भाजपा की जीत और सपा की हार के अपने-अपने सबक, 2024 में होंगी चुनौतियां

लखनऊ। भारतीय जनता पार्टी ने  प्रचंड जीत के साथ सत्ता दोबारा हासिल कर ली है लेकिन इस जीत ने पार्टी को कई सबक भी दिए हैं। सबक पश्चिमी यूपी में जाटलैंड में हुए घाटे की भरपाई करने का है तो लोकसभा में हासिल 50 फीसदी मत प्रतिशत को फिर 2024 में हासिल करने की चुनौती भी है।

वहीं सपा के लिए बढ़त बनाने के बावजूद अभी भी सत्ता तक पहुंचने का जादूई आंकड़ा पाने की चुनौती बनी हुई है। उसे चिंतन करना होगा कि कैसे वह इस बढ़त या यूं कहें भाजपा से छिटके ओबीसी को पाले में बरकरार रख सके जिसके कारण वह भाजपा को चुनाव प्रचार के दौरान काफी हद तक परेशान करने में कामयाब रही है।

भाजपा को मत प्रतिशत का लक्ष्य पाने की चुनौती
नि:संदेश भारतीय जनता पार्टी का मत प्रतिशत लगभग 42 फीसदी के पास रहा है। यह पिछले विधानसभा चुनाव में मिले 39.67 फीसदी से करीब दो फीसदी ज्यादा है लेकिन भाजपा को मत प्रतिशत को लोकसभा चुनाव 2019 के स्तर करीब 50 फीसदी तक पहुंचाने की चुनौती अभी भी बरकरार है।

उसे सरकार की कार्यशैली से नाराज़गी के चलते सपा के पाले में शिफ्ट 3-4 फीसदी वोटों पर भी चिंतन करना होगा। कहना गलत न होगा कि समाजवादी पार्टी ने वर्ष 2017 में कुल 311 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इन पर उसको 28.30 फीसदी वोट हासिल हुए थे, जो इस बार करीब 3 से 4 फीसदी बढ़कर 32 फीसदी से ज्यादा हुआ है।

सेंटर फार स्टडीज़ आफ सोसाइटी और पालिटिक्स के डा. एके वर्मा कहते हैं-‘सर्वे में ऐसे करीब 11 फीसदी मतदाता सामने आए हैं जो पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट देते हैं। शायद यही वज़ह थी कि लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा का मत प्रतिशत 51 के आसपास रहा था। इन चुनावों में भी ‘मोदी-योगी’ के नाम पर वोट मिले हैं। पार्टी को देखना होगा कि उसके विधायकों-सांसदों के कार्यों के चलते सत्ता विरोधी रुझान न हो। यह चिंता का सबब है कि पार्टी को लोकसभा चुनावों में मिला 50 फीसदी का मत प्रतिशत विधानसभा चुनाव में क्यों नहीं मिल सका।’

पार्टी को व्यापक जनाधार पर करना होगा काम

समाजवादी पार्टी ने 110 के करीब सीटें हासिल करने के साथ ही मत प्रतिशत सुधारा है। समाजवादी पार्टी के लिए उसकी इस बढ़त में  सबक यह है कि उधार की हांडी में पकवान नहीं पकाए जा सकते। पार्टी वर्ष 2012 जैसा जातीय और सामाजिक समीकरण बनाने में नाकाम रही।

याद रहे कि वर्ष 2012 के चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे बाहुबलियों को टिकट देने से इनकार कर एक अलग छवि बनाई थी। संदेश गया था कि सपा बदल रही है। राजनीतिक विश्लेषक पूर्व आईजी एके गुप्ता कहते हैं-‘समाजवादी पार्टी का मत प्रतिशत बढ़ाने में मुख्य रूप से युवाओं को नौकरी, महंगाई और छुट्टा जानवर की समस्या प्रमुख कारण रहे लेकिन सपा को समझाना होगा कि बद से बदनाम बुरा। उसे समाज में पार्टी की ऐसी छवि बनानी होगी, जिसे उसको सबका साथ मिल सके।’

नहीं चला सपा का ओबीसी कार्ड

समाजवादी पार्टी ने जिन स्वामी प्रसाद मौर्य और ओम प्रकाश राजभर को पार्टी में लेकर ओबीसी वोट बैंक को साधने की कोशिश की थी वह भी बहुत कामयाब होती नहीं दिखी। पूर्वांचल में न तो ओबीसी कार्ड चला और न ही लखीमीपुर खीरी में किसान आंदोलन का मुद्दा। लखीमपुर की निघासन सीट इसका ज्वलंत उदाहरण है। तिकुनियां इसी सीट में पड़ता है जहां किसानों को कुचलने का कांड हुआ था।

वहां सपा ने बसपा से आए रामआसरे कुशवाहा को इस आधार पर टिकट दिया कि उन्हें सजातीय बिरादरी के वोट मिल सकेंगे। सपा ने इसे सुनिश्चित करने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य की कई बैठकें करवाईं। संजय चौहान भी वहां गए लेकिन सपा को ओबीसी वोट हासिल नहीं हो सका। कुछ ऐसी ही स्थिति स्वामी प्रसाद मौर्य की सीट फाजि़ल नगर पर रही। पार्टी के लिए ओबीसी का बड़ा कार्ड माने जा रहे स्वामी प्रसाद मौर्य खुद हार गए।

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