नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा कि मृत्युपूर्व दिए गए बयान (Dying Declaration) को स्वीकार या खारिज करने के लिए कोई सख्त पैमाना या मानदंड नहीं हो सकता। मृत्युपूर्व दिया गया बयान (Dying Declaration) अगर स्वेच्छा से दिया गया है और यह विश्वास करने योग्य हो तो बिना किसी और साक्ष्य के भी दोषसिद्धि का आधार हो सकता है।
शीर्ष अदालत (Supreme Court) ने कहा कि अगर ऐसे विरोधाभास हैं, जिनसे मृत्युपूर्व बयान की सत्यता और विश्वसनीयता पर संदेह पैदा होता है तब आरोपित को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा (Justices Navin Sinha) और कृष्ण मुरारी (Krishna Murari) की एक पीठ ने अपने फैसले में यह बात कहते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) के 2011 के फैसले को चुनौती देने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय (Delhi High Court) ने एक महिला पर अत्याचार और उसकी हत्या के दो आरोपितों को बरी करने के फैसले को बरकरार रखा था।
सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने अपने आदेश में कहा, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act 1872) के अनुच्छेद 32 के तहत मृत्युपूर्व बयान साक्ष्य के तौर पर स्वीकार्य है। अगर यह स्वेच्छा से दिया गया हो और विश्वास पैदा करने वाला हो तो यह अकेले दोषसिद्धि का आधार बन सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने अपने आदेश में यह भी कहा कि यदि इसमें विरोधाभास, अंतर हो या इसकी सत्यता संदेहास्पद हो, प्रामाणिकता व विश्वसनीयता को प्रभावित करने वाली हो या मृत्युपूर्व बयान संदिग्ध हो तो आरोपित को संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए। पीठ ने कहा, इसलिए, काफी चीजें मामले के तथ्यों पर निर्भर करती हैं। मृत्युपूर्व बयान को स्वीकार या खारिज करने के लिए कोई सख्त पैमाना या मापदंड नहीं हो सकता।