मुस्लिम वोट बैंक तोड़ने के लिए बीजेपी का ‘पसमांदा मुस्लिम’ प्रोजेक्ट

नई दिल्ली। वैसे तो संघ और बीजेपी के लिए भारतीय मुसलमान दुश्मन था, है एवं रहेगा। यदि यह कहा जाए कि इन संगठनों की स्थापना ही भारतीय मुसलमान से आर्य भारत पर ‘कब्जे’ का बदला लेने के लिए ही हुई थी, तो कुछ भी गलत नहीं होगा। मुसलमान को दूसरी श्रेणी का नागरिक बनाकर फिर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना ही संघ परिवार का सर्वोच्च लक्ष्य है। लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति के अपने ही तकाजे होते हैं।

लोकतांत्रिक राजनीति बहुत हद तक ‘नंबर गेम’ होती है। ‘नंबर गेम’ में मुसलमान एक अहम मुकाम रखता है। वह केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया में दूसरा सबसे बड़ी जनसंख्या समूह है। आधुनिक अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय परिस्थितियों में संघ एवं बीजेपी के लिए यह राजनीतिक तथ्य एक समस्या है।

अभी कुछ समय पूर्व नूपुर शर्मा के हजरत मोहम्मद साहब संबंधी बयान पर सारी दुनिया में मुस्लिम देशों ने जो तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, वह नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए एक समस्या बन गई। केवल इतना ही नहीं बल्कि उससे तो स्वयं देश एवं हिन्दू हित को खतरा उत्पन्न हो गया। सब जानते हैं कि मुस्लिम देशों एवं मुख्यतया अरब खाड़ी देशों में करोड़ों भारतीय नौजवान रोजी से जुड़े हुए हैं। यदि धर्म को लेकर भारत एवं इन देशों के बीच बात बिगड़ती है, तो इन नौजवानों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं।

याद रखिए, ऐसे नौजवानों में 50 प्रतिशत से अधिक संख्या हिन्दुओं की है। क्या बीजेपी ऐसे हिन्दुओं का हित खतरे में डाल सकती है। हरगिज नहीं। फिर सारी दुनिया के समान यह अरब खाड़ी देश ही भारत को सबसे अधिक मात्रा में तेल निर्यात करते हैं।

तीसरी सबसे बड़ी बात यह है कि इन देशों में काम करने वाले भारतीय देश में 50 बिलियन डॉलर से अधिक पैसा प्रति वर्ष भेजते हैं। इसलिए मोदी सरकार के लिए यह संभव नहीं कि वह वर्तमान अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में कम-से-कम इस्लाम के विरुद्ध वैसा ही प्रचार जारी रख सके जैसे नूपुर शर्मा की तरह के संघ के मोहरे 2014 से अभी हाल तक चला रहे थे।

इसलिए संघ एवं बीजेपी दोनों की ‘मुस्लिम रणनीतियों’ में कुछ परिवर्तन के सिगनल मिलने आरंभ हो गए। जैसा कहा कि भारतीय मुसलमान संघ एवं बीजेपी का शत्रु था और रहेगा। उसकी शत्रुता के बिना हिन्दू वोट बैंक इकट्ठा नहीं हो सकता और जिसके बिना बीजेपी की राजनीति सफल नहीं हो सकती। इसलिए बीजेपी की मौलिक मुस्लिम रणनीति में तो परिवर्तन नहीं होगा। लेकिन इस्लामिक आस्था पर वैसा प्रहार नहीं होने की संभावना है जैसा कि अभी तक चल रहा था। इसका अर्थ यह है कि हजरत मोहम्मद साहब, कुरान एवं मस्जिद या अजान वगैरह अब अधिकांशतः खतरे से बाहर हो सकते हैं।

इस बात के दो मुख्य सिगनल अभी हाल में मिले। सबसे पहले तो स्वयं संघ के चीफ मोहन भागवत ने यह बयान दिया कि हर मस्जिद में एक शिवलिंग अथवा मंदिर खोजने का कोई औचित्य नहीं है। इसका क्या मतलब है। ताजमहल को लेकर अभी पिछले सप्ताह एएसआई ने एक आरटीआई के जवाब में यह स्पष्ट कर दिया कि ताजमहल अथवा उसके भीतर बंद कमरों में कोई मंदिर नहीं है।

इसी के साथ-साथ लाल किला एवं दूसरी इमारतों में मंदिर का जो शोर था, वह थम गया है। ऐसा केवल नूपुर शर्मा के बयान पर मुस्लिम देशों की तीखी प्रतिक्रिया के बाद हुआ है। कारण यह है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी विदेशों में बसी मुस्लिम जनसंख्या की धार्मिक आस्था की आज की दुनिया में अवहेलना नहीं की जा सकती है।

इसके यह अर्थ कतई नहीं हैं कि काशी एवं मथुरा जैसी मस्जिदों पर भी संघ अथवा बीजेपी का रवैया बदल जाएगा। इस संबंध में भी भागवत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इन मस्जिदों को न्यायपालिका द्वारा हासिल किया जाएगा। लेकिन अब कम-से-कम इस्लामिक आस्था पर सीधा प्रहार नहीं होगा। बाकी सब मुस्लिम विरोध वैसे ही चलता रहेगा जैसे चल रहा था।

इसी प्रकार स्वयं भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली के कारण भारत की राजनीति में भी मुस्लिम जनसंख्या का अपना एक महत्व है। यह तो तथ्य है कि भारतीय मुसलमान अल्पसंख्यक हैं लेकिन यह भी तथ्य है कि वह देश की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला समूह है। इसलिए चुनावी नंबर गेम में उसकी अपनी भूमिका है। ऐसी स्थिति में जब तक ‘80 बनाम 20’ वाली रणनीति सफल होती है और एक सशक्त हिन्दू वोटबैंक एकत्र रहता है, तब तक मोदी की राजनीति को कोई खतरा नहीं है। लेकिन यदि यह रणनीति गड़बड़ाती है, तो फिर मुस्लिम वोट बैंक बीजेपी के लिए खतरा पैदा कर सकता है।

आंकड़ों एवं अनुपात के हिसाब से यह वोट बैंक लोकसभा की सौ से अधिक सीटों पर अपना प्रभाव रखता है। जनसंख्या के आधार पर देखें, तो असम और बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या 25-30 प्रतिशत है। फिर बिहार में मुस्लिम आबादी करीब 17 प्रतिशत है। उत्तर प्रदेश में करीब 20 प्रतिशत तक मुस्लिम आबादी है। अब दिल्ली में भी 10-12 प्रतिशत तक मुस्लिम वोटर का अनुमान लगाया जा सकता है।

हरियाणा एवं पंजाब में मुस्लिम वोट बैंक का कोई खास असर नहीं है। फिर महाराष्ट्र में भी मुस्लिम जनसंख्या करीब 12 प्रतिशत है। केरल में 30 प्रतिशत के लगभग एवं तेलंगाना में भी यह वोट बैंक 10 से 12 सीटों को प्रभावित करता है। ऐसे में यदि मुस्लिम वोट बैंक अपने प्रदेश के किसी हिन्दू जातीय समूह से हाथ मिला लेता है, तो लोकसभा चुनाव को निःसंदेह प्रभावित कर सकता है।

जैसे बिहार एवं उत्तर प्रदेश में एम-वाई गठबंधन के कारण दशकों तक बीजेपी को समस्या रही। प्रधानमंत्री सामाजिक एवं धार्मिक राजनीति के इस समय देश के सर्वश्रेष्ठ नेता माने जाते हैं। उनको मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति पर प्रभाव का भलीभांति अंदाजा है।

इसलिए उन्होंने अभी हाल में हैदराबाद में हुई बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में मुस्लिम वोट बैंक को खंडित करने की रणनीति पर जोर दिया। हिन्दू समाज के समान भारतीय मुस्लिम समाज में भी जात-पात का चलन है। मुस्लिम समाज में छुआछूत का चलन तो नहीं बल्कि पिछड़ों की भारी जनसंख्या है।

कहते हैं, मुसलमानों में लगभग 80-85 प्रतिशत जनसंख्या ‘पसमांदा मुसलमान’, अर्थात पिछड़ों की है। हैदराबाद में प्रधानमंत्री ने बीजेपी को पसमांदा मुसलमानों पर जोर देने की बात कही। यह रणनीति पूरी तरह तैयार है। जल्द ही बीजेपी एवं संघ परिवार पसमांदा मुस्लिम बस्तियों में ‘स्नेह यात्राओं’ का आयोजन करेगी। इसका सीधा उद्देश्य यह है कि इस प्रकार धर्म के आधार पर एकजुट मुस्लिम वोट बैंक को सामाजिक पसमांदा एवं उच्च जातीय मुस्लिम के आधार पर तोड़ दो। बीजेपी वर्तमान स्थितियों में बड़ी मुस्लिम रणनीति के साथ तैयार है। जल्द ही आप इसको जमीनी स्तर पर भी देखेंगे।

इसकी दो मुख्य धाराएं होंगी। एक इस्लामिक आस्था पर सीधा प्रहार नहीं होगा ताकि बीजेपी के विरुद्ध विदेशों में भारत के खिलाफ भावनाएं न भड़कें। लेकिन देश के भीतर पसमांदा मुसलमान का शोर मचाकर मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ दिया जाए। परंतु संघ के मौलिक मुस्लिम विरोधी सामाजिक एवं राजनीतिक उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं होगा।

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