बच्चे क्यों बन रहे हैं स्कूल में ‘दादा’, पैरेंट्स हो जाएं सतर्क

नई दिल्ली: पिछले दिसंबर में, कुछ छात्रों के एक समूह ने अपने सहपाठी को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। 11 जनवरी को, स्कूल के बाहर झगड़े के दौरान एक 12 साल के बच्चे की मौत हो गई। दो हफ्ते पहले, तीन छात्रों ने अपने सीनियर को तंग करने से बचने के लिए उसे चाकू मारकर मौत के घाट उतार दिया। अभी दो दिन पहले ही, एक 12 साल के लड़के ने अपने सीनियर को इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। ऐसे कुछ मामले सामने आए हैं, जहां स्कूलों में बदमाशी की वजह ने हिंसा का रूप ले लिया, और मामला बहुत गंभीर हो गया है। तो, सवाल ये है कि आखिर ऐसी घटनाओं में इतनी तेजी से बढ़ोतरी क्यों हो रही है?

दिल्ली स्कूल हिंसा बच्चे

मानसिक स्वास्थ्य और बाल कल्याण के विशेषज्ञों से बात करके यह जानने की कोशिश की कि इन हिंसक घटनाओं के पीछे क्या कारण हो सकते हैं। पुलिस ने बताया कि ऊपर बताए गए तीन मामलों में से सरकारी स्कूलों से सूचित किए गए थे। ‘छेड़ना या धमकाना कभी भी साधारण बात नहीं होती है। यह न केवल उस व्यक्ति को प्रभावित करता है जिसे परेशान किया जाता है, बल्कि डर के कारण आसपास मौजूद लोगों को भी प्रभावित करता है। एक विशेषज्ञ ने धमकाने के तरीके में बदलाव की ओर इशारा किया, जो अब और अधिक व्यक्तिगत, आक्रामक और दुर्भावनापूर्ण रूप ले चुका है।

फोन ने सारा काम बिगाड़ा

बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था स्टैपू की संस्थापक प्राची श्रीवास्तव ने बताया उन्होंने बताया कि बच्चों हर तरह अधकचरी जानकारी और उसके देखने के साधन आसानी से उपलब्ध हैं। उनकी सोच जल्दी ही एकतरफा बन जा रही है। इससे दूसरों से अलग राय रखने वालों को सहन करने की शक्ति कम हो रही है। फोन आसानी से मिलने की वजह से बच्चे बहुत कम उम्र से ही इन चीजों को देखना-समझना शुरू कर देते हैं। मनोचिकित्सक निमिष देसाई ने कहा कि हाल के वर्षों में, यह स्पष्ट हो गया है कि सोशल मीडिया ऐसे किशोरों के मन को प्रभावित करता है जो थोड़े सेंसेटिव हैं। हालांकि, असल समस्या ये है कि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के लिए उचित सहायता प्रणाली की कमी है।

 

इंटरनेट की दुनिया ने गुड़-गोबर कर दिया

प्राची ने बताया कि बिना किसी मार्गदर्शन के बच्चों को इंटरनेट की दुनिया में कुछ भी देख रहे हैं। ये उनके सामाजिक व्यवहार और भावनात्मक स्वास्थ्य को खराब कर रहा है। खासकर भावनात्मक समझ और धमकाने (बुलीइंग) जैसे मुद्दे एक मुश्किल बनते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब बच्चे ऐसे कंटेंट देखते हैं तो उन पर इसका स्थायी प्रभाव पड़ता है। दुर्भाग्य से, कोई भी बच्चों को इन खतरों के बारे में नहीं बताता, जिससे बच्चे अनजाने या जानबूझकर इसकी नकल करते हैं। उन्हें लगता है, ‘अगर मेरा भाई-बहन या कोई हीरो इस तरह का व्यवहार कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं कर सकता?

 

जल्दबाजी में बच्चों को बड़ा न बनाएं

प्राची ने आगे कहा आजकल, हम जल्दबाजी में बच्चों को बड़ा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे उनका विकास असंतुलित हो रहा है। ये एक जटिल समस्या है, जो माता-पिता के पास बच्चों के व्यवहार को समझने के लिए कम समय मिलने के कारण और गंभीर हो जाती है। यह समझना जरूरी है कि इन चुनौतियों का सामना सिर्फ किसी एक मामले या स्कूल के स्तर पर नहीं किया जा सकता। इसमें पूरे समाज को शामिल होना होगा। हमें बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए सामुदायिक जिम्मेदारी को स्वीकार करने की जरूरत है।

आखिर बच्चों की इस हरकत के पीछे कारण क्या है?

एक बाल मनोवैज्ञानिक ने दिल्ली के एक निजी स्कूल के 15 साल के एक लड़के का उदाहरण दिया, जिसे उसके माता-पिता उसके शिक्षकों द्वारा धमकाने की शिकायत के बाद उसके पास ले आए थे। उन्होंने कहा कि अगर कोई उसके प्रति संवेदनशील नहीं है, तो उसे भी किसी के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत क्यों है? एक दसवीं कक्षा के छात्र ने अपने काउंसलर को बताया कि कैसे उसे मिलने वाली गालियां उसके पिता जी की उस स्कूल का खर्चा उठाने की क्षमता पर सीधी चोट करती थीं, जहां दूसरे बच्चे पढ़ते थे। उसने दूसरों को नीचा दिखाने को अपना गुस्सा निकालने का तरीका बना लिया। एक अन्य मामले में, एक 10 वर्षीय छात्र को पहले भी कई स्कूलों से निकाला जा चुका था। काउंसलर के अनुसार, उस बच्चे में इतना गुस्सा भरा हुआ था कि वह शिक्षकों के साथ भी अभद्र व्यवहार करने लगता था।

प्राची ने बताया एक मामले में, धमकाने वाला बच्चा ये भी नहीं जानता था कि उसने दूसरे बच्चों को कितनी जोर से मारा है। निमिष ने यह भी कहा कि इन मुद्दों की जटिलता किसी एक मंच या तकनीक से कहीं ज्यादा गहरी है। बल्कि, ये व्यापक सामाजिक समस्याओं के लक्षण हैं। ऐसी घटनाएं स्कूलों और परिवारों जैसे संस्थानों के बीच एक-दूसरे पर आरोप लगाने की प्रवृत्ति की ओर ध्यान दिलाती हैं। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के, एक साथ मिलकर काम करने की बात कही। दिल्ली के निजी स्कूलों में काउंसलर डॉक्टर अनुप्रेक्षा जैन ने कहा कि काउंसलरों और शिक्षकों को साथ मिलकर काम करना चाहिए, बच्चों के व्यवहार को हमें देखना चाहिए ताकि धमकाने के शुरुआती संकेतों का पता लगाया जा सके। दुर्भाग्य से, यह सहयोग अक्सर नहीं होता है।

 

स्कूलों में ये काम होना चाहिए

विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूलों को सामाजिक और भावनात्मक सीखने (Social Emotional Learning) पर जोर देना चाहिए, हालांकि अभी सिर्फ कुछ ही स्कूल इसे आजमा रहे हैं। धमकाने के खिलाफ अभियान चलाने के साथ-साथ माता-पिता के साथ व्यक्तिगत बातचीत भी मददगार हो सकती है। प्राची श्रीवास्तव ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि माता-पिता इस बात पर सतर्क रहें कि उनकी आदतें उनके बच्चों को कैसे प्रभावित करती हैं।

 

पुलिस के पास कोई ऑप्शन नहीं

चूंकि ज्यादातर आरोपी नाबालिग होते हैं, ऐसे मामलों को रोकने के लिए पुलिस ज्यादा कुछ नहीं कर सकती। वे उनसे पूछताछ भी नहीं कर सकते। निमिष देसाई ने सुझाव दिया कि इस तरह की घटनाओं की रिपोर्टिंग के दौरान, संवेदनशीलता और समाधान खोजने के रवैये की ओर बदलाव की जरूरत है।

 

इन चीजों पर रखें ध्यान

खतरों पर नजर
➤ अगर बच्चा ध्यान लगाने में मुश्किल का सामना कर रहा है।
➤ बच्चा स्कूल जाने से कतरा रहा हो।
➤ बच्चे में तनाव और एंजायिटी हो।
➤ बच्चों के भूख में बदलाव (अधिक खाना या कम खाना)
➤ बच्चों में आत्मविश्वास की कमी।
➤ दूसरों को डराना-धमकाना

इन बातों पर रखें ध्यान
➤ कक्षा में बदमाशी करना। बच्चों से अक्सर लड़ना। आक्रामक व्यवहार। बच्चों को परेशान करना और आलोचना करना। दूसरों के साथ ज्यादा आक्रामक व्यवहार। जानवरों के साथ क्रूरता करना।

माता-पिता को क्या करना चाहिए
➤ बच्चों के दूसरे के डराने-धमकाने के मामले को गंभीरता से लेना। यह अपने-आप नहीं जाएगा।
➤ अपने बच्चों से किसी प्रकार के उत्पीड़न या अन्य चीजों का सामना करना पड़ रहा हो।
➤ बच्चों से कहें कि वो आक्रामक नहीं बने बल्कि मदद लें।
➤ ऐसे मामलों में स्कूल को तुरंत जानकारी दें और इसपर स्कूल के ऐक्शन की जानकारी लें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here