नई दिल्ली। पश्चिम बंगाल में चुनाव की तारीखें अब नजदीक आ रही हैं। अगले साल अप्रैल मई में रणभेरी बजेगी। हाल ही में हुए बिहार चुनाव जीतने के बाद भाजपा का मनोबल हाई है। अब उसके सामने पश्चिम बंगाल में तृणमूल का किला ढहाने की चुनौती है। उसके बड़े नेताओं ने बंगाल में डेरा जमा लिया है।
वहीं TMC भी भाजपा पर वार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। इस बीच कांग्रेस और लेफ्ट पार्टी ने भी अपने गठबंधन का ऐलान कर दिया है। यानी पश्चिम बंगाल में इस बार TMC, भाजपा और लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन के बीच मुकाबला त्रिकोणीय होने जा रहा है।
पश्चिम बंगाल कभी लेफ्ट का गढ़ हुआ करता था। 34 साल तक लेफ्ट की सरकार रही। लेकिन, 2006 के बाद उसके पतन का दौर शुरू हुआ, जिसके बाद वो कभी उबर नहीं सकी। चाहे लोकसभा हो, विधानसभा हो या फिर पंचायत चुनाव, हर जगह उसका दायरा घट रहा है।
हालांकि इस बार बिहार चुनाव में लेफ्ट विंग का बढ़िया प्रदर्शन रहा है। 29 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद लेफ्ट ने 55 से ज्यादा के स्ट्राइक रेट के साथ 16 सीटों पर जीत दर्ज की है। इससे उनका कॉन्फिडेंस जरूर बढ़ा है। पिछले विधानसभा में लेफ्ट और उसके सहयोगियों को 32 सीटें मिली थीं। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि लेफ्ट आने वाले चुनाव में बिहार का प्रदर्शन दोहरा पाती है या नहीं।
कांग्रेस और लेफ्ट के गठबंधन कितना कारगर होगा
ऐसा नहीं कि लेफ्ट और कांग्रेस पश्चिम बंगाल में पहली बार मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। इससे पहले 2016 का विधानसभा चुनाव दोनों ने साथ मिलकर लड़ा था। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में वो अलग हो गए थे। इस गठबंधन के सामने सबसे बड़ा सवाल है कि भाजपा उसके लिए बड़ी चुनौती है या फिर तृणमूल कांग्रेस।
वरिष्ठ पत्रकार शिखा मुखर्जी कहती हैं कि बंगाल में लेफ्ट और कांग्रेस का मिलना-बिछड़ना चलता रहता है। यह बात वोटर्स भी समझता है कि यह सिर्फ पॉलिटिकल डेवलपमेंट है, कोई स्थाई गठबंधन नहीं है। लेकिन पिछली बार की तुलना में इस बार का कांग्रेस लेफ्ट गठबंधन अलग है। 2016 के चुनाव में इन दलों को पर्याप्त वक्त नहीं मिल पाया था। लेकिन इस बार दोनों ही दल अपने वोटर्स तक गठबंधन का मैसेज पहुंचा पाएं, इसके लिए उनके पास 5 महीने का वक्त है।
वो कहती हैं कि हमें एक चीज ध्यान रखने की जरूरत है कि बंगाल में वोटिंग परसेंट ज्यादा होता है। इस बार ममता बनर्जी से कुछ लोगों की नाराजगी है। दूसरी तरफ सेक्युलर्स वोटर्स हैं जो हिन्दू और मुसलमानों में भी हैं। इनका वोट इस एलायंस के पक्ष में शिफ्ट हो सकता है। जैसा कि बिहार के चुनाव में हमें देखने को मिला।
बिहार की तरह ओवैसी फैक्टर बंगाल में काम करेगा
बिहार चुनाव में मुस्लिम फैक्टर का बड़ा रोल रहा। इसमें भी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का। मुस्लिम बहुल 20 सीटों पर AIMIM ने चुनाव लड़ा, 5 पर उसे कामयाबी मिली। भले ही संख्या के लिहाज से यह आंकड़ा छोटा है लेकिन इसी आंकड़े ने महागठबंधन का चुनावी गणित बिगाड़ दिया।
अब बंगाल चुनाव में भी ओवैसी की एंट्री हो गई है। उन्होंने भी चुनाव लड़ने का एलान किया है। यहां भी अच्छी खासी तादाद में मुस्लिम वोटर्स हैं। करीब 60 सीटों पर उनका दबदबा है। कई सीटों पर वे जीत-हार में निर्णायक हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा ने 7 सीटें जीती थी। 2016 में टीएमसी को 212 सीट मिली थीं जिसमें से 98 सीट पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
शिखा मुखर्जी कहती हैं कि बिहार के सीमांचल इलाके में जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा है वहां ओवैसी को फायदा हुआ है, लेकिन बंगाल की स्थिति अलग है। यहां दो तरह के मुसलमान हैं। एक जो बांग्ला बोलते हैं और एक जो गैर बांग्लाभाषी हैं। बांग्लाभाषी मुसलमान ओवैसी को सपोर्ट नहीं करेंगे। जबकि बिहार से सटे जिन इलाकों में गैर बांग्लाभाषी मुस्लिम हैं, उनसे ओवैसी को उम्मीदें हैं। लेकिन, बिहार की तरह ओवैसी के खाते में वोट शिफ्ट होगा यह कहना मुश्किल है।
क्या ओवैसी की एंट्री से भाजपा को फायदा होगा? शिखा मुखर्जी कहती हैं कि इसकी संभावना कम दिखती है। क्योंकि बिहार की तरह यहां के हिन्दू वोट पोलराइज्ड नहीं होंगे। हां अगर भाजपा ये माहौल बनाने में कामयाब होती है कि ममता जीतती हैं तो मुसलमानों से खतरा हो जाएगा तो ये एक फैक्टर हो सकता है। लेकिन, जो यह कह रहे हैं कि ममता से नाराजगी की वजह कुछ मुसलमान ओवैसी को वोट करेंगे, उनके लिए लेफ्ट कांग्रेस का एलायंस भी एक विकल्प है।
बंगाल चुनाव में मोदी फैक्ट कितना कारगर होने वाला है
बिहार चुनाव में भाजपा का कोई अपना चेहरा नहीं था। नीतीश घोषित रूप से सीएम उम्मीदवार थे लेकिन पूरी कैम्पेनिंग मोदी के नाम पर ही फोकस रही। मोदी ने कुल 12 जनसभाएं की। इसमें से ज्यादातर सीटों पर NDA को जीत मिली। बंगाल चुनाव में भी भाजपा मोदी के नाम को आगे कर मैदान में उतर रही है। बिहार की तरह यहां भी कोई मजबूत फेस उसका नहीं है। वहीं TMC भी मोदी पर निशाना साधने से नहीं चूक रही है।
अब सवाल यह है कि क्या बंगाल में मोदी के नाम पर कमल खिलेगा..? वरिष्ठ पत्रकार शुभाशीष मोइत्रा कहते हैं कि बंगाल में लड़ाई मोदी और ममता के बीच ही है, इसमें कोई दो राय नहीं है। भाजपा के लिए मोदी फैक्टर जरूर काम करेगा, लेकिन उसके बल पर वो सत्ता हासिल कर लेगी, ऐसा नहीं लगता है। क्योंकि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं और ऐसा कई राज्यों में हमें देखने को भी मिला है।
वो कहते हैं कि अगर चुनाव डेवलपमेंट से हटकर उन मुद्दों पर होता है जिन पर भाजपा जोर दे रही है तो, उसका थोड़ा बहुत असर हो सकता है। भाजपा को सत्ता हासिल करने के लिए 2019 से बेहतर प्रदर्शन करना होगा, जो BJP के लिए आसान नहीं होगा।
किसान आंदोलन का कितना असर होगा बंगाल चुनाव पर
इन दिनों दिल्ली हरियाणा बॉर्डर पर करीब 1 महीने से किसान डेरा डाले हुए हैं। उनको लेकर राजनीति भी खूब हो रही है। ऐसे में सवाल है कि क्या किसानों का आंदोलन बंगाल चुनाव में मुद्दा बन सकता है? शुभाशीष मोइत्रा इससे साफ इनकार करते हैं। वो कहते हैं कि बंगाल में इसका असर होने वाला नहीं है।
इसकी वजह साफ है कि यहां पंजाब और हरियाणा की तरह किसान नहीं है और न ही यहां जमींदारी बची है। इसलिए उनके लिए यह मुद्दा नहीं होगा। हां इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने की कोशिश जरूर विपक्षी पार्टियां कर रही हैं लेकिन ये वोट में कनवर्ट हो पाएगा, इसकी उम्मीद कम है।