लखनऊ। यूपी में हुए सात विधानसभाओं के उपचुनावों में जीत हार का फैसला तो 10 नवंबर को आएगा, लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस ने चौंकाया जरूर है।
ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब यूपी में कांग्रेस को चौथे नंबर पर हाँफती हुई एक पार्टी से ज्यादा अहमियत नहीं मिलती थी, लेकिन संगठन में हुए बड़े बदलाव के बाद पहली बार यूपी के चुनावी मैदान में उतरी कांग्रेस ने ये जरूर दिखाया है कि उसे अब गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
इन उप चुनावों को आने वाले 2022 के चुनावों का सेमी फाइनल माना जा रहा है । ये 7 सीटें 2022 के चुनावों के लिए एक संकेतक होंगे ऐसा सियासी पंडितों का मानना है। मुख्य मुकाबला भले ही भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच दिख रहा हो मगर इस बार कांग्रेस पार्टी में तकरीबन हर सीट पर पूरी दमदारी से लड़ाई की है।
कांग्रेस के इस नए तेवर का असल कारण उसका बदल हुआ संगठन है । युवाओं से भरे इस संगठन ने बीते 6 महीनों में जिस तरह सड़क पर लड़ाई लड़ी और उसकी रणनीतिक टीम ने परदे के पीछे से जमीनी संगठन खाद्य करने के लिए मेहनत की उसका नतीजा था कि अधिकांश सीटों पर कांग्रेस का प्रचार काफी तेज दिखाई दिया।
यूपी कांग्रेस का पूरा संगठन ये उपचुनाव एक रणनीति बनाकर लड़ रहा था। पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी ने हर सीट पर अपना प्रभारी नियुक्त किया था जो पूरे चुनाव के दौरान उसी विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय रहा। हर सीट पर करीब 250 लोगों की केंद्रीय टीम मजबूती से प्रचार अभियान में उतारी गईथी। हर सीट पर विभाग और फ्रंटल के प्रतिनिधियों को जाति के हिसाब से जिम्मेदारी दी गयी थी। सिर्फ इतना ही नहीं, हर सीट पर नेताओं में अपनी प्रतिस्पर्धा और आपसी को खुन्नस भुलाकर एकसाथ मिलकर काम करते दिखाई दिए। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण घाटमपुर सीट पर दिखा जब एक दूसरे के विरोधी बताए जाने वाले राकेश सचान और राजाराम पाल न सिर्फ साथ साथ दिखे, बल्कि उनके समर्थक भी कंधे से कंधा मिला कर प्रचार अभियान में चले।
यूपी में नौगांवा सादात (अमरोहा), बुलंदशहर, टुंडला( फिरोजाबाद), घाटमपुर (कानपुर), बांगरमऊ(उन्नाव), मल्हनी (जौनपुर), देवरिया की सीटों पर 3 नवंबर को मतदान हुआ। हालकि टुंडला में कांग्रेस प्रत्याशी का पर्चा खारिज होने से कांग्रेस को शुआती झटका लगा लेकिन बांगरमऊ, घाटमपुर और बुलंदशहर में कांग्रेस जिस मजबूती से लड़ी उसने बदली हुई कांग्रेस का एहसास कर दिया ।
अनुमान बताते हैं बांगरमऊ से आरती बाजपेयी, घाटमपुर से कृपाशंकर शंखवार और बुलंदशहर से सुशील चौधरी ने जिस तरह से चुनाव लड़ा उसने ये तय कर दिया है कि वे इन तीन सीटों पर जीत हार के समीकरण के मुख्य किरदार बन बैठे हैं।
प्रियंका की सक्रियता से पड़ा है फर्क
ये कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि यूपी कांग्रेस में आए इस बदलाव के पीछे प्रियंका गांधी है। प्रियंका के महासचिव बनने के बाद कांग्रेस का ग्राफ लगातार बढ़ा है। पिछले उपचुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत 6.2 से बढ़कर दोगुना हो गया था। जानकारों का कहना है कि इस बार वोटिंग प्रतिशत मे तीन गुना वृद्धि का आसार साफ साफ दिख रहा है। यानी बीते 30 सालों से लगातार अपना मत प्रतिशत गवाती रहने वाली कांग्रेस अपने खोये हुए आधार को तेजी के साथ कवर कर रही है।
बीते एक साल में एक राजनीतिक पार्टी के बतौर कांग्रेस ने यूपी की सड़कों पर विपक्ष की भूमिका बखूबी अदा की है। सोनभद्र के उम्भा कांड के समय चुनार किले में नजरबंद महासचिव प्रियंका गांधी शायद ही यूपी के किसी मसले पर चुप बैठीं हों। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ मुजफ्फरनगर से आज़मगढ़ तक प्रियंका सड़कों पर नज़र आईं। हाथरस की बेटी के इंसाफ के लिए दो दिन तक सड़कों पर लड़ती दिखीं प्रियंका की वायरल तस्वीरों ने उनकी एक जुझारू छवि बनाई है ।
सड़क के आंदोलनों में कांग्रेस की सक्रियता के बाद ये सवाल उठने लगा था कि कांग्रेस कि ये सक्रियता क्या वोटों में बदल पाएगी ? या फिर ये महज अखबार और टेलीविजन की सुर्खियों में ही सिमट कर रह जाएगी लेकिन जिस तरह से 7 सीटों पर कांग्रेस के अभियानों के बाद आ रहे रुझानों से साफ हो गया है कि सड़क की ताकत वोट में तब्दील होने की संभावना भी बनने लगी है।
इन चुनावों में अगर कांग्रेस 1 या 2 सीट भी जीतने में कामयाब होती है तो यह मनाने में कोई शक नहीं रहेगा कि इस सफलता के पीछे निश्चित रूप से वो नया संगठन ही है जिसपर खुद को पार्टी का ओल्ड गार्ड कहने वाले पुराने नेता उंगली उठाते रहते हैं।
यूपी की राजनीति में हवा का रुख बताने वाले ये उपचुनाव निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण इस लिए हैं क्योंकि नतीजों और वोटों के प्रतिशत के बाद यूपी कांग्रेस के नए संगठन पर उठने वाले सवाल बंद हो जाएंगे।