भाषा को लेकर बवाल, पर राजनीति को ठीक करने की ज्यादा जरूरत

भारत की संघीय सरकार ने तमिलनाडु को समग्र शिक्षा अभियान के अंतर्गत दी जाने वाली रकम रोकने की धमकी दी है क्योंकि वह त्रिभाषा फॉर्मूला लागू नहीं कर रहा है। केन्द्रीय  शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का कहना है कि यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अभिन्न अंग है। तमिलनाडु को इसे लागू करना ही पड़ेगा वरना उसे संघीय सरकार की तरफ से पैसा नहीं मिलेगा।

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ऊपर से यह बात ठीक लगती है क्योंकि अगर कोई राज्य किसी राष्ट्रीय नीति को लागू न करे, तो उसे केन्द्र से पैसे की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। आखिर वह केन्द्र का पैसा है! तमिलनाडु ने उलट कर पूछा है कि अगर वह टैक्स का अपना हिस्सा भेजना बंद कर दे, तो फिर क्या होगा।

पहले भी तमिलनाडु कहता रहा है कि वह जितना टैक्स देता है, संघीय सरकार उस अनुपात में उसे बहुत कम राशि भेजती है। यह कहने पर तमिलनाडु की यह कहकर भर्त्सना की जाती है कि वह क्षुद्रता का परिचय दे रहा है। आखिर वह सिर्फ अपनी बात कैसे कर सकता है? क्या पूरा देश उसकी जिम्मेदारी नहीं है?

अभी हम इस बहस में नहीं पड़ रहे। हालांकि, राज्य की बात में दम है। बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य संघीय कोष में तमिलनाडु जैसे राज्य के मुकाबले कम टैक्स जमा कराते हैं लेकिन उन्हें तमिलनाडु के मुकाबले अधिक राशि मिलती है और तमिलनाडु को अपेक्षाकृत कम राशि दी जाती है। इसके खिलाफ तर्क यह है कि भारत में हर राज्य दूसरे की जिम्मेदारी है। आखिर सब लोग भारतीय हैं। तमिलनाडु कैसे सुखी रह सकता है, अगर बिहार या उत्तर प्रदेश पिछड़ा हो?

तमिलनाडु को बिहार के बारे में सोचना चाहिए लेकिन क्या कभी यह सवाल बिहार या उत्तर प्रदेश से किया जाता है? उनकी सामाजिक चेतना में तमिलनाडु और केरल की क्या जगह है?

संघीय सरकार का रवैया दक्षिण भारत के इन राज्यों के प्रति प्रायः शत्रुतापूर्ण है। यहां तक कि तूफान, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय और उसके बाद भी संघीय सरकार ने राष्ट्रीय आपदा कोष से उन्हें पर्याप्त राशि देने से इनकार कर दिया। कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गए हैं।

संकट के समय हाथ खींच लेने वाले की नीयत पर भरोसा कैसे करें? तमिलनाडु के लोगों को अगर संघीय सरकार के आश्वासन पर भरोसा नहीं कि त्रिभाषा फार्मूला हिन्दी को थोपने की बात नहीं करता, तो क्या यह निराधार है? क्या उसकी यह आशंका गलत है कि यह हिन्दी को चोर दरवाजे से घुसाने का एक तरीका है?

एक उदाहरण से सरकार की मंशा समझ में आ जाती है। संघीय सरकार के गृह मंत्रालय ने विदेश मंत्रालय को लिखा कि वह दूसरे देशों में सरकारी दफ्तरों, बैंकों और दूतावासों में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाए। भाजपा के सत्ता में आते ही 2015 में विदेश मंत्रालय में हिन्दी प्रकोष्ठ स्थापित कर दिया गया था। पहली बार विदेश में मात्र हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए एक संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी की नियुक्ति की गई।

तमिल, खासी और कन्नड़भाषी पूछ सकते हैं कि यह विशेष कृपा हिन्दी पर क्यों? क्या विदेश में हिन्दी के अलावा दूसरी भाषाएं बोलनेवाले भारतीय नहीं हैं?

हिन्दी के प्रति भाजपा सरकार के पक्षपात के और उदाहरण हैं। शिक्षा के क्षेत्र से एक उदाहरण तीन साल पहले का है। उत्तर पूर्वी राज्यों के दौरे पर गए अमित शाह ने ऐलान किया कि उस इलाके के सारे राज्यों में हिन्दी अनिवार्य की जाएगी। हिन्दी के 22,000 अध्यापकों की बहाली की घोषणा भी गृह मंत्री ने की। उत्तर पूर्व के सारे राज्यों में इसका भारी विरोध हुआ। जैसे ही गृह मंत्री ने हिन्दी अध्यापकों की नियुक्ति की घोषणा की, वैसे ही क्या बिहार या उत्तर प्रदेश में तमिल या मलयालम के अध्यापकों की बहाली की कोई योजना बनाई गई है? या असमिया के अध्यापकों की?

जब उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री वहां की स्थानीय भाषा उर्दू के ख़िलाफ ही विषवमन करे, तो असमिया या बांग्ला या तमिल के बारे में भाजपा सरकार के रुख की कल्पना की जा सकती है।

2017 में भाजपा सरकार ने आकाशवाणी की दिल्ली स्थित केन्द्रीय प्रसारण सेवा से तमिल, मलयालम, बांग्ला आदि के प्रसारण को दिल्ली से हटाकर राज्यों में भेज दिया। इसके चलते दिल्ली में इन भाषाओं के वाचकों और अनुवादकों की नौकरी समाप्त हो गई। उसके अलावा, इस कदम का प्रतीकात्मक अर्थ भी है। हिन्दी के अलावा शेष भाषाओं को क्षेत्रीय भाषा क्यों कहा जाए?

इसलिए अगर तमिलनाडु तीन भाषाओं के सूत्र को लागू करने से इनकार कर रहा है, तो उसके लिए पर्याप्त आधार है। शिक्षा मंत्री त्रिभाषा सूत्र को संवैधानिक प्रावधान बतला रहे हैं। वह झूठ बोल रहे हैं। संविधान में कहीं भी भाषा के मामले में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। संविधान में हिन्दी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह की एक भाषा है लेकिन हिन्दीवादी उसे राष्ट्रभाषा कहते रहे हैं। त्रिभाषा सूत्र भी कोई कानून नहीं है। क्या शिक्षा मंत्री यह नहीं जानते? फिर वह क्यों तमिलनाडु को धमका रहे हैं?

भाषा शिक्षण के बारे में यह समझ 2020 की शिक्षा नीति की है। लेकिन उस पर संसद में विचार नहीं किया गया। वह संघीय सरकार की दिमाग की उपज है। भारत के राज्यों के विचार उसमें शामिल नहीं हैं।

यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रकार की कोई नीति बाध्यकारी नहीं हो सकती। शिक्षा वैसे भी समवर्ती सूची में है। उसके बारे में कोई भी निर्णय केन्द्रीय स्तर पर नहीं लिया जा सकता। इस पूरी बहस में हम इन बातों पर चर्चा नहीं कर रहे हैं।

त्रिभाषा सूत्र आजादी के कोई 10 साल बाद विकसित किया गया। उसका इरादा भारत में विभिन्न भाषा भाषियों को एक दूसरे से जोड़ना था। समझ यह थी हिन्दीवाले मलयालम या मराठी सीख सकेंगे। यही दूसरी भाषा वाले भी करेंगे।

पिछले 60 साल का इतिहास यह बतलाता है कि कन्नड़ या मलयालम भाषियों ने तो हिन्दी सीखी लेकिन हिन्दी इलाकों के लोगों ने और कोई भाषा सीखना जरूरी नहीं समझा। औपचारिक तौर पर उन्होंने त्रिभाषा फार्मूला लागू किया लेकिन किसी भारतीय भाषा को सिखलाने का कोई इंतजाम नहीं किया। ऐसा करने का मतलब होता इन भाषाओं के अध्यापकों की नियुक्ति। यह करने की जगह हिन्दी के लिए ही अधिक पैसा दिया गया। अन्य भारतीय भाषाओं की जगह संस्कृत को तीसरी भाषा के तौर पर लागू किया गया।

हम सब जानते हैं कि यह धोखाधड़ी थी लेकिन यह धोखा चलता रहा। संस्कृत का भी सिर्फ नाम जाप किया गया। 60 सालों में संस्कृत के पंडितजी लोगों ने कैसी संस्कृत सिखलाई? हमने अपने साथ ही छल किया लेकिन इसका अहसास आज भी हमें नहीं है।

हिन्दी इलाकों के मुकाबले तमिलनाडु अधिक ईमानदार रहा। उसने त्रिभाषा फार्मूला का नाटक नहीं किया, दो भाषाओं की शिक्षा का ही प्रावधान किया लेकिन उसे ठीक से लागू किया।

हिन्दी के पैरोकारों को तमिलनाडु को सीख देने का कोई अधिकार नहीं है। भाजपा के लोगों को कतई नहीं। भाजपा की हिन्दीवादी राष्ट्रवादी राजनीति से तमिलनाडु का आशंकित होना ठीक है। जरूरत भाषा को नहीं, राजनीति को ठीक करने की है। या आदमी को।

धूमिल ने यह लिखा ही था:

‘भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है
जो सड़क पर और है
संसद में और है
इसलिए बाहर आ!
संसद के अंधेरे से निकलकर
सड़क पर आ!
भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक कर…’

अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं।

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