नई दिल्ली। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह का 86 वर्ष की उम्र में सुबह दिल्ली में निधन हो गया। वह लंबे समय से बीमार थे। उन्हें अक्टूबर में ब्रेन हैमरेज की वजह से दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराया गया था। बूटा सिंह के परिवार में पत्नी, दो बेटे और एक बेटी हैं।
सरदार बूटा सिंह का जन्म 21 मार्च, 1934 को पंजाब के जालंधर जिले के मुस्तफापुर गांव में हुआ था। वह आठ बार लोकसभा के लिए चुने गए। नेहरू-गांधी परिवार के विश्वासपात्रों में उनका नाम काफी ऊपर रहा। इस भरोसे का ही नतीजा ही था कि सरदार बूटा सिंह कांग्रेस नीत सभी सरकार में अहम ओहदों पर रहे।
राजीव गांधी की सरकार में साल 1984 से 1986 तक उन्होंने कृषि मंत्री का प्रभार संभाला। इसके बाद वर्ष 1986 से 1989 तक राजीव गांधी सरकार में वो केंद्रीय गृहमंत्री भी रहे। फिर 2004 से 2006 तक बिहार के राज्यपाल की जिम्मेदारी संभाली। बाद में वर्ष 2007 से 2010 तक मनमोहन सिंह की सरकार में उन्हें राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष भी बनाया गया। इस दौरान पंजाब में उनकी पहचान बड़े दलित नेता के तौर पर रही।
जब अकेले राष्ट्रीय महासचिव बचे थे बूटा सिंह
बूटा सिंह की कांग्रेस के प्रति निष्ठा और गांधी परिवार के विश्वासपात्र होने का एक प्रमाण वर्ष 1977 में देखने को मिला था। जनता लहर के चलते कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था। इस हार से पार्टी में दरार पड़ गई थी। उस वक्त बूटा सिंह ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी का साथ दिया। पार्टी के एकमात्र राष्ट्रीय महासचिव के रूप में कड़ी मेहनत की। वर्ष 1980 में कांग्रेस को केंद्र की सत्ता में काबिज कराने में बूटा सिंह ने बहुमूल्य योगदान दिया।
सिख विरोधी दंगों में सीट बदलकर भी जीते
बूटा सिंह साल 1967 से पंजाब के रोपड़ से चुनाव लड़ते आ रहे थे। 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिख विरोधी दंगे के बाद हालात बदले। पंजाब में चुनाव नहीं होने की स्थिति में राजीव गांधी ने उन्हें राजस्थान से चुनाव लड़ने को कहा। असमंजस के बीच जालौर की सुरक्षित सीट से ताल ठोकते हुए भी बूटा सिंह ने जोरदार जीत दर्ज की।
इस जीत के साथ ही उन्होंने पंजाब की सीमाओं को पार किया। इसके बाद पार्टी में उनका कद और बढ़ गया। इसके परिणाम स्वरूप उन्हें दो साल तक कृषि मंत्री और फिर गृहमंत्री जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई। कांग्रेस को अपने वरिष्ठ नेता को खोने का दुख ज्यादा होगा, खासकर उस मौके पर जब पार्टी आपसी कलह और राष्ट्रीय राजनीति में जीवित रहने के लिए जूझ रही है। बड़े दलित नेता का जाना कांग्रेस के लिए बड़ी क्षति है।