नई दिल्ली। पेट्रोल-डीजल के दाम जिस दिन न बढ़ें, तब ही वह खबर है, अन्यथा तो कीमतें रोज ही बढ़ रहीं। मार्च के अंतिम और अप्रैल के पहले हफ्ते के बीच के 15 दिनों में ही इनकी कीमतें 13 बार बढ़ चुकी हैं। अन्य चीजों के दामों की रफ्तार भी कमोबेश यही है। जब ऑनलाइन या ऑफलाइन शॉपिंग करने जाओ, नए दाम सामने आ जाते हैं और बिल में बढ़ोतरी हो जाती है। ऐसे में, गोवा के एक मंत्री जी का यह बयान हास्यास्पद हो न हो, घाव पर नमक छिड़कने-जैसा तो है ही।
मंत्री जी ने कहा कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों की शिकायतें करने की जगह लोगों को सरकारी सब्सिडी से मिलने वाले इलेक्ट्रिक वाहन खरीदने चाहिए। ऐसे में, एक मशहूर किस्सा याद आना स्वाभाविक है। फ्रांस की आखिरी रानी मेरी एंटोनेट से जब कहा गया कि लोग परेशान हैं और खाने को रोटी नहीं है, तो उसने लोगों को केक खाने की सलाह दी। वैसे, फ्रांसीसी क्रांति के भड़कने में इस किस्से ने अहम भूमिका निभाई थी। आज अपने यहां इस संदर्भ में रोटी नहीं है, तो धर्म, वह भी हिन्दुत्व की घुट्टी पिलाई जा रही है।
यहां लोग महंगाई से रोजाना जूझ तो रहे, पर भड़क नहीं रहे, तो इसकी भी वजह है। हिन्दुत्व पर जोर एक कारण है। इसके लिए रोज-ब-रोज नए नैरेटिव सामने लाए जा रहे। हिजाब, धर्म संसद, गांधी-नेहरू की गलतियां आदि पर रोजाना ही कोई-न-कोई मैसेज, वीडियो वायरल हो रहा है। कई फेक वीडियो भी चल जाते हैं कि फलां जगह कैसे मस्जिद से हथियार मिले, फलां मौलाना यह दुष्प्रचार कर रहे हैं, फलां जगह भगवा ध्वज लहरा दिया गया आदि-इत्यादि।
लेकिन साथ-साथ यह भी बताते रहने की कोशिश होती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तमाम किस्म की मुश्किलों से देश को निकालने की कोशिश में ‘दिन-रात में 16 घंटे तक’ लगे हैं। गरीबों के बीच सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को खास तौर से आगे कर दिया जा रहा है।
लेकिन इसका अर्थशास्त्र भी समझने की जरूरत है। कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता संजय झा इसकी पोल इस तरह खोलते हैं, ‘पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि से मोदी सरकार ने हमारी-आपकी जेब से 26 लाख करोड़ रुपये टैक्स के तौर पर निकाल लिए। इससे ही फ्री राशन, आवास, उज्ज्वला, किसान योजनाओं आदि में पैसे लगाए गए। लेकिन अगर आप देखें, तो यह 100 लेकर 10 रुपये देने जैसा है।’ और यह भी सोचिए, जिन्हें इन समाज कल्याण योजनाओं का लाभ मिल रहा है, वे भी पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस पर टैक्स दे रहे हैं।
जाने-माने कृषि-अर्थशास्त्री श्रीनिवास खंडेवाले भी कहते हैं कि ‘मोदी है, तो मुमकिन है’ का नैरेटिव बहुत होशियारी से चलाया जा रहा है। उन्हें लगता है कि ‘लोग ऐसा सोचते हैं कि यह अब भी संभव है कि मोदी कोई चमत्कार कर देंगे।’ वह हाल के यूपी चुनाव के दौरान के एक वीडियो का जिक्र करते हैं जिसमें एक महिला कहती है कि हमने उनका नमक खाया है।
दरअसल, वह फ्री अनाज के साथ मिलने वाले नमक-तेल की बात कर रही थी। खंडेवाले कहते हैं कि ‘यह गरीब के दिमाग में घुसी विशिष्ट किस्म की बात है। वे नहीं जानते कि जनवितरण व्यवस्था (पीडीएस) गोदामों में खाद्यान्न बहुत अधिक थे और गेहूं टैक्स देने वाले लोगों के धन से मिल रहा था। उन्हें सचमुच लगता रहा है कि ऐसा अकेले प्रधानमंत्री मोदी के कारण ही संभव हो पा रहा है।’
खंडेवाले एक ऐसे सर्वेक्षण से संबद्ध रहे हैं जिसमें जनधन एकाउंट योजना के लाभों का आकलन किया गया। इसके तहत करोड़ों लोगों के बैंक एकाउंट खुलवाए गए। इस सर्वेक्षण का कुल मिलाकर निष्कर्ष यही था कि बैंकों से लोगों तक इसके लाभ नहीं पहुंच रहे हैं।
खंडेवाले ने कहा, ‘सरकारी चैनल जो दावे कर रहे हैं, उनके उलट हमने पाया कि बैंक मैनेजर इन एकाउंट वालों को किसी भी किस्म का लोन देने के प्रति आशंकित थे क्योंकि उन्हें लगता था कि आखिर, ये पैसे लौटाएंगे कैसे और पैसे वापस न आए, तो आखिरकार, दोषी तो बैंक अफसर-कर्मचारी ही माने जाएंगे। जो थोड़े बहुत ऋण आवंटन हुए भी, वे राजनीतिक दबावों में किए गए।’
इसी तरह लोगों के रोजगार बड़ी संख्या में गए हैं, दोबारा रोजगार पाना अब भी चुनौती ही है और नए बेरोजगारों की तादाद निरंतर बढ़ रही है। यह आम अनुभव है। इन्फ्रास्ट्रक्चर और हाईवे के काम होते भी दिख रहे हैं लेकिन अब मशीनों का जिस बड़े पैमाने पर उपयोग होता है, उसमें पहले के अनुपात में रोजगार की संख्या बहुत कम हो गई है। खंडेवाले एक और बात की ओर ध्यान दिलाते हैं, ‘ये सब अस्थायी रोजगार हैं। सरकार इस बात का कोई जवाब नहीं दे रही कि लोगों को स्थायी रोजगार कब से और कितने मिलेंगे।’
इंडियन एग्रिकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट से रिटायर कर चुकीं प्रधान वैज्ञानिक डॉ. सोमा मार्ला ने भी हाल में एक लेख में विस्तार से बताया है कि अंततः मार गरीबों पर ही किस तरह पड़ रही है। वह कहती हैं कि ‘ये गरीब ही हैं जो टैक्स का भार बर्दाश्त करते हैं। मूल्य वृद्धि की मार का अधिकांश हिस्सा उन पर इसलिए होता है कि वे अपने कम आय का अधिक हिस्सा इस पर खर्च करते हैं।
पेट्रोलियम पदार्थों पर हम जो टैक्स देते हैं, वह अप्रत्यक्ष टैक्स का हिस्सा है जो एक्साइज और वस्तु तथा सेवाओं पर जीएसटी से लिया जाता है। प्रत्यक्ष करों में वेल्थ टैक्स, कॉरपोरेट टैक्स, इम्पोर्ट टैक्स, इनकम टैक्स और धनी-मानी लोगों से लिए गए अन्य टैक्स हैं। सरकार को प्रत्यक्ष कर अब कम मिल रहे हैं जबकि पेट्रोलियम पदार्थों से एक्साइज ड्यूटी और जीएसटी में बढ़ोतरी हो रही है।’
वैसे, कीमतों में जिस तरह रोज-ब-रोज बढ़ोतरी हो रही है, उसका असर चतुर्दिक है। शायद ही कोई ऐसा हो जो इससे अछूता हो। यह भी नहीं है कि लोग इसे महसूस नहीं कर रहे हों।
बैंक ऑफ बड़ौदा में चीफ इकोनॉमिस्ट मदन सबनवीस इसे इस तरह कहते हैं, ‘जिनकी ठीक-ठाक आमदनी है, उनका सेविंग्स तो कम होता ही जा रहा है। यह जरूर है कि गरीबों और सामान्य लोगों ने ही नहीं, उन लोगों ने अपने वैसे खर्च कम-से-कम कर दिए हैं जो आवश्यक या अनिवार्य नहीं हैं। और यह कोई आज नहीं हुआ हो।
कोविड महामारी फैलने से पहले से ऐसा हो रहा है। तब ही तो उपभोक्ता सामग्रियों के उद्योग महामारी से पहले भी अच्छा नहीं कर रहे थे। ऐसा रोजगार कम होने की वजह से था और अब तो मूल्य वृद्धि उसमें जुड़ गई है। आप ध्यान दें, तो उद्योगों ने अपने को बचाए रखने के लिए एक और रास्ता निकाल लिया है।
बिस्किट के पैकेट पहले से छोटे हो गए हैं। उन्होंने दाम नहीं बढ़ाए लेकिन पहले जो पैकेट 100 ग्राम के होते थे और 10 रुपये में मिलते थे, अब उसी दाम में 40 ग्राम के पैकेट मिलते हैं।’ खरीदने वाले ठगा महसूस तो करते हैं, पर मानते हैं कि चलो, थोड़ा कम हो गया, छोटा है, पर मिल तो उतने में ही रहा है!
ठगे जाने के इस अहसास के बावजूद लोग मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी, रोजाना के अन्य संकटों के खिलाफ सड़कों पर क्यों नहीं आ रहे। वाईसीएमओयू और एमजीएम विश्वविद्यालय में कुलपति रहे डॉ. सुधीर गवहाने कहते हैं कि ‘दिक्कत यह है कि पार्टियों में भी जमीन पर ओपिनियन बनाने और संगठन करने वाले अब नहीं हैं।
बड़े पैमाने पर कोई कुछ नहीं करने वाले। जब तक ऐसे लोग सामने नहीं आएंगे, लोग कैसे इकट्ठा होंगे। जाने- माने कृषि-अर्थशास्त्री श्रीनिवास खंडेवाले कहते हैं, ‘विपक्षी दल अपने नेताओं की व्यक्तिगत वजहों से बंटे हुए हैं। कोई दल आगे नहीं आ रहा है।’ और टुकड़ों में शक्ति नहीं होती!