राजस्थान के उदयपुर में एक दर्जी कन्हैया लाल की निर्मम हत्या की जितनी भी निंदा हो कम है। जिस बेरहमी से हत्या की गई, वह केवल एक जुर्म ही नहीं बल्कि धर्म के नाम पर आतंक फैलाने की चेष्टा थी। निःसंदेह इस हत्या का मकसद केवल उदयपुर अथवा राजस्थान ही नहीं बल्कि सारे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़काना था। जिस प्रकार वीडियो के माध्यम से उस हत्या का प्रचार-प्रसार हुआ, उससे स्पष्ट है कि यह एक बड़ा षडयंत्र था।
फिर हत्यारों ने स्वयं प्रधानमंत्री को भी धमकी दी, यह तो देशद्रोह है। जाहिर है कि हत्यारों को कड़ी सजा तो मिलनी ही चाहिए। लेकिन यह काम जल्द से जल्द होना चाहिए। लेकिन बाहैसियत एक मुसलमान के स्वयं मेरा सिर भी शर्म से झुका हुआ है क्योंकि न तो इस्लाम धर्म ऐसे आतंक की अनुमति देता है और न ही जिन हजरत मोहम्मद के नाम पर यह जुल्म हुआ, उनके जीवन से ऐसी कोई प्रेरणा मिलती है।
हजरत मोहम्मद को मुसलमान ‘रसूले करीम’ की संज्ञा से याद करते हैं, अर्थात करम और रहम करने वाले नबी। मैं उनके जीवन काल से केवल एक वाकया यहां लिख दूं, तो आप समझ जाएंगे कि वह स्वयं कितने दयालु थे। सभी वाकिफ हैं कि हजरत मोहम्मद का जन्म मक्का में हुआ था।
वहीं उन्होंने एक नए धर्म इस्लाम की स्थापना एवं घोषणा की। जैसा कि हर सुधारक के जीवन में होता है, हजरत मोहम्मद के साथ भी वही हुआ। केवल कुछ व्यक्तियों के अतिरिक्त लगभग सारा मक्का नगर ही हजरत मोहम्मद के विरुद्ध हो गया। क्या मर्द और क्या औरत, जिसको देखो वही उनका विरोधी ही नहीं बल्कि उनको नीचा दिखाने में लगा रहा।
मक्का की एक ऐसी ही औरत का जिक्र है जो हजरत से बहुत ही क्रोधित थी। मोहम्मद साहब जब भी उसके घर के सामने से गुजरते, वह उनके ऊपर घर का कूड़ा-करकट फेंकती। वह किसी तरह बचकर निकल जाते। प्रायः ऐसा रोज होता। एक दिन जब वह उसके घर के सामने से गुजरे, तो ऐसा नहीं हुआ। वह रुक गए। दो-चार घड़ी इंतजार किया। फिर भी कुछ नहीं हुआ। उन्होंने आस-पड़ोस के लोगों से उस औरत के बारे में पता किया।
मालूम हुआ कि वह बीमार है। मोहम्मद साहब उसके घर के अंदर गए। वह औरत घबरा गई। उसको लगा कि वह उसे परेशान करेंगे। हजरत ने बड़ी विनम्रता से उसका हालचाल पूछा और कहा कि क्या वह उसकी कोई सेवा कर सकते हैं। बस, उसका मन पसीज गया। उसका हृदय परिवर्तन हुआ और तुरंत उसने इस्लाम भी स्वीकार कर लिया।
ऐसे थे हजरत मोहम्मद। दया की प्रतिमा। अफसोस यह है कि ऐसे दयालु धर्म गुरु के नाम पर उदयपुर में दो व्यक्तियों ने ऐसा जुर्म किया कि सारा देश क्रोधित है। इन दोनों व्यक्तियों ने हजरत मोहम्मद का नाम तो कलकिंत किया ही, साथ में इस देश के मुसलमानों का जीवन भी और कष्टदायक बना दिया।
सब जानते हैं कि इस समय देश में घृणा की राजनीति का सैलाब है। समाज में मुस्लिम समुदाय को एक दुश्मन का रूप दे दिया गया है। ऐसे में उदयपुर में हुई हत्या के बाद देश भर में मुस्लिम समाज की समस्या कहीं अधिक भीषण हो जाएगी। यदि यह कहा जाए कि उदयपुर के वे दोनों कातिल मुस्लिम द्रोही भी हैं, तो गलत नहीं होगा।
भारतीय मुस्लिम समाज की यही तो समस्या है। उसके नेतृत्व के नाम पर जो भी खड़ा होता है, उसका भला कम और बुरा अधिक करता है। बाबरी मस्जिद समस्या में मुस्लिम नेतृत्व द्वारा बिना सोच-समझ के किए गए कृत्यों से मुस्लिम समाज को नुकसान और बीजेपी को फायदा हुआ। वह कैसे, आप स्वयं देख लें। सन् 1984 के चुनाव के बाद बीजेपी की लोकसभा में केवल दो सीटें थीं।
सन 1986 में अचानक बाबरी मस्जिद का ताला खुल गया और उसके भीतर पूजा-अर्चना शुरू हो गई। रातोंरात बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन हो गया। इस कमेटी ने बाबरी मस्जिद का हर हाल में संरक्षण करने की घोषणा कर दी। इतना ही नहीं, कमेटी ने राम मंदिर निर्माण का विरोध सड़कों एवं बड़े-बड़े जलसों से शुरू कर दिया। इन जलसों में धार्मिक बातें और जोशीले नारे लगने आरंभ हो गए। जान दे देंगे लकिन मस्जिद नहीं देंगे जैसा प्रचार।
अभी तक केवल मुस्लिम समाज की ओर से बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी मैदान में थी। उधर से विश्व हिन्दू परिषद केवल इतना बयान दे रहा था कि मुस्लिम समाज मस्जिद हटा ले और उस स्थान पर राम लला का मंदिर निर्माण हो जाने दे। जब मुस्लिम समाज की ओर से काफी हो-हल्ला हो गया, तो विश्व हिन्दू परिषद मैदान में उतरी।
देखते-देखते देश मस्जिद-मंदिर अर्थात हिन्दू-मुसलमान के बीच बंट गया। संघ को मुंह मांगी मुराद मिल गई। फिर, बीजेपी लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के साथ कूद पड़़ी। बस, उसके बाद से बीजेपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
यह था बगैर सोची-समझी मुस्लिम नेतृत्व की जजबाती रणनीति का नतीजा जिसको मुस्लिम समाज एवं देश- दोनों भुगत रहे हैं। ऐसा ही उदयपुर हत्या से अब जल्द ही राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनाव में होने जा रहा है। इस हत्या के बाद प्रदेश चुनाव में कांग्रेस की कठिनाइयां बढ़ सकती हैं और बीजेपी का काम सरल हो सकता है। मैं यह बात कई बार लिख चुका हूं। लेकिन खरी-खरी लिखने का सबब यह है कि मुस्लिम समाज को अब ऐसे नेतृत्व के विरुद्ध खड़ा होने का समय आ चुका है।
खैर, बात उदयपुर से कहां तक चली गई। अभी तो उदयपुर हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा हो। लकिेन इसी के साथ-साथ दोनों समाज शांति बनाए रखें और देश में जो घृणा की राजनीति का माहौल बन गया है, वह तुरंत समाप्त हो।
अन्य विपक्षी सरकारें भी निशाने पर
महाराष्ट्र में भी विपक्ष की सरकार चली गई। उद्धव ठाकरे त्यागपत्र दे चुके हैं। राज्यसभा चुनाव के समय जिस प्रकार बीजेपी को एक अधिक सीट पर विजय मिली थी, उससे यह आभास तो हो चुका था कि उद्धव सरकार के दिन गिने-चुने ही बचे हैं। और अंततः यही हुआ। लकिन महाराष्ट्र की उद्धव सरकार के जाने के बाद यह स्पष्ट है कि किसी भी राज्य में विपक्ष की सरकार चल पाना बहुत ही कठिन है।
बंगाल में ममता बनर्जी और केरल में पिनाराई विजयन की एवं तमिलनाडु में स्टालिन के साथ तेलंगाना एवं आंध्र प्रदेश जैसे कुछ राज्यों के अतिरिक्त हिन्दी भाषी राज्यों में किसी भी राज्य में विपक्ष की सरकार का पूरे पांच साल सत्ता में रह पाना असंभव ही लगता है। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, उससे तो यह आशंका लग रही है कि झारखंड एवं राजस्थान सरकारों के सिर पर भी खतरा मंडरा रहा है। इन दोनों राज्यों में कब सत्ता परिवर्तन हो जाए, कहना मुश्किल है।
संघ एवं बीजेपी का सपना कांग्रेस मुक्त भारत का है। अपने इस सपने को पूरा करने के लिए वह साम, दाम, दंड, भेद की रणनीति का प्रयोग कर किसी भी हद तक जा सकती है। जैसे कभी उत्तर से दक्षिण तक एवं पूरब से पश्चिम तक देश में कांग्रेस का डंका बजता था, वैसे ही अब बीजेपी का डंका बजेगा। और इस स्थिति में जल्दी किसी परिवर्तन की संभावना नहीं है। लकिन महाराष्ट्र में एक और आशंका है।
अब संघ एवं उसका संपूर्ण परिवार उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना को खत्म करने में लग जाएगा। उद्धव ने संघ की हिन्दुत्व नीति छोड़कर कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया, यह उनके लिए पाप बन गया। ऐसे में संघ-बीजेपी अब शिवसेना का अस्तित्व ही मिटाने की कोशिश करेंगे। यह कार्य दो-चार दिनों में नहीं होने वाला।
एकनाथ शिंदे के जरिये शिवसेना के विखंडन की नींव पड़ चुकी है। शिवसेना के भीतर अभी और बहुत महत्वाकांक्षी शिंदे होंगे जिनको उनके मुंह मांगे दाम के अनुसार खरीदा जा सकता है। यदि तैयार नहीं होते, तो उनको तैयार करने के लिए ईडी काफी है। बस यूं समझिए कि शिवसेना के साथ भी वैसा ही होगा जैसा जनता पार्टी एवं जनता दल के साथ हुआ।
कांग्रेस को केन्द्र से हटाने के लिए सन 1977 में जनता पार्टी एवं 1980 के दशक में जनता दल की आवश्यकता थी। इन दोनों दलोों के गठन में संघ का बहुत अहम योगदान था। लकिन जैसे ही इन दलों का उपयोग समाप्त हो गया, इन दोनों पार्टियों का विघटन आरंभ हो गया। आज न तो कोई जनता पार्टी दिखाई पड़ती है और न ही वीपी सिंह की जनता दल का कहीं नाम-निशान बचा है। जनता दल के कुछ अवशेष बिहार में चल रहे हैं लकिेन लालू एवं नीतीश के बाद इनको भी तोड़ दिया जाएगा।