अजय कुमार शर्मा
भूत-प्रेत के डरावने किस्से केवल फिल्मों में ही नहीं होते बल्कि उनसे जुड़े हुए कई अभिनेता, निर्माता, निर्देशकों के साथ भी कोई न कोई ऐसी घटना जरूर हो जाती है जिसके चलते उन्हें भी इनके अस्तित्व पर विश्वास करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ऐसा ही एक किस्सा दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा में लिखा है । बात उस समय की है जब कोहिनूर फिल्म की शूटिंग चल रही थी। इसके निर्देशक एसयू सन्नी थे।
इसकी लोकेशन की तलाश में ही यह दिलचस्प और कुछ डरावना किस्सा हुआ था। सन्नी और दिलीप साहब ने सड़क के रास्ते नासिक (महाराष्ट्र) से कुछ आगे तक जाकर कोई ऐसी लोकेशन खोजने का फैसला किया, जहां रात के कुछ खूबसूरत आउटडोर सीन शूट किए जा सकें। दिलीप साहब ने सन्नी जी सुझाव दिया कि शाम से थोड़ा पहले निकलना ठीक रहेगा, ताकि अंधेरा होने से पहले ही जगह देख सकें कि रात के समय वह लोकेशन कैसी लगेगी। सन्नी जी को यह ठीक लगा और वे अपनी सहमति देकर शाम को उनके घर पर मिलने के लिए कहकर चले गए।
सन्नी की पत्नी दिलीप साहब को हमेशा से एक रहस्यमयी औरत लगती थीं। उन्हें भूत-प्रेत पर बहुत ज्यादा विश्वास था। उस दिन वह सन्नी के पीछे ही पड़ गईॆ कि वह भी उनके साथ चलेंगी। सन्नी ने उन्हें साथ ले जाने से मना कर दिया। दोनों उस रोमांचक सफर पर निकल पड़े। हालांकि सन्नी ने दिलीप साहब को यह नहीं बताया कि उनकी पत्नी भी साथ चलने के लिए कर रही थीं।
मगर कैमरा असिस्टेंट और ड्राइवर समेत हम चार लोगों के बीच एक औरत के बैठने के लिए जगह नहीं थी। ये लोग कुछ ही मील चले थे कि सूरज डूबने लगा और धीरे-धीरे अंधेरा घिरने लगा। तभी अचानक मौसम बदल गया और उन सबको हैरानी में डालते हुए तेज हवा चलने लगी और बारिश के तेज थपेड़े कार के अगले शीशे से टकराने लगे।
अभी हमें काफी दूर जाना था। सन्नी और अगली सीट पर ड्राइवर के साथ बैठे कैमरा असिस्टेंट ने सलाह दी कि हमें कुछ देर रुककर बारिश के कम होने का इंतजार करना चाहिए। दिलीप साहब ने अपनी रजामंदी जतायी तो सब लोग उस सुनसान हाइवे पर ठहरने के लिए किसी सही जगह की तलाश करने लगे।
जल्दी ही इन्हें एक टूटा-फूटा सा छप्पर दिखायी दिया और वहां कार रोक दी गई । सन्नी, दिलीप साहब और कैमरा असिस्टेंट नीचे उतरकर उस छप्पर की तरफ बढ़े। छप्पर की फूस की छत एक-दो जगह से टूटी हुई थी और वहां रस्सी से एक बोरा बांधा हुआ था, किसी परदे की तरह। छप्पर के नीचे लकड़ी के कुछ ठूंठ, कुछ मलबा और एक टूटी-फूटी बेंच पड़ी थी। दिलीप साहब वहीं बैठ गए।
छत से बंधा बोरा हवा से जोर-जोर से हिल रहा था और ऊपर आसमान में बिजली कड़क रही थी। सन्नी उस तूफान का सामना करते हुए उनकी तरफ लौट ही रहे थे कि वह बोरा अपनी जगह से सरका और आप मानें या न मानें, उनके सामने सन्नी की पत्नी खड़ी थीं। उनके चेहरे पर एक गर्वीली मुस्कराहट थी और वह बड़ी अकड़ के साथ खड़ी उन सब को उपहास भरी नजरों से घूर रही थीं।
उन्होंने बड़े रहस्यमय ढंग से अपने एक हाथ से अपने होंठों के किनारे पर लगा लाल रंग पोंछा। मीलों दूर बैठी एक औरत को यूं अचानक अपने सामने देखकर सब थर-थर कांप रहे थे और सन्नी जहां थे, वहीं जड़ होकर खड़े रह गए थे। कुछ पल बाद वह ओझल हो गईं तो बारिश भी रुक गयी और वे सब दम साधे खामोशी से अपनी कार में लौट आये।
ड्राइवर को कुछ पता नहीं था कि हमारे साथ क्या हुआ था, क्योंकि वह कार में ही बैठा रहा था। सफर फिर से शुरू हुआ, लेकिन सन्नी और कैमरा असिस्टेंट दोनों ही एक शब्द भी नहीं बोल पा रहे थे। दिलीप साहब ने माहौल को हल्का बनाने के लिए पश्तो में एक गाना गाना शुरू कर दिया।
चलते-चलते
अगले दिन दोपहर दिलीप साहब ने अपनी बहनों को यह डरावना किस्सा सुनाया तो वे दम साधे इस तरह सुनती रहीं जैसे अल्फ्रेड हिचकॉक की कोई डरावनी फिल्म देख रही हों। तभी एक कार के हॉर्न की आवाज सुनायी दी जो उनके बंगले के गेट में प्रवेश कर रही थी। बहनें भागकर टेरेस से नीचे देखने भागी कि कौन मेहमान आया था। दिलीप साहब की हैरानी का ठिकाना नहीं रहा क्योंकि उनकी बहनें डर से चीखने-चिल्लाने और कांपने लगीं। मेहमान कोई और नहीं, सन्नी और उनकी पत्नी थे। यह महज एक संयोग था या काले जादू की कोई करामात ?
(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)