ममता की कूटनीतिक चाल को बेहतर समझती है कांग्रेस, पलट दिया खेल…

पटना: विपक्षी एकता पर बिहार के सीएम नीतीश कुमार और बंगाल की सीएम ममता बनर्जी की मुलाकात 24 अप्रैल को हुई थी। ममता ने नीतीश को सलाह दी कि वे कांग्रेस को साथ वाले गठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार हैं। इसके लिए उन्होंने दो शर्तें नीतीश कुमार के सामने रखीं। पहला यह कि विपक्षी एकता को लेकर पहली बैठक पटना में हो। बिहार संपूर्ण क्रांति की भूमि रही है।

जेपी मूवमेंट बिहार से ही शुरू हुआ था। आंदोलन का असर यह हुआ कि केंद्र में इंदिरा गांधी की सत्ता पलट गई थी। समाज में आमूलचूल परिवर्तन के लिए 5 जून 1974 को आंदोलन की नींव पटना में पड़ी थी। नीतीश कुमार या दूसरे विपक्षी दलों के नेता भी तब समझ नहीं पाए थे कि पटना में बैठक के पीछे ममता की अलग ही चाल है। ममता ने दूसरी शर्त यह रखी कि विपक्षी एकता के लिए उन दलों को राज्यों में अगुआ बनाया जाए, जो वहां मजबूत हों।

सुनने में तो यह सामान्य और वाजिब बात थी, लेकिन इस प्रस्ताव में भी ममता की चालाकी छिपी थी। दरअसल इन दोनों प्रस्तावों के पीछे ममता के मन में कांग्रेस को नीचा दिखाने का भाव था। आखिरकार ममता बनर्जी अपने मकसद में कामयाब हो गईं। नीतीश ने 12 जून को पटना में विपक्षी दलों की बैठक रखी है।

कांग्रेस के डिसीजन मेकर्स दो नेताओं- राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे बैठक में शामिल नहीं होंगे। आधिकारिक रूप से कांग्रेस ने इसकी पुष्टि कर दी है। हालांकि बैठक में कांग्रेस का प्रतिनिधित्व रहेगा। बतौर प्रतिनिधि कांग्रेस अपने चार मुख्यमंत्रियों में से किसी एक को भेज सकती है।

ममता बनर्जी को पता है कि कांग्रेस में कहने के लिए आंतरिक लोकतंत्र है, लेकिन व्यवहार में यह क्षेत्रीय क्षत्रपों की तरह अघोषित सुप्रीमो वाली पार्टी है। गांधी परिवार की मर्जी के बगैर कांग्रेस में पत्ता भी नहीं डोल सकता है। ममता चाहती थीं कि कांग्रेस की मठाधीशी खत्म हो। वह दिल्ली में विपक्षी नेताओं को बुला कर मिलने-बात करने का सिलसिला बंद करे। अति उदारता में कांग्रेस तैयार हो भी जाती है तो इसका मतलब साफ है।

कांग्रेस का गुरूर टूट रहा है। इस बीच कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को ताकत दे दी है। कांग्रेस की जीत से न चाहते हुए वे भी खुश हैं, जिन्हें कांग्रेस की प्रगति फूटी आंख भी नहीं सुहाती। ऐसे लोगों में ममता बनर्जी प्रमुख हैं। उन्हें इस बात की खुशी नहीं कि कांग्रेस जीत गई, बल्कि वे इसलिए खुश हैं कि बीजेपी हार गई।

ममता ने बैठक के बहाने जय प्रकाश नारायण के आंदोलन को इसलिए रेखांकित किया कि यही कांग्रेस की तत्कालीन केंद्र सरकार के पराभव का कारण बना था। 12 जून को बैठक की तिथि निर्धारित करने की सलाह भी ममता ने ही दी हो तो कोई आश्चर्य नहीं। इसलिए कि विपक्षी राजनीति के लिए 12 जून काफी महत्वपूर्ण है।

जेपी मूवमेंट तो 1974 में ही शुरू हो गया था। परोक्ष तौर पर आंदोलन इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ था। इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव जीती थीं। उन पर चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए समाजवादी नेता राजनारायण ने इलाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा किया था। हाईकोर्ट ने धांधली कर चुनाव जीतने का इंदिरा गांधी को दोषी माना। उनकी लोकसभा की सदस्यता अदालत ने रद्द कर दी।

इससे झुंझला कर ही इंदिरा गांदी ने 25 जून 1975 की आधी रात को देश में इमरजेंसी लगा दी थी। जय प्रकाश नारायण समेत देश के तमाम छोटे-बड़े विपक्षी नेता रातोंरात जेलों में ठूंस दिये गए। कांग्रेस में अलग राग अलापने वाले चंद्रशेखर को भी जेल भेजने में इंदिरा गांधी ने संकोच नहीं किया। इस बार पटना में 12 जून को होने वाली बैठक भी सत्ता परिवर्तन के एजेंडे के साथ हो रही है। फर्क इतना ही है कि तब कांग्रेस के विरोध में जेपी मूवमेंट हुआ था और इस बार कांग्रेस को सत्तासीन करने के लिए विपक्ष बेताब है।

ममता बनर्जी कांग्रेस से ही निकली नेता हैं। उन्हें कांग्रेस की संस्कृति के बारे में बताने-समझाने की जरूरत नहीं। कांग्रेस से निकल कर उन्होंने अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) बनाई। तब बंगाल की सत्ता में वामपंथी थे और कांग्रेस वामदलों की ‘बी’ टीम के रूप में काम कर रही थी। दिल्ली की सत्ता में वामपंथी कांग्रेस की मदद करते थे। ऐसे में बंगाल में वामदलों के बरक्स खड़ा होने का कांग्रेस में नैतिक साहस ही नहीं था। ममता शुरू से ही जिद्दी स्वभाव की रही हैं। कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने वाम सरकार को चुनौती देनी शुरू की।

कई बार उनके साथ मार-पीट हुई। उनका अपमान हुआ, लेकिन जिद्दी ममता ने संकल्प ले लिया था कि वे वामदलों की सरकार को उखाड़ फेंकेंगी। थोड़ा अधिक वक्त लगा, लेकिन ममता अपने मकसद में कामयाब हो गईं। साल 2011 में बंगाल से लेफ्ट की विदाई हो गई और ममता सत्ता में आ गईं। तब से अब तक उनकी नजर में कांग्रेस उतनी ही अछूत है, जितने वाम दल। कांग्रेस से अपनी दुश्मनी का इजहार तो उन्होंने विपक्षी एकता के प्रयासों के बीच ही कर दिया, जब बंगाल विधानसभा में कांग्रेस के एकमात्र एमएलए को टीएमसी का हिस्सा बना लिया।

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। आजादी की लड़ाई के लिए इसकी स्थापना हुई थी। आजादी मिलने के बाद कांग्रेस संसदीय राजनीति में आ गई। आजादी के बाद से 2014 तक कुछ साल छोड़ कर वह देश की सत्ता पर काबिज रही है। इसलिए उसके पास अनुभव की कमी नहीं है।

कांग्रेस ममता बनर्जी की कूटनीतिक चाल को बेहतर समझती है। यही वजह रही कि नीतीश कुमार का मन रखने के लिए उन्हें बुला कर खरगे और राहुल ने दिल्ली में बातचीत की। विपक्षी एकता में साथ रहने का वादा किया। पटना में होने वाली विपक्षी दलों की बैठक में कांग्रेस ने शामिल होने का भी आश्वासन दिया है। हां, उसने अपनी मठाधीशी भी बनाए रखी है। यानी खरगे या राहुल दिल्ली से पटना बैठक में शामिल होने नहीं जाएंगे। उनके प्रतिनिधि ही हिस्सा लेंगे।

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