नई दिल्ली। नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी – एनसीपी में दो फाड़ के बाद पैदा हुई हलचल के शांत होने के 24 घंटे के अंदर ही यह संकेत मिलने लगे हैं कि महाराष्ट्र में अपनी सरकार में कथित ‘तीसरा इंजन’ जोड़ने के बावजूद बीजेपी असहज है।
सीधे सवाल उठ रहे हैं कि जब विधानसभा में बीजेपी के पास पर्याप्त संख्याबल मौजूद है तो फिर उसे एक और पार्टी को तोड़कर अपने साथ लाने की जरूरत क्या पड़ी? हालांकि शायद यही कारण हो सकता है कि उसे एनसीपी तोड़कर अपने संख्याबल को मजबूत करना पड़ा है। ध्यान रहे कि विधानसभा स्पीकर को जल्द ही शिंदे गुट वाली शिवसेना के उन 18 विधायकों की अयोग्यता के मुद्दे पर फैसला सुनाना है जिनके खिलाफ उद्धव ठाकरे ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ भी कहा हो, लेकिन यह स्पष्ट कर दिया था कि इन विधायकों का पाला बदलना अवैध था, लेकिन अंतिम निर्णय स्पीकर पर छोड़ दिया था। अब अगर कानून के मुताबिक देखें तो स्पीकर के सामने इन विधायकों को अयोग्य घोषित करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है, ऐसे में बीजेपी को अगले साल अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव तक अपना संख्याबल बरकरार रखने की मजबूरी है। लेकिन उसने जो कदम उठाया है, ऐसे में उसने अपने उस एडवांटेज को शायद खो दिया है जो उसे हासिल था।
एनसीपी में दोफाड़ की घटना से बीजेपी की पकड़ उस मुद्दे पर कमजोर पड़ गई लगती है जिसके आधार पर उसने शिवसेना में फूट कराकर अपनी सरकार बनाई थी। एकनाथ शिंदे सिर्फ एक ही राग शुरु से अलाप रहे है कि, “उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व को धोखा दिया है….।” वह इसलिए क्योंकि उन्होंने सेक्युलर विचारधारा का पालन करने वाली कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन किया, जोकि बीजेपी के सांप्रयदायिक एजेंडे के विपरीत है।
इसीलिए जब आदित्य ठाकरे ने कटाक्ष किया कि उनके पिता (उद्धव ठाकरे) की सरकार को तीन टांगों पर टिकी सरकार कहने वालों की सरकार भी अब तीन टांगों पर ही खड़ी हुई है। और इस बार तीसरी टांग तो वह है जिससे बीजेपी की नफरत जगजाहिर है।
राजनीतिक विश्लेषक प्रताप आसबे की टिप्पणी एकदम सटीक लगती है कि, “मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि बीजेपी को आखिर ये करने की जरूरत क्यों पड़ी, क्योंकि ऐसा करके उसने खुद को मजाक का पात्र बना लिया है।”
ऐसा इसलिए भी क्योंकि बीजेपी के इस कदम से उसके वफादार सहयोगी एकनाथ शिंदे की स्थिति अटपटी हो गयी है, बल्कि शिंदे गुट के वे नेता जो मंत्री बनने की आस लगाए बैठे थे, उन्हें हैरानी भरी स्थिति में एनसीपी से टूटकर आए उन दिग्गजों को शपथ लेते देखना पड़ा, जिनसे वे न सिर्फ नफरत करते थे, बल्कि जिन्होंने उनके उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस का जीवन भी एक तरह से मुश्किल बना दिया था।
पिछले साल जब शिंदे और उनके समर्थकों ने जब शिवसेना तोड़ी थी तो एक कारण यह भी बताया था कि उद्धव सरकार में रहे एनसीपी के मंत्रियों ने उनके निर्वाचन क्षेत्रों में फंड दिए जाने पर रोक लगा दी थी, जिस कारण उन्हें जनसंपर्क में मुश्किलें आ रही थीं। अब वही मंत्री फडणविस-शिंदे सरकार में आ गए हैं, तो इन नेताओं के सामने एक बार फिर पहले जैसे ही स्थिति खड़ी हो गई है। हो सकता है कि मजबूरी में अब शिंदे गुट के इन नेताओं को उद्धव ठाकरे के पास वापस लौटना पड़े।
तो फिर सवाल उठता है कि इन्हें नाराज करके बीजेपी ने क्या हासिल किया है?
फडणवीस लंबे समय से शिंदे को बीजेपी की कठपुतली मात्र मानते रहे हैं, जिसके चलते शिंदे ने हाल ही में अखबारों में विज्ञापन जारी कर खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश की। इन विज्ञापनों में फडणविस को गायब कर दिया गया था। हालाँकि, इस बात की संभावना नहीं है कि फडणविस अजित पवार या उनके किसी भी आदमी को कमतर मानकर बच निकलेंगे। शायद यही कारण है कि बीजेपी के लोग खुद ही अजित पवार को निकट भविष्य में मुख्यमंत्री पद पर आसीन करने की बात कर रहे हैं। यह ऐसा मामला है जिसकी तमन्ना अजित पवार बरसों से मन में पाले हुए हैं।
भले ही बीजेपी को भरोसा हो कि शिंदे के बीजेपी के साथ गठबंधन से बाहर निकलने के बाद वह उस जगह की भरपाई अजित पवार और उनके लोगों से कर सकती है, लेकिन एक पूर्व मुख्यमंत्री का दूसरे नंबर पर रहने का जोखिम क्या बीजेपी उठा पाएगा।
आसबे कहते हैं कि बीजेपी के समीकरणों का गणित यहां गड़बड़ाया हुआ है। ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती कि बीजेपी एनसीपी से आए लोगों को कमतर आंक सके, क्योंकि उसे अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ ही शरद पवार की एनसीपी को लेकर लोगों की भावनाओं से भी जूझना होगा।
आसबे का कहना है कि बीजेपी को उद्धव ठाकरे के तरीकों से सबक लेना चाहिए था, क्योंकि ठाकरे के अधिकतर कदम शरद पवार की सलाह पर थे। उनका कहना है कि भले ही उन्हें लगता हो कि इस टूट-फूट से शरद पवार को झटका लगेगा और वे खामोश बैठ जाएंगे, लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि फिर से लड़कर खड़े होने में शरद पवार का कोई मुकाबला नहीं कर सकता है।
शरद पवार के रुख से ही शायद संकेत लेकर आदित्य ठाकरे ने भी कहा है कि अब लड़ाई सिद्धांतों और निजी हितों के बीच है। आदित्य ठाकरे ने शिंदे गुट पर तंज कसते हुए कहा कि शायद शिंदे को यही समझाया गया होगा कि एनसीपी के बिना तो बीजेपी शिंदे गुट के साथ मिलकर भी 145 सीटें नहीं जीत सकती। प्रताप आसबे ठीक ही कहते हैं कि, “क्या यह स्वीकारोक्ति (शिंदे समूह द्वारा) नहीं है कि उनके पास ज्यादा आधार नहीं है और वे अगला चुनाव हार जाएंगे?” शायद ऐसा ही है, हालांकि राजनीतिक औचित्य के हिसाब से देखें तो ऐसा कदम मूर्खतापूर्ण ही कहा जाएगा, क्योंकि बीजेपी ने अपने मित्र चुनने में कोई समझदारी नहीं दिखाई है और उसके राजनीतिक शत्रु तो घात लगाए पहले से बैठे ही हैं।