लेखक- डा. हिदायत अहमद खान
आम चुनाव 2019 में महागठबंधन का प्रधानमंत्री उम्मीदवार कौन होगा इसे लेकर विवाद इस कदर बढ़ा कि अब यह कहा जाने लगा है कि कोई उम्मीदवार प्रधानमंत्री का दाबेदार नहीं होगा। इसी के साथ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम पर मची रार अभी ठीक ढंग से थम भी नहीं पाई थी कि विरोधियों ने पूर्व पार्टी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ने की बात को राजनीतिक क्षितिज में कुछ इस तरह से उछाल दिया है कि मानों वो ही उन्हें प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं और उसमें सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस ही उत्पन्न कर रही है। मानों इस समय सोनिया जी की उम्मीदवारी ही सबसे बड़ा मसला है। इसी के साथ महागठबंधन पर भी कुछ विरोधियों को संकट के बादल नजर आने लग गए हैं। वैसे तो आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने के लिए कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल एक राय हैं, लेकिन इस बात को लेकर विवाद जरुर है कि प्रदेशों में टिकटों का बंटवारा किस तरह से होगा और किसे कितनी प्रमुखता दी जाएगी।
मामला यदि यहीं खत्म होने वाला होता तो भी ठीक था, लेकिन जब प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी का नाम लिया जाता है तो अनेक दिग्गजों को खासी परेशानी होने लगती है। विरोधी तो उन्हें शुरु से नासमझ बच्चा बनाने में उतारु रहे हैं, जिसे लेकर संसद में खुद राहुल गांधी ने कहा था कि उन्हें ‘पप्पू’ कहा जाता है। जो ऐसा कहते हैं तो कहते रहें, लेकिन कम से कम जो सवाल उनसे किए जाते हैं उनका तो जवाब दें। बात साफ है कि देश की कमान हाथों में लेकर चलने वाले जब लाजवाब दिखाई देते हैं तो उनके भी नासमझ होने का प्रमाण मिल ही जाता है। बहरहाल अपनों के बीच उत्पन्न होते विवाद को शांत करने के लिए ही अब कहा जा रहा है कि महागठबंधन ने प्रधानमंत्री के चेहरे के बिना आम चुनाव में उतरने की रणनीति पर काम करना शुरु कर दिया है। यह देख और सुनकर साल 2013 का वो चुनावी दौर याद हो आता है जबकि नरेंद्र मोदी जी के नाम पर भाजपा के अंदर ही विरोध के स्वर सुनाई दे रहे थे और कहा जा रहा था कि यदि ऐसा किया गया तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पर संकट के बादल छा जाएंगे। तब टूटने के भय से ही गठबंधन के सबसे भरोसेमंद और करीब 17 साल पुराने सहयोगी जनता दल यूनाईटेड ने बिहार सरकार को बचाने की कोशिश करना तक शुरु कर दी थी।
इसके साथ ही जदयू ने भाजपा को साफ संकेत दिए थे कि गठबंधन में सबसे बड़ा दल होने के नाते प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने का अधिकार उसे दिया जाना चाहिए, लेकिन तब देश और दुनिया ने देखा था कि किस तरह से भाजपा के वरिष्ठ नेता और राजग के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी को भी किनारे करते हुए किसी की भी नहीं सुनी गई और आखिरकार मोदी जी को चुनाव प्रचार अभियान का प्रमुख बना दिया गया था। यह वह फैसला था, जिसने देश के तमाम मतदाताओं को यह संदेश देने का काम किया कि अब बदलाव की बयार चल पड़ी है और इस तूफान के आगे जो आएगा उसे धराशायी होने से कोई बचा नहीं पाएगा। इसके बाद विरोधियों की कौन बात करे यहां तो सहयोगियों और खुद अपनों तक ने कहना शुरु कर दिया था कि एक दागी नेता के हाथ में देश की कमान आखिर कैसे सौंपी जा सकती है? कुल मिलाकर गठबंधन ही नहीं बल्कि स्वयं भाजपा के भीतर भी मोदी जी के नाम का जबरदस्त विरोध हुआ, लेकिन मतदाताओं ने तो मानों अपना फैसला पहले ही सुना दिया था, जिसका भान भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों और नेतृत्व को हो चुका था। इसे देखते हुए ही पार्टीजनों ने अपने फैसले पर अडिग रहने की ठानी और देखते ही देखते अकल्पनीय जीत के साथ मोदी जी देश के प्रधानमंत्री बन गए।
कुछ इसी तरह का माहौल इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की उम्मीदवारी को लेकर देखने को मिल रहा है। बस फर्क यह है कि जहां भाजपा ने अपने शीर्ष नेतृत्व वाले वरिष्ठ और जमीनी नेताओं तक को जीत के लिए किनारे लगा दिया था, वहीं कांग्रेस अभी तक इसी ऊहापोह की स्थिति में है कि आखिर किया क्या जाए, क्योंकि कोई भी ठोस फैसला या कदम गठबंधन को बिखेर देगा। राहुल की उम्मीदवारी को लेकर पार्टी के अंदर भी बगाबती स्वर सुनाई देंगे, जो कि चुनाव के लिए नुक्सानदेह माने जा रहे हैं। इसलिए सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा है कि आम चुनाव जीतने की खातिर कांग्रेस ने दो चरणों में अपना फॉर्मूला तैयार किया है। इसके तहत पहले चरण में कांग्रेस सभी दलों को एकजुट करते हुए मजबूत गठबंधन के साथ चुनाव में उतरेगी और दूसरे चरण में चुनाव के बाद प्रधानमंत्री उम्मीदवार पर फैसला लिया जाएगा, ताकि चुनाव जीतने तक किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न न होने पाए। इस प्रकार यह तय माना जा रहा है कि महागठबंधन का प्रधानमंत्री कौन होगा, यह चुनाव नतीजे आने के बाद ही तय हो सकेगा।
अंतत: यही वह कमजोर कड़ी है जो कि चुनाव के समय ही नहीं बल्कि आगे आने वाले समय में भी सभी को परेशान करती रहेगी। इससे यदि अभी पार नहीं पाया गया तो विरोधी लगातार हावी होते चले जाएंगे और कोशिश की जाएगी कि गठबंधन के फैसले बाहर रहते हुए भी प्रभावित किए जा सकते हैं। यह वही मुद्दा है जिसे सामने रखकर मतदाताओं को भी भ्रमित किया जा सकेगा। मतलब साफ है कि जिस गठबंधन को यह तय करने में अभी से परेशानी हो रही है कि उनका सेनापति कौन होगा, आखिर उसे जिताकर भी कोई क्या हासिल कर लेगा। ऐसे कमजोर गठबंधन से देशहित के निर्णय की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसलिए कहा जा रहा है कि जो फैसले लेना हैं वो पूरी जिम्मेदारी और आत्मविश्वास के साथ लिए जाने चाहिए, क्योंकि यही देश के आमजन को पसंद है।