौलत दर्शकों के दिलों में सदैव जीवित रहेंगे।

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