उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुश्किल में हैं। बीजेपी की आंतरिक रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए योगी को जिम्मेदार ठहराया गया है और इस कारण वैसी ताकतें सक्रिय हो गई हैं जो चाहती हैं कि योगी की छुट्टी हो जाए। उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगी दल बहुचर्चित ‘डबल इंजन’ सरकार के बावजूद 80 में से केवल 36 सीटें जीत सके।
रिपोर्ट में बीजेपी उम्मीदवार राघव लखनपाल का उदाहरण दिया गया है जिन्हें सहारनपुर में कांग्रेस के इमरान मसूद ने हराया। एक समीक्षा बैठक में लखनपाल ने स्थानीय बीजेपी नेताओं के अति आत्मविश्वास की शिकायत की जो मानते थे कि उन्हें जनता को एकजुट करने के लिए जमीन पर काम करने की जरूरत नहीं है क्योंकि ‘ब्रांड मोदी’ उनकी नैया पार लगा देगा।
लखनपाल ने हरदोई से बीजेपी विधायक आशीष सिंह पर उन्हें हराने के लिए पर्दे के पीछे से साजिश रचने का आरोप लगाया। लखनपाल और सिंह गुट के बीच मतभेद इतने गहरे थे कि जब लखनपाल की हार के कारणों का पता लगाने के लिए पर्यवेक्षकों की टीम सहारनपुर पहुंची, तो दोनों प्रतिद्वंद्वी खेमों ने एक-दूसरे के खिलाफ नारेबाजी शुरू कर दी और बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत किया जा सका।
कई निर्वाचन क्षेत्रों की यही कहानी है। हारने वाले उम्मीदवार अपनी ही पार्टी के ‘जयचंदों’ पर उन्हें हराने की साजिश रचने का आरोप लगा रहे हैं। संजीव बालियान, कौशल किशोर, बीपीएस वर्मा, अजय मिश्रा टेनी, डॉ महेंद्र चंद्र पांडे, साध्वी निरंजन ज्योति और स्मृति ईरानी सहित 11 केंद्रीय मंत्रियों में से सात का मानना था कि ‘साजिश और ईर्ष्या’ के कारण उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा।
मुजफ्फरनगर से हारने वाले दो बार के बीजेपी सांसद संजीव बालियान ने सरधना के पूर्व विधायक संगीत सोम पर उन्हें हराने की साजिश रचने का आरोप लगाया। उन्होंने आरोप लगाया कि सोम को इसमें योगी का मौन समर्थन प्राप्त था। माना जाता है कि बालियान ने 2022 के विधानसभा चुनावों में सोम की हार में अहम भूमिका निभाई और आम चुनाव में हार के कारणों का पता लगाने आई टीम को बालियान ने साफ कहा कि ‘यह मेरे खिलाफ बदले की कार्रवाई है।’
बीजेपी की आंतरिक रिपोर्ट के मुताबिक, बालियान ने टीम को यह भी बताया कि कैसे पश्चिमी यूपी में राजपूत समुदाय द्वारा आयोजित पंचायतों से माहौल खराब हो गया था जिसमें अलग-थलग पड़े ठाकुर समुदाय ने बीजेपी नेतृत्व के प्रति अपना विरोध जताया था। बालियान ने संगीत सोम पर इन बैठकों के लिए ‘सूत्रधार’ के रूप में काम करने का आरोप लगाया और यह भी कि इन पंचायतों का कैराना सहित कई निर्वाचन क्षेत्रों में विपरीत असर पड़ा।
वहीं, सोम ने पलटवार करते हुए कहा कि ‘एक भी बीजेपी कार्यकर्ता बालियान को पसंद नहीं करता और उन्होंने बालियान के लिए काम करने से इनकार कर दिया। यहां तक कि उन्होंने मतदाता पर्ची बांटने से भी मना कर दिया।’
सलेमपुर में मामूली अंतर से अपनी सीट हारने वाले बीजेपी के पूर्व सांसद रवींद्र कुशवाहा ने बीजेपी के प्रदेश प्रमुख चौधरी भूपेन्द्र सिंह से कहा कि दो राज्य नेताओं- विजय लक्ष्मी गौतम और बलिया जिले के अध्यक्ष संजय यादव ने उनके खिलाफ साजिश रची थी ताकि वह हार जाएं। बांदा के सांसद आरके सिंह पटेल ने भी कहा कि पूर्व सांसदों और विधायकों ने स्थानीय सपा उम्मीदवार की इसलिए मदद की क्योंकि उन्हें टिकट नहीं दिया गया था।
बीजेपी अनुशासित पार्टी होने का लाख दावा कर ले लेकिन समीक्षा बैठक में कई जगहों पर हकीकत सामने आ गई। डुमरियागंज सीट की समीक्षा बैठक में दो अलग-अलग खेमों के कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई हो गई और हाई प्रोफाइल फैजाबाद सीट पर हुई समीक्षा बैठक में भी तीखी नोकझोंक हुई।
हालांकि इस रिपोर्ट के नतीजों को सार्वजनिक नहीं किया गया है लेकिन आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जून के मध्य में गोरखपुर की पांच दिवसीय यात्रा की जहां उनकी योगी आदित्यनाथ के साथ बैठक हुई। सूत्रों के अनुसार, आदित्यनाथ ने उन्हें समझाया कि बीजेपी उम्मीदवारों के चयन में उनकी कोई भूमिका नहीं थी और इस बारे में ज्यादातर फैसला मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने किया। सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था संसदीय बोर्ड से हटाए जाने के बावजूद उन्होंने केन्द्रीय गृह मंत्री शाह को गलत उम्मीदवारों के चयन के बारे में आगाह किया था और कहा था कि ऐसे 25 उम्मीदवार हार सकते हैं।
लेकिन योगी आदित्यनाथ की सलाह नहीं मानी गई और अतिविश्वास के सातवें घोड़े पर सवार बीजेपी ने ऐसे लोगों को तरजीह दी जिनकी अपने निर्वाचन क्षेत्रों में स्थिति अच्छी नहीं थी। भागवत पहले से ही बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की इस टिप्पणी से नाराज थे कि पार्टी को अब आरएसएस की जरूरत नहीं है।
चुनाव के बाद वह सार्वजनिक रूप से यह कहने लगे कि एक सच्चा सेवक अहंकारी नहीं होता। सबको पता है कि इशारा किसकी ओर था। उन्होंने बाद में पूर्वी उत्तर प्रदेश में आरएसएस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘हम 2014 में जहां थे, वहीं वापस आ गए हैं। सरकार 10 साल तक कुछ भी करने की स्थिति में थी लेकिन वह आरएसएस के संसाधनों की कीमत पर एक व्यक्ति को बढ़ाने में लगी रही जबकि ईमानदारी से उसकी (संघ की) विचारधारा का पालन नहीं किया गया।’
इसमें कोई संदेह नहीं है कि आरएसएस का हमेशा से योगी के प्रति नरम रुख रहा है और उसी ने उन्हें मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाया। बनारस के बुद्धिजीवी और समाजवादी जन परिषद पार्टी के प्रमुख अफलातून ने बताया, ‘यह बात सब जानते हैं कि मोदी और शाह जम्मू-कश्मीर के मौजूदा उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे।
लेकिन उसी दौरान बनारस में वे तस्वीरें वायरल हो गईं जिनमें सिन्हा माफिया डॉन ब्रजेश सिंह से मिलने गए थे जब उसका बीएचयू के अस्पताल में इलाज चल रहा था। ये तस्वीरें आरएसएस के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों ने मोहन भागवत को दिखाईं जिसके बाद सिन्हा की उम्मीदवारी खारिज कर दी गई और उनकी जगह योगी को मुख्यमंत्री बना दिया गया।’
यूपी में योगी की बढ़ती लोकप्रियता नई दिल्ली को रास नहीं आई और कुछ ही समय बाद उनके लिए बाधाएं खड़ी करनी शुरू कर दी गईं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनके फैसलों को रोका जा सके, दो उपमुख्यमंत्री नियुक्त कर दिए गए। उनकी ताकत पर लगाम लगाने के लिए मोदी के वफादारों ने एक ‘समानांतर सरकार’ भी बना ली। ऐसा ही एक उदाहरण था मोदी के वफादार दुर्गा प्रसाद मिश्रा को 29 दिसंबर, 2021 को उनके रिटायर होने से ठीक दो दिन पहले लाया जाना जिसके बाद उन्हें दिसंबर, 2023 के अंत तक के लिए दूसरा विस्तार दिया गया।
आदित्यनाथ एक डीजीपी (पुलिस महानिदेशक) भी नियुक्त नहीं कर सके और राज्य में चार-चार कार्यवाहक डीजीपी रहे और इनमें से किसी को भी ठीक से काम नहीं करने दिया गया। पूरी प्रशासनिक मशीनरी को तनाव में रखा गया था। ये सभी तथ्य भागवत के संज्ञान में लाए गए और साथ में यह भी कि कैसे एसबीएसपी (सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी) के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर और घोसी के पूर्व विधायक दारा सिंह चौहान को केवल योगी सरकार के कामकाज में बाधा डालने के लिए मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था।
भागवत को यह जानकारी भी दी गई कि कैसे ज्यादातर ठेके- चाहे लखनऊ हवाईअड्डे का निर्माण हो या 35,000 करोड़ रुपये की लागत से अयोध्या के पुनर्निर्माण- गुजरात के ठेकेदारों को दिए गए। एक राजनीतिक विश्लेषक ने बताया, ‘गुजरात लॉबी ने मंदिरों और अन्य परियोजनाओं के निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश को आवंटित धनराशि को जमकर लूट लिया।’ आरएसएस को इस बात का अच्छी तरह अंदाजा है कि योगी को मध्य वर्ग का समर्थन हासिल है क्योंकि वह मुस्लिम माफिया पर नकेल कसकर कानून और व्यवस्था की स्थिति बेहतर करने का संदेश देने में कामयाब रहे हैं।
वैसे, योगी समाज को बांटने वाले और एक विवादास्पद व्यक्ति हैं। लिंचिंग और मुसलमानों के खिलाफ धड़ल्ले से इस्तेमाल की जाने वाली अभद्र भाषा उनकी सरकार की पहचान बन गई है। योगी की कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति ने उन्हें आरएसएस का चहेता बना दिया है लेकिन मोदी और शाह- दोनों की नजरों में वह खटकते हैं क्योंकि उनके बारे में आम धारणा है कि योगी प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं और वैसे भी, वह मोदी से 20 साल छोटे हैं।
मोदी-शाह की जो भी योजना हो लेकिन योगी जिस तरह मनोज कुमार सिंह (राजपूत) को राज्य का मुख्य सचिव बनाने में सफल रहे, उसका मतलब साफ है कि यह दौर तो आरएसएस ने जीत लिया है। इसे योगी के लिए राहत के संकेत के तौर पर भी देखा जा सकता है।
बेशक बीजेपी ‘नेतृत्व’ की दिली ख्वाहिश हो कि योगी को चलता कर दिया जाए लेकिन हकीकत यह है कि आम चुनाव में करारी हार के बाद सत्तारूढ़ पार्टी इस अहम राज्य पर अपनी पकड़ फिर से हासिल करने के लिए भारी दबाव में है। संभावना है कि योगी को फिलहाल राहत मिल जाए और उन्हीं के नेतृत्व में उपचुनाव लड़े जाएंगे। अगर बीजेपी उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो योगी के लिए उल्टी गिनती शुरू हो सकती है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता और यूपी के पूर्व आईजीपी एसआर दारापुरे इस तस्वीर को अलग तरह से देखते हैं। वह कहते हैं, ‘अगर योगी को बरकरार रखा जाता है, तो बीजेपी के लिए स्थिति और खराब हो जाएगी। मुसलमान की तरह ही राजपूत, दलित और ओबीसी पहले ही बीजेपीसे अलग हो चुके हैं। जहां तक कानून और व्यवस्था में सुधार की बात है, यह सिर्फ एक मिथक है।
योगी के नेतृत्व में पूरे राज्य में आतंक फैल गया है और पुलिस को बेहद आक्रामक और शोषक विभाग के रूप में देखा जा रहा है। उनके नेतृत्व में मुठभेड़ों और घरों-दुकानों को ढहाए जाने के मामलों में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है। यह देखना होगा कि आरएसएस के नैरेटिव का मुकाबला करने में बीजेपी कितनी सफल होती है।’
इस चुनाव में हार को लेकर बीजेपी में आंतरिक तौर पर आरोप-प्रत्यारोप और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का दौर अभी जारी है लेकिन इसमें संदेह नहीं है कि दिल्ली में नेतृत्व ने फिलहाल इंतजार करने की नीति अपना ली है।