नई दिल्ली। वैश्विक स्तर पर गेहूं की आपूर्ति में भारत की हिस्सेदारी बढ़ना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस कथन को सही साबित करता है कि भारत दुनिया को खाद्यान्न उपलब्ध करा सकता है। एक अनुमान है कि इस वर्ष भारत एक करोड़ टन गेहूं निर्यात कर सकता है। नि:संदेह इसका एक प्रमुख कारण रूस का यूक्रेन पर हमला है।
महत्वपूर्ण केवल यह नहीं है कि यूक्रेन संकट के कारण दुनिया भर में भारतीय गेहूं की मांग बढ़ रही है, बल्कि यह भी है कि हमारे किसान निजी कंपनियों को गेहूं बेचना पसंद कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि निजी कंपनियां उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक दाम दे रही हैं।
किसान निजी कंपनियों को गेहूं बेचना इसलिए भी पसंद कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें उस असुविधा का सामना नहीं करना पड़ रहा, जिसे आम तौर पर सरकारी मंडियो में करना पड़ता है। पंजाब और हरियाणा में तो निजी कंपनियों के बीच गेहूं खरीदने की होड़ का लाभ भी किसानों को मिल रहा है।
इस स्थिति पर न केवल किसान नेताओं को गौर करना चाहिए, बल्कि उन राजनीतिक दलों एवं संगठनों को भी, जिन्होंने कृषि कानूनों के खिलाफ माहौल बनाया और किसानों को गुमराह कर उन्हें धरना-प्रदर्शन के लिए उकसाया। कम से कम अब तो उन्हें यह समझ आना चाहिए कि कृषि कानून किसानों के भले के लिए थे और उनका अंध विरोध करके कुल मिलाकर किसानों का अहित ही किया गया।
यदि कृषि कानून वापस नहीं लिए गए होते तो शायद आज किसान कहीं बेहतर स्थिति में होते। किसी को इसकी अनदेखी भी नहीं करनी चाहिए कि भारत सरकार तीनों कृषि कानूनों की विसंगतियों को दूर करने के लिए तैयार थी। सरकार के इस नरम रुख के बाद भी किसान नेता इस जिद पर अड़े रहे कि इन कानूनों की वापसी से कम कुछ मंजूर नहीं। विपक्षी दलों ने किसान नेताओं को समझाने-बुझाने और बीच का रास्ता तलाशने के बजाय उनके अड़ियल रवैये का समर्थन करना पसंद किया।
यह समर्थन इस हद तक किया गया कि किसान संगठनों की ओर से रास्ते रोकने को भी जायज ठहरा दिया गया। चूंकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से इन्कार किया, इसलिए किसान नेताओं को यही संदेश गया कि वे जो कुछ कर रहे हैं, वह सही है। इसी के चलते ऐसी स्थिति बनी कि सरकार को कृषि कानून वापस लेने को विवश होना पड़ा।