‘मैं व्यक्तिगत रूप से सीलबंद लिफाफों के खिलाफ हूं। होता ये है कि हम वो देखते हैं, जो मामले से जुड़ा दूसरा पक्ष नहीं देख पाता और हम उसे दिखाए बिना मामले का फैसला करते हैं। यह मूल रूप से न्यायिक प्रक्रिया के उलट है। अदालत में गोपनीयता नहीं हो सकती।’
ये टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की है। चीफ जस्टिस ने मार्च में वन रैंक वन पेंशन मामले पर सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से सीलबंद लिफाफा देने पर नाराजगी जताते हुए यह बात कही थी।
सीलबंद लिफाफा अब एक बार फिर से चर्चा है। सुप्रीम कोर्ट ने मलयाली न्यूज चैनल मीडिया वन मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि सीलबंद लिफाफे में जानकारी देने से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। सीलबंद लिफाफे में जवाब देना याचिकाकर्ता को अंधेरे में रखने जैसा है।
सीलबंद लिफाफा क्या है?
ये टर्म आमतौर पर अदालती कार्रवाई में इस्तेमाल होता है। सीलबंद लिफाफा यानी एक ऐसा डॉक्यूमेंट, जिसे सरकार दूसरे पक्ष के साथ शेयर नहीं करना चाहती। कई बार सुप्रीम कोर्ट कुछ मामलों में खुद ही सीलबंद रिपोर्ट मांगता है। वहीं कई बार सरकार और उसकी एजेंसियां भी सीलबंद कवर अदालतों को सौंपती हैं।
आमतौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर ऐसा किया जाता है। सीलबंद लिफाफे में दी गई जानकारी सार्वजनिक होने से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है।
सीलबंद लिफाफे में दी गई जानकारी आमतौर पर मामले में शामिल अन्य पक्षों या पार्टियों को तब तक नहीं दी जाती, जब तक संबंधित अदालत विशेष रूप से ऐसा करने को नहीं कहती।
इसके चलते मामले में शामिल अन्य पार्टियां अपना बचाव करने के लिए सीलबंद लिफाफे में दिए गए डॉक्यूमेंट के दावों के विरोध में कोई तर्क नहीं दे पाती हैं।
सीलबंद लिफाफे से सुप्रीम कोर्ट को क्या दिक्कत है?
सुप्रीम कोर्ट ने 5 अप्रैल को मलयाली चैनल मीडिया वन मामले में फैसला सुनाते हुए सीलबंद लिफाफे से दो समस्याएं बताईं। पहली- यह पीड़ित पक्ष को अपने खिलाफ आए आदेश को प्रभावी ढंग से चुनौती देने के उनके कानूनी अधिकार से वंचित करता है। दूसरी- यह अपारदर्शिता और गोपनीयता की संस्कृति को कायम रखता है।
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने पी. गोपालकृष्णन वर्सेज केरल राज्य के मामले में कहा था कि आरोपी द्वारा दस्तावेजों का खुलासा करना संवैधानिक
रूप से अनिवार्य है, भले ही जांच जारी हो क्योंकि दस्तावेजों से मामले की जांच में सफलता मिल सकती है।
साल 2019 में INX मीडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ED द्वारा सीलबंद लिफाफे में जमा किए गए दस्तावेजों के आधार पर पूर्व केंद्रीय मंत्री को जमानत देने से इनकार करने के अपने फैसले को आधार बनाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट की आलोचना की थी।
3 बड़े मामले, जब सुप्रीम कोर्ट ने सीलबंद लिफाफे लौटाए?
1. OROP केस
इसी साल 18 मार्च को वन रैंक वन पेंशन यानी OROP के बकाए का जो भुगतान है उस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की बेंच कर रही थी। इसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के साथ जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस जेबी पारदीवाला थे।
मामले में केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल एन वेंकटरमानी ने एक सीलबंद लिफाफा पेश किया। इस पर CJI नाराज हो गए। उन्होंने सीलबंद लिफाफे में जवाब लेने से मना कर दिया।
CJI ने कहा कि यह प्रथा निष्पक्ष न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। हम इस तरीके से बिना वजह सीलबंद लिफाफा पेश करने की प्रक्रिया को खत्म करना चाहते हैं। अदालत के कामों में पारदर्शिता होनी चाहिए। यह आदेशों को लागू करने के बारे में है। यहां क्या रहस्य हो सकता है?
2. अडाणी-हिंडनबर्ग केस
17 फरवरी को CJI की अध्यक्षता वाली बेंच ने अडाणी-हिंडनबर्ग से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से सीलबंद लिफाफा लेने से इनकार कर दिया था। दरअसल, सरकार ने इस सीलबंद लिफाफे में उन एक्सपर्ट के नाम सुझाए थे जो अडाणी-हिंडनबर्ग मामले की जांच कमेटी में थे।
सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा था कि हम आपकी ओर से दिए जा रहे सीलबंद लिफाफ को स्वीकार नहीं करेंगे। यदि हम आपके सुझावों को सीलबंद लिफाफे में लेते हैं तो इसका सीधा मतलब होगा कि यह दूसरे पक्ष को पता नहीं चलेगा। साथ ही लोग सोचेंगे कि यह कमेटी सरकार ने बनाई है।
हम निवेशकों की सुरक्षा के लिए पूरी पारदर्शिता चाहते हैं। हम खुद एक कमेटी बनाएंगे, जिससे कोर्ट पर विश्वास की भावना बनी रहे। हालांकि, कोर्ट ने खुद से नियुक्त जांच कमेटी को सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट देने को कहा है।
3. मीडिया वन केस
मलयाली न्यूज चैनल मीडिया वन राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लाइसेंस रिन्यू नहीं करने के सूचना प्रसारण मंत्रालय के खिलाफ केरल हाईकोर्ट पहुंचा था। इस दौरान हाईकोर्ट ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के सीलबंद लिफाफे में दी गई एक रिपोर्ट को स्वीकार किया था।
साथ ही हाईकोर्ट ने मीडिया वन पर बैन बरकरार रखा था। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ चैनल सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सरकार के सीलबंद लिफाफे देने वाले दृष्टिकोण को जारी रखने पर नाराजगी जताई।
बेंच ने मीडिया वन से बैन हटाते हुए कहा कि सुरक्षा कारणों से मंजूरी नहीं देने के कारण का खुलासा नहीं करने और केवल हाईकोर्ट को सीलबंद लिफाफे में जानकारी देने से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ है। सीलबंद लिफाफे में जवाब देना याचिकाकर्ता को अंधेरे में रखने जैसा है।
हाल के अन्य मामले जिनमें अदालतों ने सीलबंद लिफाफों को स्वीकार करने से इनकार किया…
1. मद्रास हाईकोर्ट ने तमिलनाडु के पूर्व मंत्री एसपी वेलुमणि के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में उनके खिलाफ दायर प्रारंभिक रिपोर्ट की एक प्रति देने से मना कर दिया था।
इसके बाद उस वक्त के CJI एनवी रमना ने पाया कि ऐसी कोई सही वजह नहीं दिखती जिसकी वजह से रिपोर्ट को सील्ड कवर में रखा जाए। साथ ही राज्य सरकार ने भी इसे लेकर कोई विशेषाधिकार का दावा नहीं किया था।
2. बिहार के मुजफ्फरपुर शेल्टर कांड में बच्चियों से दुष्कर्म के मामले में कोर्ट ने मामले से जुड़े अधिकारियों पर की गई कार्रवाई का ब्योरा मांगा था। उस वक्त भी तत्कालीन CJI रमना ने पटना हाईकोर्ट के वकील द्वारा सीलबंद लिफाफे में कार्रवाई रिपोर्ट सौंपने पर आश्चर्य व्यक्त किया था।
उन्होंने कहा था कि इसमें केवल मामले से जुड़े अधिकारी शामिल थे, न कि दुष्कर्म पीड़िता। इसके बावजूद इसे सीलबंद लिफाफे में क्यों सौंपा गया।
3. 20 अक्टूबर 2022 को भारतीय नौसेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन नहीं देने के मामले की जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने सुनवाई की थी।
इस दौरान बेंच ने कहा था कि सीलबंद कवर देने की प्रक्रिया न्याय वितरण प्रणाली के कामकाज को प्रभावित करती है।
बेंच ने कहा था कि सीलबंद कवर प्रक्रिया एक खतरनाक मिसाल स्थापित करती है। साथ ही यह जजमेंट यानी फैसले की प्रक्रिया को अस्पष्ट और अपारदर्शी भी बनाती है।
सीलबंद लिफाफे का चलन कितना सही?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि सीलबंद लिफाफे के 3 बड़े पहलू हैं…
1. यह नेचुरल जस्टिस यानी प्राकृतिक न्याय के विरोध में है। प्राकृतिक न्याय का सीधा सिद्धांत है कि जो भी जवाब दिया जाए वो सामने वाली पार्टी को मालूम होना चाहिए। जिससे कि वो अपने केस में सही-गलत के आधार पर अपना रिजॉइन्डर दे सके।
जब कोई जवाब सीलबंद होता है तो सामने वाली पार्टी के नेचुरल जस्टिस का वॉयलेशन होता है। यानी बगैर हियरिंग और बगैर सामने वाली पार्टी को सारी बातें बताए कोई फैसला नहीं कर सकते।
2. कई बार सीलबंद लिफाफे के चलते यह पता नहीं चल पाता कि एफिडेविट किसने दिया है। यानी जवाबदेही और जिम्मेदारी नहीं तय हो पाती है कि कौन से अफसर या अधिकारी का यह एफिडेविट जो उसके प्रति जवाबदेह है।
3. भारत की अदालतें ओपन कोर्ट हैं। खुली अदालतों के कॉन्सेप्ट में काम करती हैं। सीलबंद लिफाफा इस पारदर्शिता के खिलाफ है। साल 2018 के जजमेंट के बाद जब सुप्रीम कोर्ट में लाइव स्ट्रीमिंग हो रही है और पारदर्शिता आ रही है। ऐसे माहौल में सीलबंद लिफाफे के औचित्य पर सवाल खड़ा होना जरूरी है।
सरकार का कहना है कि कई सारे मामले जो राष्ट्र हित से जुड़े होते हैं यानी संवेदनशील होते हैं, उन्हें पब्लिक डोमेन में लाने से दिक्कतें हो सकती हैं। इसलिए कई बार सीलबंद लिफाफे में देशहित के नाम पर चीजों को दिया जाता है।
कई बार कोर्ट खुद सीलबंद लिफाफे में चीजों को मांगती है। कई बार सुप्रीम कोर्ट की खुद की रिपोर्ट भी सीलबंद लिफाफे में होती है, जो पब्लिक डोमेन में नहीं आती है।
कई बार महिलाओं की सुरक्षा के मामले, रेप के मामले या बच्चों से जुड़े मामले में याचिकाकर्ताओं की डिटेल नहीं होती है। वहीं अगर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कोई मसला है तो उसमें एक्सेप्शनली सीलबंद लिफाफे के औचित्य पर सरकार का दबाव रहता है।
सुप्रीम कोर्ट ने मलयाली चैनल मीडिया वन के मामले में हाईकोर्ट में अपनाई गई सीलबंद प्रक्रिया की भी आलोचना की। इसमें केंद्र सरकार ने सुरक्षा मंजूरी देने पर राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला दिया था।
कोर्ट ने कहा, ‘हम मानते हैं कि कोर्ट्स के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा फ्रेज को डिफाइन करना अव्यावहारिक और नासमझी होगी, लेकिन हम ये भी मानते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के दावे हवा में नहीं किए जा सकते। इस तरह के अनुमान का समर्थन करने के लिए मटेरियल होना चाहिए।’
विराग कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपनी कई सारी कमेटी बनाई है। विशेषकर जस्टिस पटनायक कमेटी बनाई थी। इन कमेटियों की रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है। इन रिपोर्ट की जानकारी सार्वजनिक नहीं करना सीलबंद लिफाफे जैसी ही प्रक्रिया है।
दिसंबर 2018 में राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद सुप्रीम कोर्ट के वकील शादान फरासत ने एक लेख लिखा। इसका शीर्षक था ‘अनसील द एनवेलप।’ इसमें उन्होंने लिखा कि सीलबंद लिफाफा देने के पीछे इरादा ये होता है कि किसी मुद्दे पर सार्वजनिक और मीडिया डिबेट और टिप्पणी को कंट्रोल कर लिया जाए।
भले ही इसका उद्देश्य ठीक हो, लेकिन यह संवैधानिक, राष्ट्रीय या संस्थानों से जुड़े मामलों से निपटने का सही तरीका नहीं है। हमारी अदालती प्रणाली का कायदा है तथ्यों के आधार पर बहस करना जिसके आधार पर कोई भी फैसला सुनाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक ट्रेंड देखा जा रहा है जिसके तहत एक पार्टी जो अक्सर सरकारी या उसकी कोई एजेंसी होती है उसे बंद लिफाफे में फैक्चुअल यानी तथ्यात्मक जानकारी कोर्ट को देने के लिए कहा जाता है। इसकी कॉपी सामने वाली पार्टी को भी नहीं दी जाती है। ऐसा करने से स्टेट यानी सरकार कोर्ट को प्रेज्यूडिस यानी मिसगाइड करती है।
क्या सीलबंद लिफाफे लेने को लेकर कोई नियम है?
सीलबंद लिफाफे को लेकर कोई अलग से कानून तो नहीं है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट रूल्स के ऑर्डर 13 के नियम 7 और इंडियन एविडेंस एक्ट 1872 की धारा 123 से सुप्रीम कोर्ट को इस सिलसिले में कई अधिकार मिले हैं।
नियम 7 कहता है कि चीफ जस्टिस या कोर्ट उसी जानकारी को गुप्त रख सकते हैं, जिसका प्रकाशन जनहित में न हो। जब तक चीफ जस्टिस की अनुमति न हो किसी भी पार्टी को जानकारी नहीं दी जा सकती है।
धारा 123 के तहत सरकार के अप्रकाशित दस्तावेजों को सुरक्षा मिली हुई है और सरकारी कर्मचारी को ऐसी जानकारी देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। चल रही जांच को लेकर जानकारी भी गोपनीय रखी जा सकती है।