बेकाबू महंगाई, फिर भी जनता खामोश, विपक्ष की नाकामी या सत्ता की कलाकारी

नई दिल्ली। शनिवार को एक बार फिर पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा दिए गए। बीते 12 दिनों में तेल को दामों में दसवीं बार इजाफा हुआ है। लेकिन मीडिया में इसे लेकर कोई दिलचस्पी नहीं है, उनके लिए तेल कीमतें बहस का मुद्दा है ही नहीं। विपक्ष ने मंहगाई का मुद्दा उठाने की कोशिश जरूर की है। वैसे तमाम सर्वे बता रहे हैं कि देश में बेरोजगारी के बाद दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा महंगाई का है।

लेकिन किन्हीं वजहों से इस पर कोई खास हलचल नहीं दिख रही है। बीते सप्ताह कर्नाटक कांग्रेस ने कहा था कि, “यह चिंता की बात है कि लोगों से जुड़े मुद्दों को सांप्रदायिक तत्वों द्वारा पैदा किए गए उन्माद के बीच अनदेखा किया जा रहा है” और ‘हम केवल प्रासंगिक मुद्दों को ही उठा सकते हैं।’ लेकिन हमें इस पर तभी आगे बढ़ सकते हैं जब इन मुद्दों पर लोगों का समर्थन मिले। इसका सीधा अर्थ है कि बेतहाशा कीमतों और महंगाई को लेकर लोगों में कोई गुस्सा या इसके खिलाफ बोलने का उत्साह है ही नहीं।

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी ने लोगों के इस रवैये पर कहा कि लगता है कि मोदी राज में लोग ज्यादा अमीर हो गए हैं इसीलिए शायद वे कीमतें बढ़ने और महंगाई पर कोई विरोध नहीं करते हैं। बेरोजगारी का मुद्दा भी ऐसा ही है। 2019 लोकसभा चुनाव से ऐन पहले आए केंद्र सरकार के एक सर्वे के मुताबिक 2018 में बेरोजगारी का आंकड़ा 50 साल के सर्वाधिक स्तर यानी 6 फीसदी पर था। इसके बाद के चार सालों में भी यह लगभग इसी स्तर पर बना रहा है। लेकिन तेल-गैस की कीमतों के साथ ही बेरोजगारी भी हमारी राजनीति का विषय नहीं रह गई है।

ऐसे में समझना होगा कि आखिर आम लोग विपक्ष के साथ उन मुद्दों पर भी क्यों नहीं जुड़ रहे हैं जो कि दरअसल आम लोगों के ही हित में हैं। दरअसल उनके रास्ते का पहला रोड़ा मीडिया है। भारतीय मीडिया की संरचना कुछ ऐसी है कि उसे लाइसेंस, विज्ञापनों और अन्य कामों के लिए सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है। मास मीडिया का स्वामित्व अधिकतर कार्पोरेट इंडिया के हाथों में है, जिनके दूसरे धंधे भी हैं। इसीलिए वे आमतौर पर सरकार का ही मुखपत्र नजर आते हैं। हो सकता है कि यह एक कारण हो कि सत्तारूढ़ दल किसी किस्म का दबाव महसूस ही नहीं करता है।

दूसरा कारण यह हो सकता है कि विपक्ष में लोगों को सत्ता पक्ष के खिलाफ एकजुट करने की क्षमता ही नहीं है। शायद यह सच भी है, लेकिन पूरा सच नहीं है। बीजेपी ने अभी भी सारे राज्य नहीं जीते हैं, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि देश की राजनीति के हर हिस्से पर उसका वर्चस्व है। विपक्ष के लिए भी काफी जगह बची है, लेकिन इस मुद्दे पर जनसमर्थन नहीं मिल रहा है।

तो फिर इस असाधारण मामले को कैसे समझा जाए? विपक्ष देखिए आखिर क्या कह रहा है। कर्नाटक में क्या हुआ, भागवद गीता को स्कूलों में अनिवार्य किया गया, हिजाब पर पाबंदी लगाकर मुस्लिम लड़कियों को स्कूल से दूर किया गया और कश्मीर पर बनी फिल्म पर विवाद खड़ा किया गया, हलाल मीट को बैन करने की कोशिश की गई और मंदिरों के उत्सवों में गैर हिंदुओँ के कारोबार करने पर पाबंदी लगा दी गई।

इसमें संदेह नहीं कि ये सब भी लोकप्रिय मुद्दे हैं क्योंकि लोग इन खबरों को पढ़ने और देखने को उत्सुक हैं इच्छुक हैं। और अगर हम मीडिया पर आम लोगों द्वारा गुजारे जाने वाले समय का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि यही मुद्दे दरअसल ज्यादा अहम हैं। देश की राजनीतिक पार्टियां कह रही हैं कि आम लोगों के लिए इन जैसे मुद्दे अहम हैं न कि तेल और गैस की कीमतों में इजाफा, या बेरोजगारी या आसमान छूती महंगाई। सत्तापक्ष इन मुद्दों को हवा देते हुए कह रहा है कि यही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं और विपक्ष यह कहते हुए यही बात दोहरा रहा है कि महंगाई जैसे मुद्दों पर लोगों की रूचि नहीं है।

आकार पटेल का लेख: बेकाबू महंगाई और बेरोजगारी, फिर भी जनता खामोश, यह विपक्ष की नाकामी है या सत्तापक्ष की कलाकारी

आखिर ऐसी स्थिति कब तक रहेगी और हमारा भविष्य क्या होगा? कुछ साल पहले, मैंने एक किताब लिखी थी जिसकी थीसिस थी कि हिंदुत्व का कोई अंत नहीं है। इसका मतलब है कि कोई विशेष लक्ष्य नहीं है जिसे वह हासिल करना चाहता है। उदाहरण के लिए, यह संविधान में भारी बदलाव या उसे रद्द करने की मांग नहीं करता है, क्योंकि वर्तमान कानून इसे वह करने में सक्षम होने के लिए पर्याप्त स्थान देता है जो वह चाहता है।

इसका एकमात्र उद्देश्य सांप्रदायिकता के ढोल को लगातार पीटते रहना है। और यहां हमेशा कुछ न कुछ उपयोग करने के लिए होता है। आज बीफ, कल नमाज, तीसरे दिन संडे मास (जिस पर कर्नाटक में हिंदू संगठनों ने भी हमला किया है) चौथे दिन हिजाब, पांचवें दिन हलाल, छठे दिन लव जिहाद। आदि आदि

कल ही यानी 2 अप्रैल को उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान किय कि नवरात्रि के दौरान यानी 10 अप्रैल तक मांस बेचने वाली दुकानें बंद रहेंगी। आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि अगर दूसरे लोग मांस खरीद रहे हैं और खा रहे हैं तो इससे हिंदुओं को दिक्कत हो जाएगी। दरअसल ऐसे मुद्दों की कमी नहीं है जिनके आधार पर हम अल्पसंख्यकों को परेशान कर सकें।

चूंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है, हमारा विमर्श सिर्फ राजनीति जीत-हार पर ही आधारित है। चुनाव के दौरान और चुनाव के बाद के हालात को लेकर बहुत कम विचार होता है। एक लेखक के लिए भारत के मौजूदा हालात बहुत अच्छी विषय सामग्री मुहैया कराते हैं. लेकिन एक नागरिक के तौर पर यह देखकर दिल डूबने लगता है कि आखिर हम कहां से कहां आ गए हैं।

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