फतेहपुर। पेट की भूख और सुख की चाह इंसान को घर परिवार छोड़ने को विवश तो कर सकता है, लेकिन वतन के प्यार को मिटा नहीं सकता। मुसीबत में वतन के सिवा कहीं सहारा नहीं मिलता। कोरोना महामारी के चलते दो माह से घोषित पूर्णबन्दी ने लोगों को परदेश और वतन के प्यार के बीच के अन्तर की एक ऐसी झलक पेश की जो इस वक्त पैदल जा रहे प्रवासियों के पैर के छाले व चेहरे की बेबसी बयां हो रही है।
परदेश के दुश्वारियों और सफर के मुसीबतों से लड़ते हुए वतन का भरोसा उन्हें अपनी ओर खींचे ला रहा है। आ बेटा मेरा आंचल तेरा आज भी उसी ममता से इंतजार कर रहा है। जैसे बचपन की निष्छल मासूमियत में तू दौड़ इस आंचल में छिपकर सुकून महसूस करता था।
वैश्विक कोरोना महामारी की रोकथाम व बचाव के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करीब दो माह पूर्व 24 मार्च को पूर्णबन्दी की घोषणा कर दिया। देश भर के व्यवसाय, व्यापार, उद्योग सभी ठप्प हो गये। हर व्यक्ति को घरों में रहना आवश्यक कर दिया गया। इस हालात में बाजारों में कालाबाजारी को दौर शुरू हुआ। हर व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा खाद्य सामग्री खरीदता नजर आया। जिसके चलते खाद्य सामग्री के दाम दिन दूने रात चौगुने बढ़ते गये। पूर्णबन्दी में सबसे अधिक मुसीबतों का सामना प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों व श्रमिकों को उठाना पड़ रहा है।
अचानक उद्योग, व्यापार, व्यवसाय बन्द होने से उनकी मजदूरी भी मालिकों ने नहीं दिया। जो थोड़ा-बहुत उनके पास था तो इस आस में खर्च हो गया कि शायद जल्दी ही पूर्णबन्दी को दौर खत्म होगा और फिर से बाजार मे रौनक आयेगी, व्यापार, व्यवसाय व उद्योग शुरू हो जायेंगे लेकिन जैसे जैसे पूर्णबन्दी-1के बाद पूर्णबन्दी-2 की घोषणा की गई और व्यापार व व्यवसाय सहित हर काम में पाबन्दी बदस्तूर जारी रही और फिर पूर्णबन्दी -3 के बाद पूर्णबन्दी-4 के दौर में भी काम की उम्मीद न के बराबर ही रह गयी है।
ऐसे हालत में दिहाड़ी श्रमिकों के समक्ष अपने वतन के रूखी-सूखी रोटी का आसरा ही बचा है। जब सभी ट्रेन व बसें व प्राईवेट वाहनों पर प्रतिबन्ध लगा है। तो पैदल की अपने घर जाना एक मात्र विकल्प बचा। फिर भी दिहाड़ी मजदूरों ने हिम्मत नहीं हारी और पैदल ही अपने वतन के लिए निकल पड़े। इस गर्मी में पैरों में छाले पड़ गये। रास्ते में भोजन-पानी मिलना भी मुश्किल ही रहता है। फिर भी बिना हिम्मत हारे दिहाड़ी मजदूरों का रेला सड़कों, रेल पटरियों और नहर पटरियों पर हर रोज देखने को मिल रहा है।
रोहित पटेल ने सुनाया परदेश के दुश्वारियों भरे दिनों की कहानी
अपने संघर्ष की दुश्वारियों को बयां करते हुए फतेहपुर जिले के कल्यानपुर थाना क्षेत्र के बड़ौरी गांव निवासी रोहित पटेल ने बताया कि मेरे पिता दो भाई हैं दोनों लोगों के बीच 6 बीघा खेत थे। बँटवारे के बाद मेरे पिता स्वर्गीय अरविन्द पटेल के हिस्से मे तीन बीघा खेत आये। फिर उनका देहान्त हो गया उससे पहले मेरी का इंतकाल हो गया था। मेरे दो भाई मोहित व राहुल जो अभी बहुत छोटे थे। तीन भाईयों का गुजारा तीन बीघे में होना मुश्किल हो रहा था तो मैंने अपने चाचा गुरू प्रसाद पटेल को अपने भाईयों की देखरेख की जिम्मेदारी सौंप दी।
वर्ष 2011 में पैसा कमाने की चाहत में और काम की तलाश मैं दोस्त के सहारे गुजरात प्रांत निकल लिया। वहां जाकर सूरत शहर में काम की तलाश में महीनों भटकने के बाद साड़ी व सलवार कढ़ाई व सितारे लगाने का काम मिल गया। पैसे कमाने के चाहत को आसरा क्या मैंने धीरे धीरे खूब मेहनत कर 4 हजार का एक किराये का कमरा लेकर रहने लगे। इस कमरे में पांच लोग रहते थे।
मेहनत को लगे पर, भाई को भी बुलाया अपने पास
अहमदाबाद के बापू नगर में सेठ पंचम के कारखाने पर हम 8 लोग काम करते थे। दो महिलाएं भी साथ काम करती थी। सेठ का व्यापार अच्छा चल रहा था इसलिए हम लोगों को समय से पगार मिल जाती थी जिससे लगता था कि इस कमाई से यहां गुजारा किया जा सकता है। फिर मैंने छोटे भाई मोहित को 2014 में बुला कर सेठ से काम में रखने की गुजारिश की। सेठ जी मेरे काम से खुश रहते थे इसलिए वह मान गये। हम दोनों भाईयों ने मिलकर खूब मेहनत की और अब हम दोनों भाईयों की कमाई से चाचा को भी सहारा मिलने लगा।
रोहित पटेल ने बताया कि मेरे चाचा गुरू प्रसाद पटेल ने 2016 में मेरी शादी कर दी। तीन महीने बाद मैं अपनी पत्नी सीता को लेकर चला गया। अब दोनों भाईयों बना बनाया भोजन मिलने लगा। आराम से जीवन व्यतीत हो रहा था। फिर 2018 में तीसरे भाई राहुल को भी मैं साथ ले गया।क्योंकि गांव में बिना काम के राहुल परेशान रहता था। अब मेरा पूरा परिवार एक साथ था। अब हम तीनों भाई साड़ी व सलवार सूट में कढ़ाई व सितारे लगाने के काम से काफी अच्छी कमाई कर लेते थे। अब ढर्रे से जिन्दगी गुजर रही थी।
कोरोना महामारी ने छीन लिया रोजगार और बदल दी जिन्दगी
कोरोना महामारी के संक्रमण से तो हम लोग बच गये लेकिन उसने रोजगार छीनकर बेरोजगार कर दिया रोहित ने बताया पूर्णबन्दी घोषित होने पर इस महामारी को एक झटका मानते हुए अच्छी व्यवसाय शुरू होने की आशा थी। प्रधानमंत्री के थाली व शंख बजाने के आह्वान पर हमने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। कोरोना के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हर कदम का भरपूर सहयोग किया लेकिन रोजगार बन्द होने के बाद धीरे -धीरे कमारे पैसे खर्च होते जा रहे थे।
जिससे व्यवसाय न शुरू होने पर परेशानियों की चिन्ता सताने लगी और जैसे ही पूर्णबन्दी-2 की घोषणा हुई। तो रोजगार की उम्मीद खत्म हो गयी। और अब गांव की याद सताने लगी। खाने के सामान के दाम तीन चार गुना बढ़ गया। कालाबाजारी जोरो पर होने लगी जिससे इस बेरोजगारी में राशन खरीदना भी मुश्किल होने लगा। एक तरफ बचाये रुपये खत्म हो रहे थे और दूसरी तरफ घर आने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। गांव आने की बेचैनी बढ़ रही थी। गांव आने के लिए 15 अप्रैल को फार्म भरे लेकिन उन फार्म में कोई कार्यवाही नहीं हुई फिर 02 मई को ऑनलाइन फार्म भरे।
इसके बाद भी कोई सुनवाई जब नहीं हुई तो एक ठेकेदार से मिला उसने 8 लोगों के 56 सौ रूपये मांगे। गांव आने की मजबूरी में चाचा से पैसे खाते में मँगवा कर किसी तरह ठेकेदार को 56सौ रुपये जब दिये तो वह अपनी बस से लाकर ट्रेन में बैठा कर चला गया। भूख-प्यास से जूझते हुए 16 घंटे के कानपुर आया जहां से ऑटो बुक कर गांव आया।
ट्यूबवेल की कोठरी में रहकर पूरा कर रहे हैं घरेलू एकांतवास
रोहित ने बताया कि 16 मई को दोनों भाईयों, पत्नी सीता व पुत्री शैली के साथ जैसे मैं गांव के करीब पहुँचा तो चाचा गुरू प्रसाद को बुलाकर ट्यूबवेल को खोलवाया और अपने रहने का आवश्यक सामान मंगाया। खेत में बने ट्यूबवेल में सीधे जाकर वहीं एकांतवास पीरीयड में रहने का निर्णय लिया। दूसरे दिन स्वास्थ्य परीक्षण कराया। सभी का स्वास्थ्य नॉर्मल है। फिर भी 21 दिन के आईसोलेशन में ट्यूबवेल में रहकर स्वयम् की देखभाल करेंगे और परिवार और गांव के लोगों के संक्रमण के भय को भी दूर करेंगे।
अब नहीं जायेंगे, गांव में रहकर तलाशेंगे रोजगार
जीविका चलाना है तो रोजगार ढूढ़ना ही पड़ेगा। रोहित ने कहा कि मेहनत के लिए हर जगह काम रहता है। इसलिए जो भी काम पूर्णबन्दी के बाद मिलेगा वह करेंगे। अभी तो सरकार द्वारा मनरेगा के तरह जो काम मिलेगा वह करेंगे। बाद में कोई न कोई काम तो मिलेगा ही। अन्यथा फिर अपना कोई छोटा-मोटा रोजगार शुरू करेंगे। पूर्णबन्दी के समाप्त होने का इंतजार है। मुख्यमंत्री भी रोजगार के लिए कम ब्याज पर लोन की घोषणा कर रहे हैं। उसका भी सहारा लेकर व्यवसाय शुरू करेंगे। जिंदगी बैठ कर या अवारागर्दी से तो कटनी नहीं।
बाल बच्चे हैं, परिवार है तो अपने हुनर के अनुसार काम करके फिर से जिन्दगी पटरी पर लानी ही होगी। इसी उम्मीद से गांव आया हूँ। और अब गांव में ही रहकर जिन्दगी का सफर तय करना ही बेहतर लगने लगा है।परदेशी बाबू की जिन्दगी में अपने तो छूटते ही हैं और बाहर कोई मुसीबत में हमदर्द नहीं मिलता। सभी मौका परस्त होते हैं गांव में ऐसा माहौल नहीं होता कोई न कोई सहारा जरूऋ देता है। इसीलिए आज हर व्यक्ति अपने वतन की तरफ लौट रहा है।